मुझे तंहाई अच्छी लगती है,
ख़ुद से बातें, सची लगतीं हैं,
बस हाथ में चाय या काैफी की प्याली हो,
और पुराने से कैफे में,काैफी ब्रू की महक हो
और ऐसे में कुछ यादें बस यूँही याद आ जाती है।
टेबल अगर थोड़ा गहरा हो,
थोड़ा घिसा, थोड़ा मैला हो,
कुर्सी थोड़ी कड़ कड़ करती हुई
अपना अस्तित्व जताती हुई।
कॉफ़ी का मग या चाई की प्याली,
चीनी मीटि की बनी हो,
गाड़े नीले या हरे रंग की,
लकीरें समय की समेटे हुए,
समुद्र की तरह सब जानने वाली, समाने वाली।
दिन हो तो, भीनी भीनी सी,
इठलाती, बल खाती किरणें,
श्याम हो तो, पुराने लैम्प की,
हल्की, मघम रोशनी,
ऐक अरसे की याद दिलाते हुऐ।
सोच कर थोड़ी मुस्कराहटें आती हैं,
और आँखें नम सी भी हो जाती हैं,
जब कुछ लम्हे परचाईयों की तरह
एक जुट हो जाते हैं।
कितनी बाज़ुऐं इस टेबल पर टिकी होंगी,
सामनेवाले की कही सुनने के लिए आँखे झुखी होंगी,
कितने अरमानो की कश्ती,
समुद्री गहराइयों में निडर गोते खा रही होंगी।
वो कश्मकश से दूर,
पर, किन्तु, परन्तु से परे,
मीठी, मासूम और कुछ करने की चाहत लिए,
वोह पल याद आतें हैं।
और फिर सोचतीं हूँ,
वो यादें रंगीन थी,
ज़िंदगी की तरह, बेहतरीन थी,
और आज का क्या विचार है,
चलिए आज कुछ और यादें बनाते हैं
कल कॉफ़ी पर उनको याद कर जाते हैं।
A poem depicting the passage of time, celebrating the past but also mindful of the magic of the present.