बनती है, टूटी है।
पर्वतों से, नदियों में बहकर,
समतल जमीन पर एकत्रित हो जाती है।
फिर किसी बढ़ में बह जाती है।
किसी को जीवन देती है,
किसी के जीवन को पोषित करती है।
टूटी है, बनती है, गुणों का समावेश करती चली जाती है।
कभी समीर संग उड़ जाती है,
तो कभी रत्नाकर से मिल जाती है।
अपने अस्तित्व को ख़त्म नहीं करती है।
फिर कहीं एकत्रित होगी,
नए जीवन को रूप देगी,
पर अपने मूल आचरण को कभी न भूलेगी।
This is my first Hindi poem.