Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
 
259 · Jan 2018
Spiritually Sick
****** fit but spiritually sick
Brag not muscles, regard the week
Never respected , if you do other wise
Though epitome of valour , won many fight



Ajay Amitabh Suman
All Rights Reserved
258 · Jan 2018
Let us Define the Truth
In search of truth, when Sun was bright,
I wandered all days but no clue in sight.
Not found the answers, no truth at all,
Was tired & puzzled, now whom to call?

I saw owl doubting, my tiresome pursuit.
Asked where is light and how is the truth?
Your way is wrong , your method not right?
Can the truth be found, in a day, so trite?

When nothing is seen, in day all dark,
Why wasting you time in day for spark?
Come with me here, come in the night.
Offer was foolish,  so rejected outright.

O owl, this absurd, please listen, please hark,
Camel was shouting, like dog please do not Bark.
Both of you fools, is a fact,  do not get hurt.
If want to taste truth then come in desert.

Then Eagle came laughing, flying which high,
Suggested three of us , to look for sky.
and Fish also came with another advise,
All Four come in sea, where truth does lie.

All of a Sudden Sounds turning in Noise,
All were advising the truth as per choice,
To Flower was tree and clouds for Thunder,
I was surprised , puzzled and in Wonder.

All were having their separate attitude,
Whom should rely and whom to be viewed.
At last this was how we settled the dispute,
Very difficult in mapping the truth absolute.

Whatever is beyond, what ever divine,
Reflecting in all , it lighten it shine.
We agreed this way for the truth to define.
A little bit is of yours and A little bit is mine.

Ajay Amitabh Suman
All Rights Reserved
255 · Mar 2023
Have faith in your doubt
They warn us of black cats ,
and broken glass,
And that number thirteen ,
brings fear in mass.

By tales of black magic and ,
tales of the dead,
In the name of tradition ,
we are often mislead.

Why to swallow these lies,
hook, line, and plot?
Why  not  to question if ,
these are  true or not?

That how can a dead ,
speak through a mouth?
If suspicious arises  ,
have faith in your doubt.

Ajay Amitabh Suman
All Rights Reserved
254 · Dec 2020
2021
अंधकार  का  जो साया था, 
तिमिर घनेरा जो छाया था,
निज निलयों में बंद पड़े  थे,
रोशन दीपक  मंद पड़े थे।

निज  श्वांस   पे पहरा  जारी,  
अंदर   हीं   रहना  लाचारी ,
साल  विगत था अत्याचारी,
दुख के हीं तो थे अधिकारी।

निराशा के बादल फल कर,
रखते  सबको घर के अंदर,
जाने  कौन लोक  से  आए,
घन घोर घटा अंधियारे साए।

कहते   राह  जरुरी  चलना ,
पर नर  हौले  हौले  चलना ,
वृथा नहीं हो जाए वसुधा  ,
अवनि पे हीं तुझको फलना।

जीवन की नूतन परिभाषा ,
जग  जीवन की नूतन भाषा  ,
नर में जग में पूर्ण समन्वय ,
पूर्ण जगत हो ये अभिलाषा।    

नए  साल  का नए  जोश से,
स्वागत करता नए होश से,
हौले  मानव  बदल  रहा है,
विश्व  हमारा संभल  रहा है।

अजय अमिताभ सुमन
253 · Nov 2017
Envious
Pulling the leg
Of persons who grow,
And making them fall
And making them slow.


One thing but certain
Getting you jealous,
Ruining your soul
And blocking its flow.

                      



  Ajay Amitabh Suman
I am the author of  this  poem. This Poem is my Original work. I hold all the right in relation  to my poem,  as available in law. No body is entitled the use this poem , or any part thereof in any form without written consent from me.
252 · Jan 2018
My Enemy Friend
He hated me always as I Wasn't his friend,
I also laughed at him, and he to defend.
Simmering inside us, ill  will and grudge,
Not tried solution, and always we fudge.

I landed in trouble, by mistake, perchance,
Hostile condition and, tough circumstance.
He was with many,as that was his zone,
But Rightly he chosen, to fight alone.

People Suggested to, hit me at back,
But he preferred, my chest to attack.
He Neither deceited, nor played any trick,
Worthy was fight, and worthy defeat.

Everything not fair, In tussle, conflict,
Even battle requires, a fair verdict.
Enemy friend that he, without any Harming,
Beaten me off course, but giving first Warning.

Ajay Amitabh Suman
All Rights Reserved
===================
कौरव सेना को एक विशाल बरगद सदृश्य रक्षण प्रदान करने वाले गुरु द्रोणाचार्य का जब छल से वध कर दिया गया तब कौरवों की सेना में निराशा का भाव छा गया। कौरव पक्ष के महारथियों के पाँव रण क्षेत्र से उखड़ चले। उस क्षण किसी भी महारथी में युद्ध के मैदान में टिके रहने की क्षमता नहीं रह गई थी । शल्य, कृतवर्मा, कृपाचार्य, शकुनि और स्वयं दुर्योधन आदि भी भयग्रस्त हो युद्ध भूमि छोड़कर भाग खड़े हुए। सबसे आश्चर्य की बात तो ये थी कि महारथी कर्ण भी युद्ध का मैदान छोड़ कर भाग खड़ा हुआ।
=================
धरा   पे   होकर   धारा शायी
गिर पड़ता जब  पीपल  गाँव,
जीव  जंतु  हो  जाते ओझल
तज  के इसके  शीतल छाँव।
=================
जिस तारिणी के बल पे केवट
जलधि   से   भी   लड़ता   है,
अगर  अधर में छिद  पड़े  हों
कब  नौ चालक   अड़ता  है?
=================
जिस योद्धक के शौर्य  सहारे
कौरव   दल  बल   पाता  था,
साहस का वो स्रोत तिरोहित
जिससे   सम्बल  आता  था।
================
कौरव  सारे  हुए थे  विस्मित
ना  कुछ क्षण को सोच सके,
कर्म  असंभव  फलित  हुआ
मन कंपन  निःसंकोच  फले।
=================
रथियों के सं  युद्ध त्याग  कर
भाग    चला    गंधार     पति,
शकुनि का तन कंपित भय से
आतुर   होता    चला   अति।
================
वीर  शल्य  के  उर  में   छाई
सघन भय और गहन निराशा,
सूर्य पुत्र  भी  भाग  चला  था
त्याग पराक्रम धीरज  आशा।
================
द्रोण के सहचर  कृपाचार्य के
समर  क्षेत्र  ना   टिकते  पाँव,
हो  रहा   पलायन   सेना  का
ना दिख पाता था  कोई ठाँव।
================
अश्व   समर    संतप्त    हुए  
अभितप्त हो चले रण  हाथी,
कौरव के प्रतिकूल बह चली
रण  डाकिनी ह्रदय  प्रमाथी।
================
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
कौरव सेना को एक विशाल बरगद सदृश्य रक्षण प्रदान करने वाले गुरु द्रोणाचार्य का जब छल से वध कर दिया गया तब कौरवों की सेना में निराशा का भाव छा गया। कौरव पक्ष के महारथियों के पाँव रण क्षेत्र से उखड़ चले। उस क्षण किसी भी महारथी में युद्ध के मैदान में टिके रहने की क्षमता नहीं रह गई थी । शल्य, कृतवर्मा, कृपाचार्य, शकुनि और स्वयं दुर्योधन आदि भी भयग्रस्त हो युद्ध भूमि छोड़कर भाग खड़े हुए। सबसे आश्चर्य की बात तो ये थी कि महारथी कर्ण भी युद्ध का मैदान छोड़ कर भाग खड़ा हुआ।
शैतानियों के बल पे,दिखाओ बच्चों चल के,
ये देश जो हमारा, खा जाओ इसको तल के।

किताब की जो पाठे  तुझको पढ़ाई  जाती,
जीवन में सारी बातें कुछ काम हीं ना आती।

गिरोगे हर कदम तुम सीखोगे सच जो कहना,
मक्कारी सोना चांदी और झूठ हीं है गहना।

जो भी रहा है सीधा जीता है गल ही गल के,
चापलूस हीं चले हैं फैशन हैं आजकल के ।

इस राह जो चलोगे छा जाओगे तू फल के,
ये देश जो हमारा, खा जाओ इसको तल के।
=======
क्या रखा है वक्त गँवाने
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=======
स्व संशय पर आत्म प्रशंसा
अति अपेक्षित  होती है,
तभी आवश्यक श्लाघा की
प्रज्ञा अनपेक्षित सोती है।
=======
दुर्बलता हीं तो परिलक्षित
निज का निज से गान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=======
जो कहते हो वो करते हो
जो करते हो वो बनते हो,
तेरे वाक्य जो तुझसे बनते
वैसा हीं जीवन गढ़ते हो।
========
सोचो प्राप्त हुआ क्या तुझको
औरों के अपमान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=========
तेरी जिह्वा, तेरी बुद्धि ,
तेरी प्रज्ञा और  विचार,
जैसा भी तुम धारण करते
वैसा हीं रचते संसार।
=========
क्या गर्भित करते हो क्या
धारण करते निज प्राण में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=========
क्या रखा है वक्त गँवाने
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=========
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
प्रतिकूल परिस्थितियों के लिए संसार को कोसना सर्वथा व्यर्थ है। संसार ना तो किसी का दुश्मन है और ना हीं किसी का मित्र। संसार का आपके प्रति अनुकूल या प्रतिकूल बने रहना बिल्कुल आप पर निर्भर करता है। महत्वपूर्ण बात ये है कि आप स्वयं के लिए किस तरह के संसार का चुनाव  करते हैं। प्रस्तुत है मेरी कविता "वर्तमान से वक्त बचा लो तुम निज के निर्माण में" का तृतीय भाग।
=====
क्या रखा है वक्त गँवाने
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=====
धर्मग्रंथ के अंकित अक्षर
परम सत्य है परम तथ्य है,
पर क्या तुम वैसा कर लेते
निर्देशित जो धरम कथ्य है?
=====
अक्षर के वाचन में क्या है
तोते जैसे गान में?
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=====
दिनकर का पूजन करने से
तेज नहीं संचित होता ,
धर्म ग्रन्थ अर्चन करने से
अक्ल नहीं अर्जित होता।
=====
मात्र बुद्धि की बात नहीं
विवर्द्धन कर निज ज्ञान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=====
जिस ईश्वर की करते बातें
देखो सृष्टि रचने में,
पुरुषार्थ कितना लगता है
इस जीवन को गढ़ने में।
=====
कुछ तो गरिमा लाओ निज में
क्या बाहर गुणगान में?
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=====
क्या रखा है वक्त गँवाने
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=====
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
धर्म ग्रंथों के प्रति श्रद्धा का भाव रखना सराहनीय  हैं। लेकिन इन धार्मिक ग्रंथों के प्रति वैसी श्रद्धा का क्या महत्व जब आपके व्यवहार इनके द्वारा सुझाए गए रास्तों के अनुरूप नहीं हो? आपके धार्मिक ग्रंथ मात्र पूजन करने के निमित्त नहीं हैं? क्या हीं अच्छा हो कि इन ग्रंथों द्वारा सुझाए गए मार्ग का अनुपालन कर आप स्वयं हीं श्रद्धा के पात्र बन जाएं। प्रस्तुत है मेरी कविता "वर्तमान से वक्त बचा लो तुम निज के निर्माण में" का द्वितीय भाग।
230 · Mar 2018
NEGATION
CREATION OF HIGHER VALUE,
PRECONDITION THE NEGATION OF OLD VALUES.
AJAY AMITABH SUMAN
================
उम्र चारसौ श्यामलकाया
शौर्योगर्वित उज्ज्वल भाल,
आपाद मस्तक दुग्ध दृश्य
श्वेत प्रभा समकक्षी बाल।
================
वो युद्धक थे अति वृद्ध पर
पांडव जिनसे चिंतित थे,
गुरुद्रोण सेअरिदल सैनिक
भय से आतुर कंपित थे।
================
उनको वधना ऐसा जैसे
दिनकर धरती पर आ जाए,
सरिता हो जाए निर्जल कि
दुर्भिक्ष मही पर छा जाए।
================
मेरुपर्वत दौड़ पड़े अचला
किंचित कहीं इधर उधर,
देवपति को हर ले क्षण में
सूरमा कोई कहाँ किधर?
================
ऐसे हीं थे द्रोणाचार्य रण
कौशल में क्या ख्याति थी,
रोक सके उनको ऐसे कुछ
हीं योद्धा की जाति थी।
================
शूरवीर कोई गुरु द्रोण का
मस्तक मर्दन कर लेगा,
ना कोई भी सोच सके
प्रयुत्सु गर्दन हर लेगा।
=================
किंतु जब स्वांग रचा द्रोण
का मस्तक भूमि पर लाए,
धृष्टद्युम्न हर्षित होकर जब
समरांगण में चिल्लाए।
=================
पवनपुत्र जब करते थे रण
भूमि में चंड अट्टाहस,
पांडव के दल बल में निश्चय
करते थे संचित साहस।
=================
गुरु द्रोण के जैसा जब
अवरक्षक जग को छोड़ चला,
जो अपनी छाया से रक्षण
करता था मग छोड़ छला।
=================
तब वो ऊर्जा कौरव दल में
जो भी किंचित छाई थी,
द्रोण के आहत होने से
निश्चय अवनति हीं आई थी।
=================
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
महाभारत युद्ध के समय द्रोणाचार्य की उम्र लगभग चार सौ साल की थी। उनका वर्ण श्यामल था, किंतु सर से कानों तक छूते दुग्ध की भाँति श्वेत केश उनके मुख मंडल की शोभा बढ़ाते थे। अति वृद्ध होने के बावजूद वो युद्ध में सोलह साल के तरुण की भांति हीं रण कौशल का प्रदर्शन कर रहे थे। गुरु द्रोण का पराक्रम ऐसा था कि उनका वध ठीक वैसे हीं असंभव माना जा रहा था जैसे कि सूरज का धरती पर गिर जाना, समुद्र के पानी का सुख जाना। फिर भी जो अनहोनी थी वो तो होकर हीं रही। छल प्रपंच का सहारा लेने वाले दुर्योधन का युद्ध में साथ देने वाले गुरु द्रोण का वध छल द्वारा होना स्वाभाविक हीं था।
227 · Jan 2018
A man who Speaks many thing
A man, who speaks many thing,
Seldom speaks any thing.



Ajay Amitabh Suman
All Rights Reserved
218 · Mar 2018
SOLACE
A LION TO BECOME CAMEL,
A CAMEL TO CHILD,
SOLACE IS IN IGNORANCE,
NOT IN POWER, IN WILD.
AJAY AMITABH SUMAN
हर पांच साल पर प्यार जताने,
आ जाते ये धीरे से,

आलिशान राजमहल निवासी,
छा जाते ये धीरे से।

जब भी जनता शांत पड़ी हो,
जन के मन में अमन बसे,

इनको खुजली हो जाती,
जुगाड़ लगाते धीरे से।

इनके मतलब दीन नहीं,
दीनों के वोटों से मतलब ,

जो भी मिली हुई है झट से,
ले लेते ये धीरे से।

मदिरा का रसपान करा के,
वादों का बस भान करा के,

वोटों की अदला बदली,
नोटों से करते धीरे से।

झूठे सपने सजा सजा के,
जाले वाले रचा रचा के,

मकड़ी जैसे हीं मकड़ी का,
जाल बिछाते धीरे से।

यही देश में आग लगाते.
और राख की बात फैलाते ,

प्रजातंत्र के दीमक है सब,
खा जाते ये धीरे से।

अजय अमिताभ सुमन
प्रजातांत्रिक व्यवस्था में पूंजीपति आम जनता के कीमती वोट का शिकार चंद रुपयों का चारा फेंक बड़ी आसानी से कर लेते हैं। काहे का प्रजातंत्र है ये ?
216 · Jan 2018
Inability
I failed
Not because
Unable to read
His face.

I failed
Because he is not one,
In fact Many
Trapped inside a case.


Ajay Amitabh Suman
All Rights Reserved
213 · Mar 2018
CHALLENGE
"WHEN YOU ARE FACED WITH BIG CHALLENGES IN YOUR LIFE,
CREATE THE BIGGER ONE,
THE SMALLER WILL DISAPPEAR"
AJAY AMITABH SUMAN
212 · Jan 2018
Effort
Standing on Ground
and dreaming for sky
How can you realize
Unless you fly

Ajay Amitabh Suman
All Rights Reserved
क्यों सत अंतस दृश्य नहीं,
क्यों भव उत्पीड़क ऋश्य मही?   
कारण है जो भी सृष्टि में,
जल, थल ,अग्नि या वृष्टि में।
..............
जो है दृष्टि में दृश्य मही,
ना वो सत सम सादृश्य कहीं। 
ज्यों मीन रही है सागर में,
ज्यों मिट्टी होती गागर में।
...............
ज्यों अग्नि में है ताप फला,
ज्यों वायु में आकाश चला।
ज्यों कस्तूरी ले निज तन में,
ढूंढे मृग इत उत घन वन में। 
...............
सत गुप्त कहाँ अनुदर्शन को,
नर सुप्त किन्तु विमर्शन को।
अभिदर्शन का कोई भान नहीं,
सत उद्दर्शन का ज्ञान नहीं।
................
नीर भांति लब्ध रहा तन को,
पर ना उपलब्ध रहा मन को।
सत आप्त रहा ,पर्याप्त रहा,
जगव्याप्त किंतु अनवाप्त रहा।
.................
ना ऐसा भी है कुछ जग में,
सत से विचलित हो जो जग में।
सत में हीं सृष्टि दृश्य रही,
सत से कुछ भी अस्पृश्य नहीं।
.................
मानव ये जिसमे व्यस्त रहा,
कभी तुष्ट रुष्ट कभी त्रस्त रहा।
माया साया मृग तृष्णा थी,
नर को ईक्छित वितृष्णा थी।
................. 
किस भांति माया को जकड़े ,
छाया को हाथों से पकड़े?
जो पार अवस्थित ईक्छा के,
वरने को कैसी दीक्षा ले?
.................. 
मानव शासित प्रतिबिम्ब देख,
किंतु सत सत है बिम्ब एक।
मानव दृष्टि में दर्पण है,
ना अभिलाषा का तर्पण है।
..................
फिर सत परिदर्शन कैसे हो ,
दर्पण में क्या अभिदर्शन हो ?
इस भांति सत विमृश्य रहा,
अपरिभाषित अदृश्य रहा।
...................
अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
सृष्टि के कण कण में व्याप्त होने के बावजूद परम तत्व, ईश्वर  या सत , आप उसे जिस भी नाम से पुकार लें, एक मानव की अंतर दृष्टि में क्यों नहीं आता? सुख की अनुभूति प्रदान करने की सम्भावना से परिपूर्ण होने के बावजूद ये संसार , जो कि परम ब्रह्म से ओत प्रोत है , आप्त है ,व्याप्त है, पर्याप्त है, मानव को अप्राप्त क्यों है? सत जो कि मानव को आनंद, परमानन्द से ओत प्रोत कर सकता है, मानव के लिए संताप देने का कारण कैसे बन जाता है?  इस गूढ़ तथ्य पर विवेचन करती हुई  प्रस्तुत है मेरी कविता "क्यों सत अंतस दृश्य नहीं?"
210 · Jan 2018
Burden of faith
210 · Mar 2018
RIEVER
Knowing the River, Without a Swim,
is beating a Lion, But only in Dream.
AJAY AMITABH SUMAN
210 · Jan 2018
Knowledge of Ignorance
The More we learn
The less we know,
The little we become
The More we grow.



Ajay Amitabh Suman
All Rights Reserved
208 · Mar 2018
blame
Neither I blame you,Nor you to contend,
Signs not good and , I Telling just end.
all rights reserved
क्या तीव्र था अस्त्र आमंत्रण शस्त्र दीप्ति थी क्या उत्साह,
जैसे बरस रहा गिरिधर पर तीव्र नीर लिए जलद प्रवाह।
राजपुत्र दुर्योधन सच में इस योद्धा को जाना हमने,
क्या इसने दु:साध्य रचे थे उस दिन हीं पहचाना हमने।
लक्ष्य असंभव दिखता किन्तु निज वचन के फलितार्थ,
स्वप्नमय था लड़ना शिव से द्रोण पुत्र ने किया यथार्थ।
जाने कैसे शस्त्र प्रकटित कर क्षण में धार लगाता था,
शिक्षण उसको प्राप्त हुआ था कैसा ये दिखलाता था।
पर जो वाण चलाता सारे शिव में हीं खो जाते थे,
जितने भी आयुध जगाए क्षण में सब सो जाते थे।
निडर रहो पर निज प्रज्ञा का थोड़ा सा तो ज्ञान रहे ,
शक्ति सही है साधन का पर थोड़ा तो संज्ञान रहे।
शिव पुरुष हैं महा काल क्या इसमें भी संदेह भला ,
जिनके गर्दन विषधर माला और माथे पे चाँद फला।
भीष्म पितामह माता जिनके सर से झरझर बहती है,
उज्जवल पावन गंगा जिन मस्तक को धोती रहती है।
आशुतोष हो तुष्ट अगर तो पत्थर को पर्वत करते,
और अगर हो रुष्ट पहर जो वासी गणपर्वत रहते।
खेल खेल में बलशाली जो भी आते हो जाते धूल,
महाकाल के हो समक्ष जो मिट जाते होते निर्मूल।
क्या सागर क्या नदिया चंदा सूरज जो हरते अंधियारे,
कृपा आकांक्षी महादेव के जगमग जग करते जो तारे।
ऐसे शिव से लड़ने भिड़ने के शायद वो काबिल ना था,
जैसा भी था द्रोण पुत्र पर कायर में वो शामिल ना था।
अजय अमिताभ सुमन : सर्वाधिकार सुरक्षित
मानव को ये तो ज्ञात है हीं कि शारीरिक रूप से सिंह से लड़ना , पहाड़ को अपने छोटे छोटे कदमों से पार करने की कोशिश करना आदि उसके लिए लगभग असंभव हीं है। फिर भी यदि परिस्थियाँ उसको ऐसी हीं मुश्किलों का सामना करने के लिए मजबूर कर दे तो क्या हो? कम से कम मुसीबतों की गंभीरता के बारे में जानकारी होनी तो चाहिए हीं। कम से कम इतना तो पता होना हीं चाहिए कि आखिर बाधा है किस तरह की? कृतवर्मा दुर्योधन को आगे बताते हैं कि नियति ने अश्वत्थामा और उन दोनों योद्धाओ को महादेव शिव जी के समक्ष ला कर खड़ा कर दिया था। पर क्या उन तीनों को इस बात का स्पष्ट अंदेशा था कि नियति ने उनके सामने किस तरह की परीक्षा पूर्व निश्चित कर रखी थी? क्या अश्वत्थामा और उन दोनों योद्धाओं को अपने मार्ग में आन पड़ी बाधा की भीषणता के बारे में वास्तविक जानकारी थी? आइए देखते हैं इस दीर्घ कविता “दुर्योधन कब मिट पाया” के चौबीसवें भाग में।
202 · Mar 2018
Effort
Standing on Ground,and dreaming for sky
How can you realize, Unless you fly.
all rights reserved
201 · Mar 2018
GOD
GOD
GOD IS HERE, DO YOU KNOW WHY?
BECAUSE MAN NEEDED TEDDY BEAR IN SKY
AJAY AMITABH SUMAN
198 · Apr 2018
Prayer to Death
Prayer to Death:Ajay Amitabh Suman


Limbs are yet to grow,Am just in the womb,
Eyes are, but without brow,and heart is yet to pump.
O Death, You must be having other things to occupy.

Am such a little kid Just attempting to walk,
still stutter in uttering Am striving to talk.
O Death, come later,i won’t defy.

My friends are few,More have to be made,
Books are left unread,Games are to be played.
O Death, Hold on, not the time yet to reply.

Have fallen in love,With gorgeous wife,
Heart is singing and,Joy has come to life.
O Death, give me some time & I will comply.

Children, to be taken care of,Elders to be protected,
Ethics in society shaken,Needs to be corrected,
O Death, time is not ripe to tell the life good bye.

Though money I have made,But no time to spend,
Erred in life many times,Still left ways to amend.
O Death, time is still not ripe, please do not spy.

Yes my hairs have fallen,And I have grown old,
But still Life is a mystery,and I have to unfold.
O Death, come next time, I won’t deny.

The more I desire, the more I pray,
Lust turning hunter and me its prey,
Still frustrated, Still unsated
Craving for life, swinging midway .
O Death, the truth is that,
I do not want to die, I never want to die.
AJAY AMITABH SUMAN
किससे लड़ने चला द्रोण पुत्र थोड़ा तो था अंदेशा,
तन पे भस्म विभूति जिनके मृत्युमूर्त रूप संदेशा।
कृपिपुत्र को मालूम तो था मृत्युंजय गणपतिधारी,
वामदेव विरुपाक्ष भूत पति विष्णु वल्लभ त्रिपुरारी।
चिर वैरागी योगनिष्ठ हिमशैल कैलाश के निवासी,
हाथों में रुद्राक्ष की माला महाकाल है अविनाशी।
डमरूधारी के डम डम पर सृष्टि का व्यवहार फले,
और कृपा हो इनकी जीवन नैया भव के पार चले।
सृष्टि रचयिता सकल जीव प्राणी जंतु के सर्वेश्वर,
प्रभु राम की बाधा हरकर कहलाये थे रामेश्वर।
तन पे मृग का चर्म चढाते भूतों के हैं नाथ कहाते,
चंद्र सुशोभित मस्तक पर जो पर्वत ध्यान लगाते।
जिनकी सोच के हीं कारण गोचित ये संसार फला,
त्रिनेत्र जग जाए जब भी तांडव का व्यापार फला।
अमृत मंथन में कंठों को विष का पान कराए थे,
तभी देवों के देव महादेव नीलकंठ कहलाए थे।
वो पर्वत पर रहने वाले हैं सिद्धेश्वर सुखकर्ता,
किंतु दुष्टों के मान हरण करते रहते जीवन हर्ता।
त्रिभुवनपति त्रिनेत्री त्रिशूल सुशोभित जिनके हाथ,
काल मुठ्ठी में धरते जो प्रातिपक्ष खड़े थे गौरीनाथ।
हो समक्ष सागर तब लड़कर रहना ना उपाय भला,
लहरों के संग जो बहता है होता ना निरुपाय भला।
महाकाल से यूँ भिड़ने का ना कोई भी अर्थ रहा,
प्राप्त हुआ था ये अनुभव शिवसे लड़ना व्यर्थ रहा।
अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
हिमालय पर्वत के बारे में सुनकर या पढ़कर उसके बारे में जानकरी प्राप्त करना एक बात है और हिमालय पर्वत के हिम आच्छादित तुंग शिखर पर चढ़कर साक्षात अनुभूति करना और बात । शिवजी की असीमित शक्ति के बारे में अश्वत्थामा ने सुन तो रखा था परंतु उनकी ताकत का प्रत्यक्ष अनुभव तब हुआ जब उसने जो भी अस्त्र शिव जी पर चलाये सारे के सारे उनमें ही विलुप्त हो गए। ये बात उसकी समझ मे आ हीं गई थी कि महादेव से पार पाना असम्भव था। अब मुद्दा ये था कि इस बात की प्रतीति होने के बाद क्या हो? आईये देखते हैं दीर्घ कविता “दुर्योधन कब मिट पाया” का पच्चीसवाँ भाग।
197 · Mar 2018
IGNORANCE
PEOPLE ARE IGNORANT ENOUGH
TO IGNORE THEIR IGNORANCE.
AJAY AMITABH SUMAN
196 · Mar 2018
SOLACE
A LION TO BECOME CAMEL,
A CAMEL TO CHILD,
SOLACE IS IN IGNORANCE,
NOT IN POWER, IN WILD.
ALL RIGHTS RESERVED
196 · Mar 2018
CHOICE
Life is Like A Cinema Hall,
But Choice is yours,
what kind of movie you want to see.
AJAY AMITABH SUMAN
194 · Mar 2018
TRUTH
HAPPILY KNEELING DOWN,
REJOICING BEING LOADED.
YOU CAN NOT ATTAIN,
THE TRUTH BEING GOADED.
AJAY AMITABH SUMAN
189 · Mar 2018
Ignorance
The More we learn, the little we know,
Shorter we become,the More we grow.
all rights reserved
189 · Jan 2018
A man who promises a lot
A man who promises a lot,
One thing but certain has doubting thought.

Ajay Amitabh Suman
All Rights Reserved
186 · Jan 2023
Who is the Boss
Once husband & wife ,
decided to toss,
You are my boss or
Am I your boss?

Husband was certain that
he was, with a grin,
But little did he know,
What was the spin?

Wife thought over and
over for that fight,
Not getting solution
She chose to strike.

What could be effect,
You can just guess,
That Wife relaxing and
husband in a mess.

He tried to do laundry
but burnt his T-Shirt,
The house looked clumsy
scrambled one just.

Made an effort to clean
But it all looks crude,
Attempted in kitchen too,
but burn the food,

Begging or pleading
In vain she wouldn't budge.
He noticed her value,  
not need to fudge.

With an empty stomach ,
in hunger at loss,
He came to conclusion ,
That She was the boss.

Ajay Amitabh Suman
All Rights Reserved
कुछ हीं क्षण में ज्ञात हुआ सारे संशय छँट जाते थे,
जो भी धुँआ पड़ा हुआ सब नयनों से हट जाते थे।
नाहक हीं दुर्योधन मैंने तुमपे ना विश्वास किया।
द्रोणपुत्र ने मित्रधर्म का सार्थक एक प्रयास किया।
=============================
हाँ प्रयास वो किंचित ऐसा ना सपने में कर पाते,
जो उस नर में दृष्टिगोचित साहस संचय कर पाते।
बुद्धि प्रज्ञा कुंद पड़ी थी हम दुविधा में थे मजबूर,
ऐसा दृश्य दिखा नयनों के आगे दोनों हुए विमूढ़।
============================
गुरु द्रोण का पुत्र प्रदर्शित अद्भुत तांडव करता था,
धनुर्विद्या में दक्ष पार्थ के दृश पांडव हीं दिखता था।
हम जो सोचनहीं सकते थे उसने एक प्रयास किया ,
महाकाल को हर लेने का खुद पे था विश्वास किया।
=============================
कैसे कैसे अस्त्र पड़े थे उस उद्भट की बाँहों में ,
तरकश में जो शस्त्र पड़े सब परिलक्षित निगाहों में।
उग्र धनुष पर वाण चढ़ाकर और उठा हाथों तलवार,
मृगशावक एक बढ़ा चलाथा एक सिंह पे करने वार।
=============================
क्या देखते ताल थोक कर लड़ने का साहस करता,
महाकाल से अश्वत्थामा अदभुत दु:साहस करता?
हे दुर्योधन विकट विघ्न को ऐसे हीं ना पार किया ,
था तो उसके कुछ तोअन्दर महा देव पर वार किया ।
=============================
पितृप्रशिक्षण का प्रतिफलआज सभीदिखाया उसने,
अश्वत्थामा महाकाल पर कंटक वाण चलाया उसने।
शत्रु वंश का सर्व संहर्ता अरिदल जिससे अनजाना,
हम तीनों में द्रोण पुत्र तब सर्व श्रेष्ठ हैं ये माना।
=============================
अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
मृग मरीचिका की तरह होता है झूठ। माया के आवरण में छिपा हुआ होता है सत्य। जल तो होता नहीं, मात्र जल की प्रतीति हीं होती है। आप जल के जितने करीब जाने की कोशिश करते हैं, जल की प्रतीति उतनी हीं दूर चली जाती है। सत्य की जानकारी सत्य के पास जाने से कतई नहीं, परंतु दृष्टिकोण के बदलने से होता है। मृग मरीचिका जैसी कोई चीज होती तो नहीं फिर भी होती तो है। माया जैसी कोई चीज होती तो नहीं, पर होती तो है। और सारा का सारा ये मन का खेल है। अगर मृग मरीचिका है तो उसका निदान भी है। महत्वपूर्ण बात ये है कि कौन सी घटना एक व्यक्ति के आगे पड़े हुए भ्रम के जाल को हटा पाती है?
=============================
184 · Mar 2018
LOVERS
SITUATION IS MORE WORSE,
THAN APPEARS TO BE IN SIGHT,
LOVERS SELDOM LOVE,
IF LOVE THEN ONLY TO FIGHT.
AJAY AMITABH SUMAN
Often you feel
a Village , small,
As Homes are big
And Space is tall.

But, City a Person
Claims to be tall,
B'cause rooms are tiny
& you have to crawl.


Ajay Amitabh Suman
All Rights Reserved
ऐसे  शक्ति  पुंज  कृष्ण  जब  शिशुपाल  मस्तक हरते थे,
जितने  सारे  वीर  सभा में थे सब चुप कुछ ना कहते थे।
राज    सभा   में  द्रोण, भीष्म थे  कर्ण  तनय  अंशु माली,
एक तथ्य था  निर्विवादित श्याम  श्रेष्ठ   सर्व  बल शाली।


वो   व्याप्त   है   नभ  में जल  में  चल में  थल में भूतल में,
बीत   गया जो   पल   आज जो  आने वाले उस कल में।
उनसे   हीं   बनता  है  जग ये  वो  हीं तो  बसते हैं जग में,
जग के डग डग  में शामिल हैं शामिल जग के रग रग में।


कंस  आदि   जो   नरा  धम  थे  कैसे  क्षण  में    प्राण लिए,
जान  रहा  था  दुर्योधन  पर  मन  में  था  अभि मान लिए।
निज दर्प में पागल था उस क्षण क्या कहता था ज्ञान नही,
दुर्योधन  ना कहता  कुछ भी  कहता था अभिमान  कहीं।


गिरिधर  में   अतुलित  शक्ति  थी  दुर्योधन  ये  जान  रहा,
ज्ञात  कृष्ण  से  लड़ने­  पर  क्या पूतना का परिणाम रहा?
श्रीकृष्ण   से  जो  भिड़ता   था  होता   उसका   त्राण  नहीं ,  
पर  दुर्योधन  पर  मद   भारी था   लेता       संज्ञान   नहीं।


है तथ्य विदित ये क्रोध अगन उर में लेकर हीं जलता था ,
दुर्योधन   के  अव  चेतन  में   सुविचार कब   फलता   था।
पर  निज स्वार्थ  सिद्धि  को  तत्तपर रहता कौरव  कुमार,
वक्त  पड़े   तो  कुटिल   बुद्धि  युक्त   करता  था व्यापार।


अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
182 · Jan 2018
Buddha and Us
The Buddha that one,
Who renounced the World
For wisdom and peace,

And we are the one,
Who acquire the wealth
For lust and Caprice.

Ajay Amitabh Suman
All Rights Reserved
181 · Mar 2023
The Digi Begs
=====
While roaming in the market,
I saw a beggar on the street,
Who was asking for a grant,
With smartphone at his feet,
=====
His voice was croaky,
His clothes were all torn,
Still didn't worry, had,
Paytm on his phone.
=====
He begged from anyone,
On street , he could find,
And offered his barcode,
With hope in his mind.
=====
He called up the kids,
Their moms dads and sis,
And pleaded them all,
For a little of their bliss.
=====
Please Send me some,
grant he would implore,
I am Just a poor beggar,
With no bread in store.
=====
All laughed at him ,
That Digi beg though,
Still all have granted,
Him bliss of rainbow.
=====
And so on that beggar,
With phone at his feet,
Collected the grant and,
Pleased with the treat.
=====
He thanked all kids,
Their moms dads too,
And then proceeded to,
Beg some where new.
=====
And I was surprised,
What a world of today,
Even Beggars updated,
Have found new way,
=====
Their selfies are sad,
With frowns so deep,
With ad-on to make them,
Look oh-so-sweet.
=====
Their Instagram posts,
Are a sight to see,
With sad filters and ,
Captions they plea.
=====
Please help me out,
as I am in need,
And hope that you all,
be kind, indeed.
=====
This online drama,
It's ways so strange,
With norms all old,
Forever have changed.
=====
So next time if digi beg,
Says he is in need,
Be aware of him & you,
Need not to cede.
=====
Don't get fooled by his,
Digital such asks,
For beggars are beggars ,
Just pseudo are masque.
=====
Ajay Amitabh Suman
All Rights Reserved
=====
==========================
मेरे भुज बल की शक्ति क्या दुर्योधन ने ना देखा?
कृपाचार्य की शक्ति का कैसे कर सकते अनदेखा?
दुःख भी होता था हमको और किंचित इर्ष्या होती थी,
मानवोचित विष अग्नि उर में जलती थी बुझती थी।
==========================
युद्ध लड़ा था जो दुर्योधन के हित में था प्रतिफल क्या?
बीज चने के भुने हुए थे क्षेत्र परिश्रम ऋतु फल क्या?
शायद मुझसे भूल हुई जो ऐसा कटु फल पाता था,
या विवेक में कमी रही थी कंटक दुख पल पाता था।
==========================
या समय का रचा हुआ लगता था पूर्व निर्धारित खेल,
या मेरे प्रारब्ध कर्म का दुचित वक्त प्रवाहित मेल।
या स्वीकार करूँ दुर्योधन का मतिभ्रम था ये कहकर,
या दुर्भाग्य हुआ प्रस्फुटण आज देख स्वर्णिम अवसर।
==========================
मन में शंका के बादल जो उमड़ घुमड़ कर आते थे,
शेष बची थी जो कुछ प्रज्ञा धुंध घने कर जाते थे ।
क्यों कर कान्हा ने मुझको दुर्योधन के साथ किया?
या नाहक का हीं था भ्रम ना केशव ने साथ दिया?
=========================
या गिरिधर की कोई लीला थी शायद उपाय भला,
या अल्प बुद्धि अभिमानी पे माया का जाल फला।
अविवेक नयनों पे इतना सत्य दृष्टि ना फलता था,
या मैंने स्वकर्म रचे जो उसका हीं फल पलता था?
==========================
या दुर्बुद्धि फलित हुई थी ना इतना सम्मान किया,
मृतशैया पर मित्र पड़ा था ना इतना भी ध्यान दिया।
क्या सोचकर मृतगामी दुर्योधन के विरुद्ध पड़ा ,
निज मन चितवन घने द्वंद्व में मैं मेरे प्रतिरुद्ध अड़ा।
==========================
अजय अमिताभ सुमन : सर्वाधिकार सुरक्षित
=========================
मन की प्रकृति बड़ी विचित्र है। किसी भी छोटी सी समस्या का समाधान न मिलने पर उसको बहुत बढ़ा चढ़ा कर देखने लगता है। यदि निदान नहीं मिलता है तो एक बिगड़ैल घोड़े की तरह मन ऐसी ऐसी दिशाओं में भटकने लगता है जिसका समस्या से कोई लेना देना नहीं होता। कृतवर्मा को भी सच्चाई नहीं दिख रही थी। वो कभी दुर्योधन को , कभी कृष्ण को दोष देते तो कभी प्रारब्ध कर्म और नियति का खेल समझकर अपने प्रश्नों के हल निकालने की कोशिश करते । जब समाधान न मिला तो दुर्योधन के प्रति सहज सहानुभूति का भाव जग गया और अंततोगत्वा स्वयं द्वारा दुर्योधन के प्रति उठाये गए संशयात्मक प्रश्नों पर पछताने भी लगे। प्रस्तुत है दीर्ध कविता “दुर्योधन कब मिट पाया का बाइसवाँ भाग।
181 · Jan 2023
Happy New Year 2023
=====
As the new year
approaches with glee,
We must remember
one thing, you see.
=====
Let's ring in the year
ahead with cheer,
But not to forget the
threat that's here.
=====
The COVID not gone,
still here to stay,
We have to take
precaution every day.
=====
Washing one's hands
wearing the mask,
Social distancing
should be one's task.
=====
Avoiding the crowds
staying at home,
This is only way left
not to be alone.
=====
The vaccine of COVID
brings hope to heart,
But everyone has to
take vaccine take part.
=====
By following instructions,
all duty assigned,
We can help each other
and ease our mind.
=====
I wish you all happy
and healthy new year,
May it  bring you bliss
and joy minus  fear.
=====
Ajay Amitabh Suman:
All Rights Reserved
=====
जो तुम चिर प्रतीक्षित  सहचर  मैं ये ज्ञात कराता हूँ,
हर्ष  तुम्हे  होगा  निश्चय  ही प्रियकर  बात बताता हूँ।
तुमसे  पहले तेरे शत्रु का शीश विच्छेदन कर धड़ से,
कटे मुंड अर्पित करता हूँ अधम शत्रु का निज कर से।

सुन  मित्र की बातें दुर्योधन के मुख पे  मुस्कान फली,
मनोवांछित सुनने को हीं किंचित उसमें थी जान बची।
कैसी  भी  थी  काया  उसकी कैसी भी वो जीर्ण बची ,
पर मन  के अंतरतम में तो थोड़ी   आशा क्षीण बची।

क्या कर सकता अश्वत्थामा कुरु कुंवर को ज्ञात रहा,
कैसे  कैसे  अस्त्र  शस्त्र में  द्रोण  पुत्र  निष्णात रहा।
स्मृति में  याद आ रहा जब गुरु द्रोण का शीश  कटा ,
धृष्टदयुम्न  के  हाथों  ने था  कैसा  वो  दुष्कर्म  रचा।

जब शल्य के उर में  छाई थी शंका भय और निराशा,
और कर्ण भी भाग चला था त्याग वीरता और आशा।
जब सूर्यपुत्र  कृतवर्मा के   समर क्षेत्र ना टिकते पाँव,
सेना सारी भाग  चली   ना दुर्योधन को दिखता ठांव।

द्रोणाचार्य के मर जाने पर  कैसा वो नैराश्य मचा था,
कृपाचार्य भी भाग चले थे दुर्योधन भी भाग चला था।
जब कौरवों  में मचा हुआ था  घोर निराशा हाहाकार,
अश्वत्थामा पर  लगा हुआ  था शत्रु का करने संहार।

अति शक्ति संचय कर उसने तब निज हाथ बढ़ाया,
पाँच  कटे   हुए नर  मस्तक  थे निज   हाथ  दबाया।
पीपल   के   पत्तों  जैसे  थे  सर सब फुट पड़े थे  वो,
वो  पांडव  के सर ना हो सकते ऐसे टूट पड़े थे जो ।

दुर्योधन के मन में क्षण को जो भी थोड़ी आस जगी,
मरने मरने को हतभागी पर किंचित थी श्वांस फली।
धुल धूसरित होने को थे स्वप्न दृश ज्यो दृश्य जगे  ,
शंका के अंधियारे बादल आ आके थे फले फुले।

माना भीम नहीं था ऐसा कि मेरे मन को वो  भाये ,
और नहीं खुद  पे  मैं उसके पड़ने   देता था साए।
माना उसकी मात्र उपस्थिति मन को मेरे जलाती थी,
देख  देख   ना  सो  पाता   था   दर्पोंन्नत  जो  छाती थी।

पर उसके तन के बल को भी मै जो थोड़ा  सा  जानू ,
इतनी बार लड़ा हूँ उससे कुछ  तो  मैं भी  पहचानू  ।
क्या भीम का सर भी ऐसे हो सकता  इतना कोमल?
और पार्थ  की  शक्ति कैसे हो सकती  ऐसे ओझल?

अश्वत्थामा मित्र तुम्हारी शक्ति अजय का  ज्ञान मुझे,
जो कुछ तुम कर सकते हो उसका है अभिमान मुझे।
 पर  युद्धिष्ठिर और  नकुल  है  वासुदेव  के  रक्षण में,
किस भांति तुम जीत गए जीवन के उनके भक्षण में?

तिमिर  घोर  अंधेरा  छाया  निश्चित कोई  भूल हुई है,
निश्चित हीं  किस्मत  में मेरे धँसी हुई सी  शूल हुई है।
फिर  दीर्घ  स्वांस लेकर दुर्योधन  हौले से ये  बोला,
है  चूक  नहीं तेरी  किंचित पर ये कैसा कर डाला?

इतने  कोमल नर मुंड  ना पांडव के  हो सकते हैं?
पांडव  पुत्रों   के  कपाल   ऐसे कच्चे हो  सकते हैं।
ये  कपाल  ना  पांडव  के  जो आ जाए यूँ तेरे हाथ,
आसां ना  संधान  लक्ष्य का ना आये वो  तेरे  हाथ।



थे दुर्योधन  के  मन के शंका  बादल न  यूँ निराधार,
अनुभव जनित  तथ्य घटित ना कोई वहम विचार।
दुर्योधन  के  इस वाक्य से सत्य हुआ ये उद्घाटित,
पांडव पुत्रों का हनन हुआ यही तथ्य था सत्यापित।

ये जान कर अश्वत्थामा  उछल पड़ा था भूपर  ऐसे ,
जैसे आन पड़ी बिजली उसके हीं मस्तक पर जैसे।
क्षण को पैरों के नीचे की धरती हिलती जान पड़ी ,
जो समक्ष था आँखों के उड़ती उड़ती सी भान पड़ी।

शायद पांडव के जीवन में कुछ क्षण और बचे होंगे,
या  उसके  हीं  कर्मों  ने   दुर्भाग्य   दोष    रचे  होंगे।
या उसकी प्रज्ञा  को  घेरे  प्रतिशोध की ज्वाला थी,
लक्ष्य भेद ना कर पाया किस्मत में विष प्याला थी।

ऐसी भूल हुई उससे थी  क्षण को ना विश्वास हुआ,
लक्ष्य चूक सी लगती थी गलती का एहसास हुआ।
पल को तो हताश हुआ था पर संभला था एक पल में ,
जिसकी आस नहीं थी उसको प्राप्त हुआ था फल में।

जिस  कृत्य  से  धर्म  राज  ने  गुरु  द्रोण  संहार किया ,
सही हुआ सब जिन्दे हैं ना सरल मृत्यु स्वीकार हुआ ।
दुर्योधन हे मित्र कहें क्या पांडव को था ज्ञात नहीं,
मैं अबतक हीं तो जिंदा था इससे पांडव अज्ञात नहीं।

बड़े धर्म की भाषा कहते नाहक गौरव गाथा कहते,
किस प्रज्ञा से अर्द्ध सत्य को जिह्वा पे धारण करते।
जो गुरु खुद से ज्यादा भरोसा धर्म राज पे करते थे,
पिता तुल्य गुरु द्रोण से कैसे धर्मराज छल रचते थे।

और धृष्टद्युम्न वो पापी कैसा योद्धा पे संहार किया,
पिता द्रोण निःशस्त्र हुए थे और सर पे प्रहार किया?
हे मित्र दुर्योधन इस बात की ना पीड़ा किंचित मुझको,
पिता युद्ध में योद्धा थे योद्धा की गति मिली उनको।

पर जिस छल से धर्म राज ने गुरु द्रोण संहार किया,
अब भी कहलाते धर्मराज पर दानव सा आचार किया।
मैंने क्या अधर्म किया और पांडव नें क्या धर्म किया,
जो भी किया था धर्मराज ने किंचित पशुवत धर्म किया।

भीष्म पितामह गुरु द्रोण के ऐसे वध करने के बाद,
सो सकते थे पांडव कैसे हो सकते थे क्यों आबाद।
कैसा धर्म विवेचन उनका उल्लेखित वो न्याय विधान,
जो  दुष्कर्म  रचे  जयद्रथ ने पिता कर रहे थे भुगतान।

गर दुष्कृत्य रचाकर कोई खुद को कह पाता हो  वीर ,
न्याय  विवेचन में  निश्चित  हीं  बाधा  पड़ी  हुई  गंभीर।
अब जिस पीड़ा को हृदय लिए अश्वत्थामा चलता है ,
ये देख  तुष्टि हो जाएगी  वो पांडव में भी फलता है ।

पितृ घात के पितृ ऋण से कुछ तो पीड़ा कम होगी ,
धर्म राज से अश्रु नयन से हृदय अग्नि कुछ नम होगी।
अति पीड़ा होती थी उसको पर मन में हर्षाता था,
हार गया था पांडव से पर दुर्योधन मुस्काता  था।

हे अश्वत्थामा मेरे उर को भी कुछ ठंडक आती है ,
टूट  गया  है  तन  मन मेरा पर दर्पोंनत्त छाती है।
तुमने जो पुरुषार्थ किया निश्चित गर्वित होता हूँ,
पर जिस कारण तू होता न उस कारण होता हूँ।



तू हँसता तेरे कारण से मेरे निज पर कारण हैं ,
जैसे  हर नर भिन्न भिन्न जैसे अक्षर उच्चारण है।
कदा कदा हीं पूण्य भाव किंचित जो मन में आते थे,
सोच पितृ संग अन्याय हुए ना सिंचित हीं हो पाते थे।

जब  माता के नेत्र दृष्टि गोचित उर में ईर्षा होती,
तन में मन में तपन घोर अंगारों की वर्षा होती।
बचपन से मैंने पांडव को कभी नहीं भ्राता माना,
शकुनि मामा से अक्सर हीं सहता रहता था ताना।

जिसको  हठधर्मी कह कहकर आजीवन अपमान दिया,
उर में भर इर्ष्या की ज्वाला और मन में  अभिमान  दिया।
जो जीवन भर भीष्म ताप से दग्ध  आग को सहता था,
पाप पुण्य की बात भला  बालक में कैसे  फलता था?

तन   मन   में  लगी हुई  थी प्रतिशोध की जो  ज्वाला ,
पांडव   सारे   झुलस  गए पीकर मेरे विष की हाला।
ये तथ्य सत्य  है दुर्योधन  ने अनगिनत अनाचार सहे,
धर्म पूण्य की बात वृथा  कैसे उससे धर्माचार फले ?

हाँ  पिता रहे आजन्म अंध ना न्याय युक्त फल पाते थे ,
कहने को आतुर सकल रहे पर ना कुछ भी कह पाते थे।
ना कुछ  सहना  ना कुछ  कहना  ये कैसी  लाचारी थी ,
वो विदुर  नीति आड़े आती अक्सर वो विपदा  भारी थी।

वो जरासंध जिससे डरकर कान्हा मथुरा रण छोड़ चले,
वो कर्ण सम्मुख था नतमस्तक सोचो कैसा वो वीर अहे।
ऐसे वीर से जीवन भर जाति का ज्ञान बताते थे,
ना कर्म क्षत्रिय का करते नाहक़ अभिमान सजाते थे।

जो जीवन भर हाय हाय जाति से ही पछताता था,
उस कर्ण मित्र के साये में पूण्य कहाँ फल पाता था।
पास एक था कर्ण मित्र भी न्याय नहीं मिल पाता था?
पिता दृश थी विवशता ना सह पाता कह पाता था  ।

ऐसों के बीच रहा जो भी उससे क्या धर्म विजय होगा,
जो आग के साए में जीता तो न्याय पूण्य का क्षय होगा।
दुर्बुधि  दुर्मुख कहके  जिसका  सबने  उपहास  किया ,
अग्न आप्त हो जाए किंचित बस थोड़ा  प्रयास किया।

अग्न प्रज्वल्लित तबसे हीं जबसे निजघर पांडव आये,
भीष्म  पितामह तात विदुर के प्राणों के बन के साये।
जब  बन बेचारे महल पधारे थे सारे  वनवासी पांडव ,
अंदेश  तब फलित हुआ था आगे होने  वाला तांडव।

जभी पिता हो प्रेमासक्त अर्जुन को  गले लगाते थे,
मेरे  तन  में मन मे क्षण अंगार फलित हो जाते थे।
जब न्याय नाम पे मेरे पिता से जैसे पुरा राज लिए ,
वो राज्य के थे अधिकारी पर ना सर पे ताज दिए।

अन्याय हुआ था मेरे तात से डर था वैसा न हो जाए,
विदुर नीति के मुझपे भी किंचित न पड़ जाए साए।
डर तो था पहले हीं मन में और फलित हो जाता था,
भीम दुष्ट  के  कुकर्मों से  और  त्वरित हो जाता था।

अन्याय त्रस्त था तभी भीम को मैंने भीषण तरल दिया ,
मुश्किल से बहला फुसला था महाचंड को गरल दिया।
पर बच निकला भीम भाग्य से तो छल से अघात दिया,
लक्षागृह की रचना की थी फिर भीषण प्रतिघात किया।

बल से  ना पा सकता था छल से हीं बेशक काम किया ,
जो मेरे तात का सपना था कबसे बेशक सकाम किया।
दुर्योधन   मनमानी   करता  था अभिमानी  माना मैंने ,
पर दूध धुले भी  पांडव  ना थे सच में हीं पहचाना मैंने।

क्या  जीवन रचनेवाला  कभी सोच के जीवन रचता है,
कोई  पुण्य  प्रतापी कोई पाप  अगन ले हीं  फलता है।
कौरव पांडव सब कटे मरे क्या यही मात्र था प्रयोजन ,
रचने वाले ने क्या सोच के किया युद्ध का आयोजन ?

क्या पांडव सारे धर्मनिष्ठ और हम पापी थे बचपन से ?
सारे कुकर्म फला करते क्या कौरव से लड़कपन से ?
जिस  खेल  को  खेल  खेल  में  पांडव  खेला करते थे ,
आग  जलाकर  बादल  बनकर  अग्नि  वर्षा  करते थे।

हे मित्र कदापि ज्ञात तुम्हे भी माता के  हम भी प्यारे।
माता  मेरी  धर्मनिष्ठ  फिर  क्यों हम  आँखों  के तारे ?
धर्म  शेष कुछ मुझमे भी जो साथ रहा था मित्र कर्ण ,
पांडव के मामा शल्य कहो क्यों साथ रहे थे दुर्योधन?

अश्वत्थामा  मित्र  सुनो  हे  बात  तुझे सच  बतलाता हूँ  ,
चित्त में पुण्य जगे थे किंचित फले नहीं मैं पछताता हूँ।
हे मित्र जरा तुम  याद करो जब   चित्रसेन से हारा था,
जब अर्जुन का धनुष बाण हीं  मेरा  बना सहारा था।

तब मेरे भी मन मे भी क्षण को धर्म पूण्य का ज्ञान हुआ,
अज्ञान हुआ था तिरोहित क्षय मेरा भी अभिमान हुआ।
उस दिन मन में निज कुकर्मों का  थोड़ा  एहसास हुआ ,
तज दूँ इस दुनिया को क्षण में क्षणभर को प्रयास हुआ।

आत्म ग्लानि का ताप लिए अब विष हीं पीता रहता हूँ ,
हे  अश्वत्थामा  ज्ञात  नहीं तुमको पर सच है  कहता हूँ।
ऐसा  ना था  बचपन  से हीं  कोई कसम उठाई थी ,
भीम ढीठ  से ना  जलता था उसने आग लगाई थी।

मेरे  अनुजों    संग  जाने   कैसे  कुचक्र रचाता  था ,
बालोचित ना क्रीड़ा थी भुजबल से इन्हें डराता था।
प्रिय अनुजों की पीड़ा मुझसे  यूँ ना  देखी जाती थी ,
भीम ढींठ  के कटु हास्य वो दर्प से उन्नत छाती थी।

ऐसे  हीं  ना  भीम  सेन को मैंने विष का पान दिया ,
उसने मेरे  भ्राताओं को किंचित हीं अपमान दिया।
और पार्थ  बालक मे भी थी कौन पुण्य की अभिलाषा ,
चित्त में निहित  निज स्वार्थ  ना कोई धर्म की पिपासा।

डर का चित्त में भाग लिए वो दिनभर कम्पित रहता था ,
बाहर से तो वो  शांत दिखा पर भीतर शंकित रहता था।
ये डर हीं तो था उसका जब हम सारे सो जाते थे,
छुप छुपकर संधान लगाता जब  तारे  खो जाते थे।

छल में कपटी अर्जुन का भी ऐसा कम है नाम नहीं।
गुरु द्रोण का कृपा पात्र बनना था उसका काम वहीं।
मन में उसके क्या था उसके ये दुर्योधन तो जाने ना,
पर इतना भी मूर्ख नहीं चित्त के अंतर  पहचाने ना।

हे मित्र कहो ये न्याय कहाँ  उस अर्जुन के कारण हीं,
एक्लव्य  अंगूठा  बलि  चढ़ा  ना  कोई  अकारण हीं।
सोंचो गुरुवर ने पाप किया क्यों खुद को बदनाम किया ,
जो सूरज जैसा उज्ज्वल हो फिर क्यों ऐसा अंजाम लिया?

ये अर्जुन का था किया धरा  उसके मन में था जो  संशय,
गुरु ने खुद पे लिया दाग ताकि अर्जुन चित्त रहे अभय।
फिर निज महल में बुला बुला अंधे का बेटा कहती  थी  ,
जो क्रोध अगन में जला बढ़ा उसपे घी  वर्षा करती  थी।

मैं  चिर अग्नि  में जला  बढ़ा क्या  श्यामा को ज्ञान नहीं ,
छोड़ो  ऐसे भी कोई भाभी  करती क्या अपमान कहीं?
श्यामा का  जो  चिर  हरण था वो कारण जग जाहिर है,
मृदु हास्य का खेल नहीं अपमान फलित डग बाहिर है।

वो अंधापन हीं कारण था ना पिता मेरे महाराज बने,
तात अति  थे बलशाली फिर भी पांडू अधिराज बने।
दुर्योधन बस नाम नहीं  ये  दग्ध आग का शोला  था ,
वर्षों से सिंचित ज्वाला थी कि अति भयंकर गोला था।

उसी लाचारी को कहकर क्या ज्ञात कराना था उसको ?
तृण जलने को तो ईक्षुक हीं क्यों आग लगाना था उसको?
कि वो चौसर के खेल नही न मात्र खेल के पासे थे,
शकुनि ने अपमान सहे थे एक अवसर के प्यासे थे।

उस अवसर का कारण  मैं ना धर्मराज हीं कारण थे ,
सुयोधन को समझे कच्चा  जीत लिए मन धारण थे।
कैसे कोई कह सकता है दुर्योधन को व्याभिचारी ,
जुए  का  व्यसनी धर्मराज चौसर उनकी हीं लाचारी।

जब शकुनि मामा को खुद के बदले मैंने खेलाया था,
खुद हीं पासे चलने को उनको किसने उकसाया था।
ये धर्मराज का व्यसनी मन उनकी बुद्धि पर हावी था,
चौसर खेले में धर्म नहीं उनका बस अहम प्रभावी था।

वरना  जैसे कि चौसर में मामा  शकुनी  का ज्ञान लिया।
वो नहीं कृष्ण को ले आये बस अपना अभिमान लिया।
उसी मान के चलते हीं तो  हुआ श्यामा का चिर हरण,
अग्नि मेरी जलने को आतुर उर में  बसती रही अगन।

श्यामा का सारा वस्त्र हरण वो द्रोण भीष्म की लाचारी,
चिनगारी कब की सुलग रही थी मात्र आग की तैयारी।
कर्ण मित्र की आंखों ने अब तक जितने अपमान सहे,
प्रथम खेल के  स्थल ने   जाने कितने अवमान कहे।

उसी भीम की नजरों में जब वो अपमान फला देखा ,
पांडव की नीची नजरों में वो ही प्रतिघात सजा देखा ।
जब चिरहरण में श्यामा ने कातर होकर चीत्कार किया,
ये जान रहा था दुर्योधन है समर शेष स्वीकार किया।

दुर्योधन तो मतवाला था कि ज्ञात रहा विष का हाला,
ये उसको खुद भी मरेगा कि  चिरहरण का वो प्याला।
कुछ नही समझने वाला था ज्ञात श्याम थे अविनाशी,
वो हीं  श्यामा  के  रक्षक  थे पांचाली  हित अभिलाषी।

फिर भी जुए के उसी खेल में मैंने जाल बिछाया था,
उस खेल में  मामा  ने तरकस से वाण चलाया था।
अंधा कह कर श्यामा ने जो भी मेरा अवमान किया,
वो  प्रतिशोध  की चिंगारी  मेरे  उर में अज्ञान दिया।

हम जीत गए थे चौसर में पर युद्ध अभी अवशेष रहा,
जब तक दुर्योधन जीता था वो समर कदापि शेष रहा।
हाँ तुष्ट हुआ था दुर्योधन उस प्रतिशोध की ज्वाला में,
जले  भीम ,  पार्थ, धर्म राज पांचाली  विष हाला में।

और जुए में  धर्म  राज  ने  खुद ही दाँव लगाया था,
चौसर  हेतू  पांडव  तत्तपर मैंने तो मात्र बुलाया था।
गर किट कोई आ आकर दीपक में जल जाता है,
दोष मात्र कोई किंचित क्या दीपक पे फल पाता है।

दुर्योधन तो  मतवाला था  राज शक्ति का अभिलाषी,
शक्ति संपूज्य रहा जीवन ना धर्म ज्ञान  का विश्वासी ।
भीष्म अति थे बलशाली जो कुछ उन्होंने ज्ञान दिया ,
थे पिता मेरे लाचार बड़े मजबूरी में सम्मान दिया।

जो  एकलव्य  से अंगूठे का  गुरु द्रोण  ने दान लिया ,
जो शक्तिपुंज है पूज्य वही बस ये ही तो प्रमाण दिया।
भीष्म पितामह किंचित जब कोई स्त्री हर लाते हैं ,
ना उन्हें विधर्मी कोई कहता मात्र पुण्य फल पाते हैं।

दुर्योधन भी जाने क्या क्या पाप पुण्य क्या अभिचारी,
जीत गया जो शक्ति पुंज वो मात्र न्याय का अधिकारी।
दुर्योधन ने धर्म  मात्र का मर्म यही इतना बस  जाना ,
निज बाहू  पे जो जीता  जिसने निज गौरव पहचाना।

उसके आगे ईश  झुके तो नर की क्या औकात भला ?
रजनी चरणों को धोती  है  आ  झुकता  प्रभात चला।
इसीलिए तो जीवन पर पांडव संग बस अन्याय किया,
पर धर्म युद्ध में धर्मराज ने भी कौन सा  न्याय किया?

धर्मराज हित कृष्ण कन्हैया महावीर पूण्य रक्षक थे,
कर्ण का वध हुआ कैसे पांडव भी धर्म के भक्षक थे?
सब कहते हैं अभिमन्यु का कैसा वो संहार हुआ?
भूरिश्रवा के प्राण हरण में  कैसा धर्मा चार हुआ ?

भीष्म तात निज हाथों से गर धनुष नहीं हटाते तो,
भीष्म हरण था असंभव पांडव किंचित पछताते तो।
द्रोण युद्ध में शस्त्र हीन होकर बैठे असहाय भला,
शस्त्रहीन का जीवन लेने में कैसे कोई पूण्य फला?

जिस भाव को मन में रखकर हम सबका संहार किया,
क्यों गलत हुआ जो भाव वोही ले मैंने  नर संहार किया।
क्या कान्हा भी बिना दाग के हीं ऐसे रह पाएंगे?
ना अनुचित कोई कर्म फला उंनसे कैसे  कह पाएंगे?

पार्थ  धर्म  के अभिलाषी व पूण्य लाभ के हितकारी,
दुर्योधन तो था हठधर्मी नर अधम पाप का अधिकारी।
न्याय पूण्य के नाम लिये दुर्योधन को हरने धर्म चला,
क्या दुर्योधन को हरने में हित हुआ धर्म का कर्म भला?

धर्म राज तो चौसर के थे व्यसनी फिर वो काम किया,
युद्ध जीत कर हरने का फिर से हीं वो इंजेजाम किया।
अति जीत के विश्वासी कि खुद पे  यूँ अभिमान किया,
चुन लूँ चाहे जिसको भी किंचित अवसर प्रदान किया।

पर दुर्योधन ने धर्मराज से धर्म  युद्ध  व्यापार किया ,
चुन सकता था धर्मराज ना अर्जुन पे प्रहार किया।
हे  मित्र कहो  ले गदा मेरे  सम्मुख  होते सहदेव नकुल,
क्या इहलोक पे बच जाते क्या मिट न जाता उनका मुल?

पर मैंने तो न्याय उचित ही चारों को जीवन दान दिया ,
चुना भीम को गदा युद्ध में निज कौशल प्रमाण दिया ।
गर भीम अति बलशाली था तो निज बाहू मर्दन करता ,
जिस गदा शक्ति का मान बड़ा था बाँहों से गर्दन धरता।

यदुनंदन को ज्ञात  रहा था   माता का   उपाय भला,
करके रखा दुर्योधन को दिग्भ्रमित  असहाय छला।
पर  जान गए जब गदा युद्ध में दुर्योधन हीं भारी था ,
छल से जंधा तोड़ दिए अब कौन धर्म अधिकारी था ?

रक्त सींच निज हाथों से अपने केशों को दान दिया ,
क्या श्यामा सो पाएगी कि बड़ा पुण्य का काम किया?
दुर्योधन अधर्म ,विधर्म , अन्याय, पाप का रहा पर्याय,
तो पांडव किस मुख से धर्मी न्याय पुरुष फिर रहे हाय।

बड़ा धर्म का नाम लिए कि पुण्य कर्म अभिज्ञान लिए ,
बड़ा कुरुक्षेत्र आये थे सच का सच्चा अभिमान लिए।
सच तो  दुर्योधन  हरने में पांडव  दुर्योधन वरण चले,
अन्याय पाप का जय होता  धर्म न्याय का क्षरण चले।

गर दुर्योधन ने जीवन भर पांडव संग अभिचार किया,
तो धर्म युद्ध में धर्म पूण्य का किसने है व्यापार किया?
जहाँ  पुण्य का क्षय होता है शक्ति पुंज का जय होता है ,
सत्य कहाँ होता राजी है कहाँ धर्म का जय होता है ?

पाप पुण्य की बात नहीं जहाँ शक्ति का होता व्यापार,
वहाँ मुझी को पाओगे तुम दुर्योधन का हीं संचार।
दिख नहीं पड़ता तूमको कब सत्य यहाँ इतराता है?,
यहाँ हार गया है दुर्योधन पर पूण्य कर्म पछताता है ।

पांडव के भी तन में मन में सब पाप कर्म फलित होंगे,
दुर्योधन सब कुछ झेल चुका उनपे भी अवतरित होंगे।
कि धर्म युद्ध में धर्म हरण बस धर्म हरण हीं हो पाया,
जो कुरुक्षेत्र को देखेगा बस न्याय क्षरण हीं हो पाया।



जीत गए किंचित पांडव जब अवलोकन कर पाएंगे?
जब भी अंतर को  झांकेंगे  दुर्योधन  को  हीं  पाएंगे।
ये बात बता के दुर्योधन तब ईह्लोक को त्याग चला,
कहते सारे पांडव की जय धर्म पुण्य का भाग्य फला।

कर्ण पुत्र की लाचारी थी जीवित जो बचा रहा बच के ,
वृषकेतु आ मिला पार्थ कहते सब साथ मिला सच से।
हाँ अर्जुन को भी कर्ण वध का मन में था संताप फला ,
वृष केतु  को  प्रेम  दान कर करके पश्चाताप फला  ।

वृष केतु के गुरु पार्थ और बालक पुण्य प्रणेता था ,
सब सीख लिया था अर्जुन से वो योद्धा था विजेता थे।
कोई भी ऐसा वीर नहीं ठहरे जो भी उसके समक्ष ,
पांडव सारे खुश होते थे देख कर्ण पुत्र कर्ण समक्ष ।

जब स्वर्गारोहण करने को तैयार हो चले पांडव वीर ,
विकट चुनौती आन पड़ी थी धर्मराज हो चले अधीर ।
वृषकेतु था प्रबल युवक अभिमन्यु पुत्र पर बालक था ,
परीक्षित था नया नया वृषकेतु राज्य संचालक था।

वृषकेतु और परीक्षित में कौन  राज्य का अधिकारी ,
धर्मराज थे उलझन में की आई फिर विपदा भारी ।
न्याय यही तो कहता था कि वृषकेतु को मिले  प्रभार  ,
वो ही राज्य का अधिकारी वोही योग्य राज्याधिकार।

पर पुत्र के प्रेम में अंधे अर्जुन ने वो  व्यवहार किया ,
कभी  धृतराष्ट्र  ने  दुर्योधन से जैसा था प्यार किया।
अभिमन्यु  के  पुत्र परीक्षित को देके राज्याधिकार ,
न्याय धर्म पे कर डाला था आखिर पांडव ने प्रहार।

यदि  योग्यता  हीं  राज्य की होती कोई परिभाषा ,
वृषकेतु हीं श्रेयकर था वो ही धर्म की अंतिम आशा।
धृतराष्ट्र  तो  अंधे  थे अपने कारण कह सकते  थे,
युद्धिष्ठिर और पार्थ के क्या  कारण हो सकते थे ?

पुत्र मोह में अंधे राजा का सबने उपहास किया ,
अन्याय त्रस्त था दुर्योधन ना सबने विश्वास किया।
अब किस मुख से पार्थ धर्म की गाथा कहते रहते ?
कर्म तो हैं विधर्मी  जैसे पाप कर्म हीं गढ़ते रहते ।

अस्वत्थामा देख के सारी हरकत अर्जुन पांडव के ,
ना अफ़सोस कोई होता था उसको अपने तांडव पे।
अतिशय  पीड़ा  तन  में मन में लिए पहाड़ों के नीचे,
केशव श्राप लगा हुआ अब भी अस्वत्थामा के पीछे।

बीत  गए  हैं  युग  कितने अब उसको है ज्ञान नहीं,
फलित हुई  हरि की वाणी बचा रहा बस भान नहीं।
तन  में  पड़े  हुए  हैं  फोड़े  छिन्न  भिन्न सी काया है ,
जल से जलते हैं अंगारे आँखों समक्ष अँधियारा है ।

पर  कष्ट पीड़ा झेल  के सारे अब भी  वो ना रोता है ,
मन  में  कोई  पाप भाव  ना  अस्वत्थामा  सोता  है।
एक वाणी जो यदुनंदन की फलित हुई थी होनी थी,
पर एक वाणी फलित हुई ना ये कैसी अनहोनी थी ?

केशव ने तो ज्ञान दिया था जब  धर्म का क्षय होगा,
पाप   धरा   पर  छाएगा  दुष्कर्मों  का  जय  होगा।
तब तब पुण्य के जय हेतु गिरिधर धरती पर आएंगे,
धर्म   पताका  पुनर्स्थापित  धरती  पर  कर   पाएंगे ।



पर किंचित केशव की वाणी नहीं सत्य है होने को ,
नहीं सत्य की जीत हैं संभव धर्म खड़ा है रोने  को।
मंदिर मस्जिद नाम पर जाने होते  कितने पापाचार,
दु:शासन करते वस्त्र हरण अबला हैं कितनी लाचार।



सीताओं  का  अपहरण  भी रावण  हाथों होता हैं ,
अग्नि  परीक्षा  में  जलती  है राम आज भी  रोता है।
मुद्रा की चिंता में मानव भगता रहता पल पल पल,
रातों को ना आती निद्रा बेचैनी चित्त में इस उस पल।

जाने कितने हिटलर आतें सद्दाम जाने छा जाते हैं ,
गाँधी की बातें हुई बेमानी सच छलनी हो जाते हैं।
विश्व युद्ध भी देखा उसने देखा मानव का वो संहार,
तैमुर लंग के कृत्यों से दिग्भ्रमित हुआ वो नर लाचार।

सम सामयिक होना भी एक व्यक्ति को आवश्यक है
पर जिस ज्ञान से उन्नति हो बौद्धिक मात्र निरर्थक है ।
नित अध्ययन रत होकर भी है अवनति संस्कार में
काम एक है नाम अलग बस बदलाहट किरदार में।

ईख पेर कर रस चूसने जैसे व्यापारी करें व्यापार ,
देह अगन को जला जलाकर महिलाओं से चले बाजार।
आज एक नहीं लाखों सीताएँ घुट घुट कर मरा करती,
कैसी दुनिया कृष्ण की वाणी और धर्म की ये धरती?

अब अधर्म  धर्म पे हावी नर का हो भीषण संहार,
मंदिर मस्जिद  हिंसा  निमित्त  बहे रक्त की धार।
इस धरती पे नर  भूले मानवता  की परिभाषा,
इस युग  में मानव से नहीं मानवता की आशा।

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई  जैन बौद्ध की कौम,
अति विकट ये प्रश्न है भाई धर्म राह पर कौन?
एक निर्भया छली गई जाने  कितनी छल जाएँगी ,
और दहेज़ की  ज्वाला में जाने कितनी जल जाएंगी ?

आखिर कितनों के प्राण जलेंगे तब हरि धरा पर आयेंगे,
धरती पर धर्म प्रतिष्ठा होगी जो वो  कहते कर पाएंगे ।
मृग मरीचिका सी लगती है केशव की वो अद्भुत वाणी,
हर जगह प्रतिष्ठित होने को है दुर्योधन की वही कहानी।

जो  जीत  गया  संसार  युद्ध  में  धर्मी  वो  कहलाता  है ,
और  विजित  जो  भी  होता  विधर्मी सा  फल पाता है ।
ना कोई है धर्म प्रणेता ना कोई है पुण्य संहारक ,
जीत गया जो जीवन रण में वो पुण्य का प्रचारक।

जीत मिली जिसको उसके हर कर्म पुण्य हो जायेंगे ,
और हार मिलती जिसको हर कर्म पाप हो जायेंगे  ।
सच ना इतिहास बताता है सच जो है उसे छिपाता है,
विजेता हाथों त्रस्त या तुष्ट जो चाहे वही दिखाता है ।

दुर्योधन को हरने में जो पांडव ने दुष्कर्म रचे ,
उन्हें नजर ना आयेंगी क्या कान्हा ने कुकर्म रचे।
शकुनी मामा ने पासा फेंका बात बताई जाएगी ,
धर्मराज थे कितनी व्यसनी बात भुलाई जाएगी।

कलमकार को दुर्योधन में पाप नजर हीं आयेंगे ,
जो भी पांडव में फलित हुए सब धर्म हो जायेंगे ।
धर्म पुण्य की बात नहीं थी सत्ता हेतु युद्ध हुआ था,
दुर्योधन के मरने में हीं न्याय धर्म ना पुण्य फला था।



सत्ता के हित जो लड़ते हैं धर्म हेतु ना लड़ते हैं ,
निज स्वार्थ की सिद्धि हेतु हीं तो योद्धा मरते हैं।
ताकत शक्ति के निमित्त युद्ध सत्ता को पाने को तत्पर,
कौरव पांडव आयेंगे पर ना होंगे केशव हर अवसर ।

हर युग में पांडव  भी होते हर युग में दुर्योधन होते  ,
जो जीत गया वो धर्म प्रणेता हारे सब दुर्योधन होते।
अब वो हंसता देख देख  के दुर्योधन की सच्ची वाणी ,
तब भी सच्ची अब भी सच्ची दुर्योधन की कथा कहानी।

हिम शैल के तुंग शिखर पर बैठे बैठे  वो घायल नर,
मंद मंद उद्घाटित चित्त पे उसके होता था  ये स्वर ।
धुंध पड़ी थी अबतक जिसपे तथ्य वही दिख पाता है,
दुर्योधन तो  मर   जाता   कब  दुर्योधन मिट पाता है?

द्रोणपुत्र  ओ द्रोणपुत्र  ये  कैसा   सत्य  प्रकाशन है ?
ये कौन तर्क देता तुझको है कैसा तथ्य प्रकाशन है?
कैसा अज्ञान का ज्ञापन ये अबुद्धि का कैसा व्यापार?
कैसे  ये चिन्हित होता तुझसे अविवेक का यूँ प्रचार?

द्रोण  पुत्र  ओ  द्रोणपुत्र ये कैसा जग का दृष्टिकोण,
नयनों से प्रज्ञा लुप्त हुई  चित्त पट पे तेरे बुद्धि मौन।
ये  कौन  बताता है तुझको ना दुर्योधन मिट पाता है ,
ज्ञान  चक्षु  से देख जरा  क्या  दुर्योधन टिक पाता है?

ये  कैसा  अनुभव  तेरा  कैसे  तुझमे निष्कर्ष फला ,
समझ नहीं तू पाता क्यों तेरे चित्त में अपकर्ष फला।
क्या  तेरे अंतर मन में भी बनने की चाहत दुर्योधन ,
द्रोणपुत्र  ओ द्रोणपुत्र कुछ तो अंतर हो अवबोधन।

मात्र अग्नि का बुझ जाना हीं  शीतलता का नाम नहीं,
और प्रतीति जल का होना पयोनिधि का प्रमाण नहीं।
आंखों से जो भी दिखता है नहीं ज्ञान का मात्र पर्याय,
मृगमरीचिका में गोचित जो छद्म मात्र हीं तो जलकाय।

जो कुछ तेरा अवलोकन क्या समय क्षेत्र से आप्त नहीं,
कैसे कह सकते हो जो तेरा सत्य जगत में व्याप्त वहीं।
अश्वत्थामा  तथ्य  प्रक्षेपण क्या ना तेरा  कलुषित  है?
क्या तेरा  जो सत्य  अन्वेषण ना माया मलदुषित है?

इतना सब दुख सहते रहते फिर भी कैसा दोष विकार,
मिथ्या ज्ञान अर्जन करते हो और सजाते अहम विचार।
अगर मान भी ले गर किंचित कुछ तो तथ्य बताते हो,
तुम्ही बताओ इस सत्य से क्या कुछ बेहतर कर पाते हो?

जिस तथ्य प्रकाशन से  गर नहीं किसी का हित होता,
वो भी क्या है सत्य प्रकाशन नहीं कोई हलुषित होता।
दुर्योधन अभिमानी  जैसों  का जो मिथ्या मंडन  करते,
क्या नहीं लगता तुमको तुम निज आमोद मर्दन करते।

चौंक इधर को कभी उधर को देख रहा था द्रोणपुत्र,
ये  कौन बुलाता निर्जन में संबोधन करता द्रोणपुत्र?
मैं तो हिम में पड़ा हुआ हिमसागर घन में जलता हूँ,
ये बिना निमंत्रण स्वर कैसा ध्वनि कौन सा सुनता हूँ?

हिम शेष ही बचा हुआ है अंदर भी और बाहर भी,
ना विशेष है बचा हुआ कोई तथ्य नया उजागर भी।
इतने  लंबे  जीवन  में जो कुछ देखा वो कहता था,
ना कोई है सत्य प्रकाशन जग सीखा हीं कहता था।

बात बड़ी है नई नई जो कुछ देखा खुद को बोला,
ना कोई दृष्टिगोचित फिर राज यहाँ किसने खोला।
ये  मेरे  मन  की  सारी  बाते कैसे  कोई जान रहा,
मन मेरे क्या चलता है कोई कैसे हैं पहचान रहा।

अतिदुविधा में हिमशिखर पर द्रोणपुत्र था पड़ा हुआ,
उस स्वर से कुछ था चिंतित और कुछ था डरा हुआ।
गुरु  पुत्र ओ  गुरु पुत्र ओ चिर लिए तन अविनाशी,
निज प्रज्ञा पर संशय कैसा क्यूँ हुए निज अविश्वासी।

ये ढूंढ रहे किसको जग में शामिल तो हूँ तेरे रग में,
तेरा हीं तो चेतन मन हूँ क्यों ढूंढे पदचिन्हों में डग में।
नहीं  कोई बाहर से  तुझको ये आवाज लगाता है,
अब तक भूल हुई तुझसे कैसे अल्फाज बताता है ।

है फर्क यही इतना बस कि जो दीपक अंधियारे में,
तुझको इक्छित मिला नही दोष कभी उजियारे में।
सूरज तो  पूरब  में उगकर  रोज रोज हीं आता है,
जो भी घर के बाहर आए उजियारा हीं पाता है।

ये क्या बात हुई कोई गर छिपा रहे घर के अंदर ,
प्रज्ञा पे  पर्दा  चढ़ा  रहे दिन रात महीने निरंतर।
बड़े गर्व से कहते हो ये सूरज कहाँ निकलता है,
पर तेरे कहने से केवल सत्य कहाँ पिघलता है?

सूरज  भी  है तथ्य सही पर तेरा भी सत्य सही,
दोष तेरेअवलोकन में अर्द्धमात्र हीं कथ्य सही।
आँख  मूंदकर  बैठे हो सत्य तेरा अँधियारा  है ,
जरा खोलकर बाहर देखो आया नया सबेरा है।

इस सृष्टि में मिलता तुमको जैसा दृष्टिकोण तुम्हारा,
तुम हीं तेरा जीवन चुनते जैसा भी  संसार तुम्हारा।
बुरे सही अच्छे भी जग में पर चुनते कैसा तुम जग में,
तेरे कर्म पर हीं निर्भर है क्या तुमको मिलता है डग में।

बात सही तो लगती धीरे धीरे ग्रंथि सुलझ रही थी ,
गाँठ बड़ी अंतर में पर किंचित ना वो उलझ रही थी।
पर  उत्सुक  हो  रहा  द्रोणपुत्र  देख रहा आगे पीछे ,
कौन अनायास बुला रहा उस वाणी से हमको खींचे?

ना पेड़ पौधा खग पशु कोई ना दृष्टिगोचित कोई नर,
बार बार फिर बुला रहा कैसे मुझको अगोचित स्वर।
गंध  नहीं  है रूप  नहीं  है  रंग  नहीं  है देह आकार,
फिर भी कर्णों में आंदोलन किस भाँति कंपन प्रकार।

क्या एक अकेले रहते चित्त में भ्रम का कोई जाल पला,
जो भी सुनता हूँ निज चित का कोई माया जाल फला।
या  उम्र  का  हीं  ये  फल  है लुप्त  पड़े थे  जो विकार,
जाग  रहें  हैं  हौले  हौले  सुप्त  पड़े सब लुप्त विचार।

नहीं  मित्र  ओ  नहीं  मित्र नहीं ये तेरा  कोई छद्म भान,
अंतर में झांको तुम निज के अंतर में हीं कर लो ध्यान।
ये  स्वर  तेरे अंतर हीं  का कृष्ण कहो या तुम भगवान,
वो  जो  जगत  बनाते  है वो हीं  जगत  मिटाते  जान।

देखो  तो मैं हीं  दुर्योधन तुझको समझाने आया हूँ,
मित्र धर्म का कुछ ऋण बाकी उसे चुकाने आया हूँ।
मेरे हित हीं निज तन पे जो कष्ट उठाते आये हो,
निज मन पे जो भ्रम पला निज से हीं छुपाते आये हो।

जरा आंख तो कुछ हीं पल को बंद करो बतलाता हूँ,
कुछ हीं पल को शांत करो सत्य को कि तुझे दिखता हूँ।
चलो दिखाऊँ द्रोण पुत्र नयनों के पीछे का संसार,
कितने हीं संसार छुपे है तेरे इन नयनों के पार।

आओ अश्वत्थामा आओ ना मुझपे यूँ तुम पछताओ,
ना खुद पे भी दुख का कोई कारण सुख अब तुम पाओ।
कृष्ण तत्व मुझपे है तुमने इतना जो उपकार किया,
बात सही है द्रोण पुत्र ने भी सबका अपकार किया।

पर दुष्कर्म किये जो इसने अब तक मूल्य चुकाता है,
सत्य तथ्य ना ज्ञात मित्र को नाहक हीं पछताता है।
जैसे मेरे मन ने  चित पर भ्रम का  जाल बिछाया था,
सत्य कथ्य दिखला कर तूने माया जाल हटाया था।

है गिरिधर अब आगे आएं द्रोण पुत्र को भी समझाएँ,
जो कुछ अबतक समझ रहा भ्रम है कैसे भी बतलाएं।
नाहक हीं क्यों समझ रहा है दुर्योधन ना मिट पाया।
कृष्ण बताएं कुछ तो इसको दुर्योधन ना टिक पाया।

कान खड़े हुए विस्मित था ये कैसा दुर्योधन है,
धर्मराज जो कहते आए थे वैसा सुयोधन है।
कैसे दिल की तपन आग को दुर्योधन सब भूल गया,
अब ऐसा दृष्टिगोचित होता द्वेष क्रोध निर्मूल गया।

जिससे जलता लड़ता था उसको हीं आज बुलाता है,
ये  कैसा  दुर्योधन  है  जो खुद को आग लगाता है?
जिस  कृष्ण  के  कारण हीं तो ऐसा दुष्फल पाता हूँ,
जाने  खुद  को  कैसे  कैसे  कारण  दे पछताता हूँ।

अश्वत्थामा द्रोण पुत्र आओ तो आओ मेरे साथ,
मैं हीं तो हूँ मित्र तुम्हारा और कृष्ण भी मेरे साथ।
आँख बंद करो इक क्षण को देखों तो कैसा संसार,
क्या  जग का परम तत्व क्या है इस जग का सार।

सुन बात मित्र की मन मे अतिशय थे संशय आये,
पर  सोचा द्रोण पुत्र ने और कोई ना रहा उपाय।
चलो दुर्योधन के हित मैंने इतना पापाचार किया,
जो खुद भी ना सोचा मैंने कैसा था व्यापार किया।

बात मानकर इसकी क्षण को देखे अब होता है क्या,
आँख  मूंदकर  बैठा था वो देखें अब होता है क्या?
कुछ हीं क्षण में नयनों के आगे दो ज्योति निकट हूई,
तन से टूट गया था रिश्ता मन की द्योति  प्रकट हुई।

इस  धरती  के  पार  चला था देह छोड़ चंदा तारे,
अति गहन असीमित गहराई जैसे लगते अंधियारे।
सांस नहीं ले पाता था क्या जिंदा था या सपना था,
ज्योति रूप थे कृष्ण साथ साथ मित्र भी अपना था।

मुक्त हो गया अश्वत्थामा मुक्त हो गई उसकी देह ,
कृष्ण संग भी साथ चले थे और दुर्योधन साथ विदेह।
द्रोण पुत्र को हुआ ज्ञात कि धर्म पाप सब रहते हैं ,
ये खुद पे निर्भर करता क्या ज्ञान प्राप्त वो करते हैं ?

फुल भी होते हैं धरती है और शूल भी होते हैं ,
चित्त पे फुल खिले वैसे जैसे धरती पर बोते हैं ।
जिसकी जैसी रही अपेक्षा वैसा फल टिक पाता है
दुर्योधन ना टिक पाता ना दुर्योधन मिट पाता है ।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
179 · Jan 2018
New Year Resolution
Let us do New
Something indeed,
You celebrate my Diwali
And I your Id.

Ajay Amitabh Suman
All Rights Reserved
178 · Jan 2018
The Choice
Life is Like
A movie, a drama ,
But Choice is yours.
Doing a Ravan
Or Playing a Rama.

Ajay Amitabh Suman
All Rights Reserved
178 · Mar 2018
BLAME
Neither I blame you,Nor you to contend,
Signs not good and , I Telling just end.
AJAY AMITABH SUMAN
175 · Mar 2018
LIFE IS NOT
life is not, what right you have  taught,
Life is, in fact what wrong you have fought.
AJAY AMITABH SUMAN
रे मेरे अनुरागी चित्त मन,
सुन तो ले ठहरो तो ईक क्षण।
क्या है तेरी काम पिपासा,
थोड़ा सा कर ले तू मंथन।

कर मंथन चंचल हर क्षण में,
अहम भाव क्यों है कण कण में,
क्यों पीड़ा मन निज चित वन में,
तुष्ट नहीं फिर भी जीवन में।

सुन पीड़ा का कारण है भय,
इसीलिए करते नित संचय ,
निज पूजन परपीड़न अतिशय,
फिर भी क्या होते निःसंशय?

तो फिर मन तू स्वप्न सजा के,
भांति भांति के कर्म रचा के।
नाम प्राप्त हेतु करते जो,
निज बंधन वर निज छलते हो।

ये जो कति पय बनते  बंधन ,
निज बंधन बंध करते क्रंदन।
अहम भाव आज्ञान है मानो,
बंधन का परिणाम है जानो।

मृग तृष्णा सी नाम पिपासा,
वृथा प्यास की रखते आशा।
जग से ना अनुराग रचाओ ,
अहम त्यज्य वैराग सजाओ।

अभिमान जगे ना मंडित करना,
अज्ञान फले तो दंडित करना।
मृग तृष्णा की मात्र दवा है,
मन से मन को खंडित करना।

जो गुजर गया सो गुजर गया,
ना आने वाले कल का चिंतन।
रे मेरे अनुरागी चित्त मन,
सुन तो ले ठहरो तो ईक क्षण।
ये कविता आत्मा और मन से बीच संवाद पर आधारित है। इस कविता में आत्मा मन को मन के स्वरुप से अवगत कराते हुए मन के पार जाने का मार्ग सुझाती है ।
किस राह के हो अनुरागी ,
देहासक्त हो या कि त्यागी?
जीवन का क्या हेतु परंतु  ,
चित्त में इसका  भान रहे ,
किंचित कोई परिणाम रहे,
किंचित कोई परिणाम रहे।

है प्रयास में अणुता तो क्या,
ना राह में ऋजुता तो क्या?
प्रभु की अभिलाषा में किंतु ,
ना हो लघुता ध्यान रहे ,
किंचित कोई परिणाम रहे,
किंचित कोई परिणाम रहे।

कितनी प्रज्ञा धूमिल हुई है ?
अंतस्यंज्ञा घूर्मिल हुई है ?
अंतर पथ अवरोध पड़ा ,
कैसा  किंतु  अनुमान रहे ,
किंचित कोई परिणाम रहे,
किंचित कोई परिणाम रहे।

बुद्धि शुद्धि या तय कर लो ,
वाक्शुद्धि चित्त लय कर लो ,
दिशा भ्रांत हो बैठो ना मन,  
संशुद्धि संधान रहे ,
किंचित कोई परिणाम रहे,
किंचित कोई परिणाम रहे।

कर्मयोग कहीं राह सही है ,
भक्ति की कहीं चाह बड़ी है,
जिसकी जैसी रही प्रकृत्ति ,
वैसा हीं निदान रहे।
किंचित कोई परिणाम रहे,
किंचित कोई परिणाम रहे।

अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
ईश्वर किसी एक धर्म , किसी एक पंथ या किसी एक मार्ग का गुलाम नहीं। अपने धर्म को सर्वश्रेष्ठ मानने से ज्यादा अप्रासंगिक मान्यता कोई और हो हीं नहीं सकती । परम तत्व को किसी एक धर्म या पंथ में बाँधने की कोशिश करने वालों को ये ज्ञात होना चाहिए कि ईश्वर इतना छोटा नहीं है कि उसे किसी स्थान , मार्ग , पंथ , प्रतिमा या किताब में बांधा जा सके। वास्तविकता तो ये है कि ईश्वर इतना विराट है कि कोई किसी भी राह चले सारे के सारे मार्ग उसी की दिशा में अग्रसित होते हैं।
Next page