रे मेरे अनुरागी चित्त मन,
सुन तो ले ठहरो तो ईक क्षण।
क्या है तेरी काम पिपासा,
थोड़ा सा कर ले तू मंथन।
कर मंथन चंचल हर क्षण में,
अहम भाव क्यों है कण कण में,
क्यों पीड़ा मन निज चित वन में,
तुष्ट नहीं फिर भी जीवन में।
सुन पीड़ा का कारण है भय,
इसीलिए करते नित संचय ,
निज पूजन परपीड़न अतिशय,
फिर भी क्या होते निःसंशय?
तो फिर मन तू स्वप्न सजा के,
भांति भांति के कर्म रचा के।
नाम प्राप्त हेतु करते जो,
निज बंधन वर निज छलते हो।
ये जो कति पय बनते बंधन ,
निज बंधन बंध करते क्रंदन।
अहम भाव आज्ञान है मानो,
बंधन का परिणाम है जानो।
मृग तृष्णा सी नाम पिपासा,
वृथा प्यास की रखते आशा।
जग से ना अनुराग रचाओ ,
अहम त्यज्य वैराग सजाओ।
अभिमान जगे ना मंडित करना,
अज्ञान फले तो दंडित करना।
मृग तृष्णा की मात्र दवा है,
मन से मन को खंडित करना।
जो गुजर गया सो गुजर गया,
ना आने वाले कल का चिंतन।
रे मेरे अनुरागी चित्त मन,
सुन तो ले ठहरो तो ईक क्षण।
ये कविता आत्मा और मन से बीच संवाद पर आधारित है। इस कविता में आत्मा मन को मन के स्वरुप से अवगत कराते हुए मन के पार जाने का मार्ग सुझाती है ।