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किससे लड़ने चला द्रोण पुत्र थोड़ा तो था अंदेशा,
तन पे भस्म विभूति जिनके मृत्युमूर्त रूप संदेशा।
कृपिपुत्र को मालूम तो था मृत्युंजय गणपतिधारी,
वामदेव विरुपाक्ष भूत पति विष्णु वल्लभ त्रिपुरारी।
चिर वैरागी योगनिष्ठ हिमशैल कैलाश के निवासी,
हाथों में रुद्राक्ष की माला महाकाल है अविनाशी।
डमरूधारी के डम डम पर सृष्टि का व्यवहार फले,
और कृपा हो इनकी जीवन नैया भव के पार चले।
सृष्टि रचयिता सकल जीव प्राणी जंतु के सर्वेश्वर,
प्रभु राम की बाधा हरकर कहलाये थे रामेश्वर।
तन पे मृग का चर्म चढाते भूतों के हैं नाथ कहाते,
चंद्र सुशोभित मस्तक पर जो पर्वत ध्यान लगाते।
जिनकी सोच के हीं कारण गोचित ये संसार फला,
त्रिनेत्र जग जाए जब भी तांडव का व्यापार फला।
अमृत मंथन में कंठों को विष का पान कराए थे,
तभी देवों के देव महादेव नीलकंठ कहलाए थे।
वो पर्वत पर रहने वाले हैं सिद्धेश्वर सुखकर्ता,
किंतु दुष्टों के मान हरण करते रहते जीवन हर्ता।
त्रिभुवनपति त्रिनेत्री त्रिशूल सुशोभित जिनके हाथ,
काल मुठ्ठी में धरते जो प्रातिपक्ष खड़े थे गौरीनाथ।
हो समक्ष सागर तब लड़कर रहना ना उपाय भला,
लहरों के संग जो बहता है होता ना निरुपाय भला।
महाकाल से यूँ भिड़ने का ना कोई भी अर्थ रहा,
प्राप्त हुआ था ये अनुभव शिवसे लड़ना व्यर्थ रहा।
अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
हिमालय पर्वत के बारे में सुनकर या पढ़कर उसके बारे में जानकरी प्राप्त करना एक बात है और हिमालय पर्वत के हिम आच्छादित तुंग शिखर पर चढ़कर साक्षात अनुभूति करना और बात । शिवजी की असीमित शक्ति के बारे में अश्वत्थामा ने सुन तो रखा था परंतु उनकी ताकत का प्रत्यक्ष अनुभव तब हुआ जब उसने जो भी अस्त्र शिव जी पर चलाये सारे के सारे उनमें ही विलुप्त हो गए। ये बात उसकी समझ मे आ हीं गई थी कि महादेव से पार पाना असम्भव था। अब मुद्दा ये था कि इस बात की प्रतीति होने के बाद क्या हो? आईये देखते हैं दीर्घ कविता “दुर्योधन कब मिट पाया” का पच्चीसवाँ भाग।
क्या तीव्र था अस्त्र आमंत्रण शस्त्र दीप्ति थी क्या उत्साह,
जैसे बरस रहा गिरिधर पर तीव्र नीर लिए जलद प्रवाह।
राजपुत्र दुर्योधन सच में इस योद्धा को जाना हमने,
क्या इसने दु:साध्य रचे थे उस दिन हीं पहचाना हमने।
लक्ष्य असंभव दिखता किन्तु निज वचन के फलितार्थ,
स्वप्नमय था लड़ना शिव से द्रोण पुत्र ने किया यथार्थ।
जाने कैसे शस्त्र प्रकटित कर क्षण में धार लगाता था,
शिक्षण उसको प्राप्त हुआ था कैसा ये दिखलाता था।
पर जो वाण चलाता सारे शिव में हीं खो जाते थे,
जितने भी आयुध जगाए क्षण में सब सो जाते थे।
निडर रहो पर निज प्रज्ञा का थोड़ा सा तो ज्ञान रहे ,
शक्ति सही है साधन का पर थोड़ा तो संज्ञान रहे।
शिव पुरुष हैं महा काल क्या इसमें भी संदेह भला ,
जिनके गर्दन विषधर माला और माथे पे चाँद फला।
भीष्म पितामह माता जिनके सर से झरझर बहती है,
उज्जवल पावन गंगा जिन मस्तक को धोती रहती है।
आशुतोष हो तुष्ट अगर तो पत्थर को पर्वत करते,
और अगर हो रुष्ट पहर जो वासी गणपर्वत रहते।
खेल खेल में बलशाली जो भी आते हो जाते धूल,
महाकाल के हो समक्ष जो मिट जाते होते निर्मूल।
क्या सागर क्या नदिया चंदा सूरज जो हरते अंधियारे,
कृपा आकांक्षी महादेव के जगमग जग करते जो तारे।
ऐसे शिव से लड़ने भिड़ने के शायद वो काबिल ना था,
जैसा भी था द्रोण पुत्र पर कायर में वो शामिल ना था।
अजय अमिताभ सुमन : सर्वाधिकार सुरक्षित
मानव को ये तो ज्ञात है हीं कि शारीरिक रूप से सिंह से लड़ना , पहाड़ को अपने छोटे छोटे कदमों से पार करने की कोशिश करना आदि उसके लिए लगभग असंभव हीं है। फिर भी यदि परिस्थियाँ उसको ऐसी हीं मुश्किलों का सामना करने के लिए मजबूर कर दे तो क्या हो? कम से कम मुसीबतों की गंभीरता के बारे में जानकारी होनी तो चाहिए हीं। कम से कम इतना तो पता होना हीं चाहिए कि आखिर बाधा है किस तरह की? कृतवर्मा दुर्योधन को आगे बताते हैं कि नियति ने अश्वत्थामा और उन दोनों योद्धाओ को महादेव शिव जी के समक्ष ला कर खड़ा कर दिया था। पर क्या उन तीनों को इस बात का स्पष्ट अंदेशा था कि नियति ने उनके सामने किस तरह की परीक्षा पूर्व निश्चित कर रखी थी? क्या अश्वत्थामा और उन दोनों योद्धाओं को अपने मार्ग में आन पड़ी बाधा की भीषणता के बारे में वास्तविक जानकारी थी? आइए देखते हैं इस दीर्घ कविता “दुर्योधन कब मिट पाया” के चौबीसवें भाग में।
कुछ हीं क्षण में ज्ञात हुआ सारे संशय छँट जाते थे,
जो भी धुँआ पड़ा हुआ सब नयनों से हट जाते थे।
नाहक हीं दुर्योधन मैंने तुमपे ना विश्वास किया।
द्रोणपुत्र ने मित्रधर्म का सार्थक एक प्रयास किया।
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हाँ प्रयास वो किंचित ऐसा ना सपने में कर पाते,
जो उस नर में दृष्टिगोचित साहस संचय कर पाते।
बुद्धि प्रज्ञा कुंद पड़ी थी हम दुविधा में थे मजबूर,
ऐसा दृश्य दिखा नयनों के आगे दोनों हुए विमूढ़।
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गुरु द्रोण का पुत्र प्रदर्शित अद्भुत तांडव करता था,
धनुर्विद्या में दक्ष पार्थ के दृश पांडव हीं दिखता था।
हम जो सोचनहीं सकते थे उसने एक प्रयास किया ,
महाकाल को हर लेने का खुद पे था विश्वास किया।
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कैसे कैसे अस्त्र पड़े थे उस उद्भट की बाँहों में ,
तरकश में जो शस्त्र पड़े सब परिलक्षित निगाहों में।
उग्र धनुष पर वाण चढ़ाकर और उठा हाथों तलवार,
मृगशावक एक बढ़ा चलाथा एक सिंह पे करने वार।
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क्या देखते ताल थोक कर लड़ने का साहस करता,
महाकाल से अश्वत्थामा अदभुत दु:साहस करता?
हे दुर्योधन विकट विघ्न को ऐसे हीं ना पार किया ,
था तो उसके कुछ तोअन्दर महा देव पर वार किया ।
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पितृप्रशिक्षण का प्रतिफलआज सभीदिखाया उसने,
अश्वत्थामा महाकाल पर कंटक वाण चलाया उसने।
शत्रु वंश का सर्व संहर्ता अरिदल जिससे अनजाना,
हम तीनों में द्रोण पुत्र तब सर्व श्रेष्ठ हैं ये माना।
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अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
मृग मरीचिका की तरह होता है झूठ। माया के आवरण में छिपा हुआ होता है सत्य। जल तो होता नहीं, मात्र जल की प्रतीति हीं होती है। आप जल के जितने करीब जाने की कोशिश करते हैं, जल की प्रतीति उतनी हीं दूर चली जाती है। सत्य की जानकारी सत्य के पास जाने से कतई नहीं, परंतु दृष्टिकोण के बदलने से होता है। मृग मरीचिका जैसी कोई चीज होती तो नहीं फिर भी होती तो है। माया जैसी कोई चीज होती तो नहीं, पर होती तो है। और सारा का सारा ये मन का खेल है। अगर मृग मरीचिका है तो उसका निदान भी है। महत्वपूर्ण बात ये है कि कौन सी घटना एक व्यक्ति के आगे पड़े हुए भ्रम के जाल को हटा पाती है?
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मेरे भुज बल की शक्ति क्या दुर्योधन ने ना देखा?
कृपाचार्य की शक्ति का कैसे कर सकते अनदेखा?
दुःख भी होता था हमको और किंचित इर्ष्या होती थी,
मानवोचित विष अग्नि उर में जलती थी बुझती थी।
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युद्ध लड़ा था जो दुर्योधन के हित में था प्रतिफल क्या?
बीज चने के भुने हुए थे क्षेत्र परिश्रम ऋतु फल क्या?
शायद मुझसे भूल हुई जो ऐसा कटु फल पाता था,
या विवेक में कमी रही थी कंटक दुख पल पाता था।
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या समय का रचा हुआ लगता था पूर्व निर्धारित खेल,
या मेरे प्रारब्ध कर्म का दुचित वक्त प्रवाहित मेल।
या स्वीकार करूँ दुर्योधन का मतिभ्रम था ये कहकर,
या दुर्भाग्य हुआ प्रस्फुटण आज देख स्वर्णिम अवसर।
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मन में शंका के बादल जो उमड़ घुमड़ कर आते थे,
शेष बची थी जो कुछ प्रज्ञा धुंध घने कर जाते थे ।
क्यों कर कान्हा ने मुझको दुर्योधन के साथ किया?
या नाहक का हीं था भ्रम ना केशव ने साथ दिया?
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या गिरिधर की कोई लीला थी शायद उपाय भला,
या अल्प बुद्धि अभिमानी पे माया का जाल फला।
अविवेक नयनों पे इतना सत्य दृष्टि ना फलता था,
या मैंने स्वकर्म रचे जो उसका हीं फल पलता था?
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या दुर्बुद्धि फलित हुई थी ना इतना सम्मान किया,
मृतशैया पर मित्र पड़ा था ना इतना भी ध्यान दिया।
क्या सोचकर मृतगामी दुर्योधन के विरुद्ध पड़ा ,
निज मन चितवन घने द्वंद्व में मैं मेरे प्रतिरुद्ध अड़ा।
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अजय अमिताभ सुमन : सर्वाधिकार सुरक्षित
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मन की प्रकृति बड़ी विचित्र है। किसी भी छोटी सी समस्या का समाधान न मिलने पर उसको बहुत बढ़ा चढ़ा कर देखने लगता है। यदि निदान नहीं मिलता है तो एक बिगड़ैल घोड़े की तरह मन ऐसी ऐसी दिशाओं में भटकने लगता है जिसका समस्या से कोई लेना देना नहीं होता। कृतवर्मा को भी सच्चाई नहीं दिख रही थी। वो कभी दुर्योधन को , कभी कृष्ण को दोष देते तो कभी प्रारब्ध कर्म और नियति का खेल समझकर अपने प्रश्नों के हल निकालने की कोशिश करते । जब समाधान न मिला तो दुर्योधन के प्रति सहज सहानुभूति का भाव जग गया और अंततोगत्वा स्वयं द्वारा दुर्योधन के प्रति उठाये गए संशयात्मक प्रश्नों पर पछताने भी लगे। प्रस्तुत है दीर्ध कविता “दुर्योधन कब मिट पाया का बाइसवाँ भाग।

— The End —