Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
 
क्या  यत्न  करता उस क्षण जब युक्ति समझ नहीं  आती थी,
त्रिकाग्निकाल से निज प्रज्ञा मुक्ति का  मार्ग  दिखाती  थी।  
अकिलेश्वर को हरना  दुश्कर कार्य जटिल ना साध्य कहीं,
जटिल राह थी कठिन लक्ष्य था  मार्ग अति  दू:साध्य कहीं।

अतिशय साहस संबल  संचय  करके भीषण लक्ष्य किया,
प्रण धरकर ये निश्चय लेकर निजमस्तक हव भक्ष्य किया।
अति  वेदना  थी तन  में  निज  मस्तक  अग्नि  धरने  में ,
पर निज प्रण अपूर्णित करके  भी  क्या  रखा लड़ने  में?

जो उद्भट निज प्रण का किंचित ना जीवन में मान रखे,
उस योद्धा का जीवन रण में  कोई  क्या  सम्मान रखे?
या अहन्त्य  को हरना था या शिव के  हाथों मरना था,
या शिशार्पण यज्ञअग्नि को मृत्यु आलिंगन करना था?

हठ मेरा  वो सही गलत क्या इसका मुझको ज्ञान नहीं,
कपर्दिन  को  जिद  मेरी थी  कैसी पर था  भान कहीं।
हवन कुंड में जलने की पीड़ा सह कर वर प्राप्त किया,
मंजिल से  बाधा हट जाने का सुअवसर प्राप्त किया।

त्रिपुरान्तक के हट जाने से लक्ष्य  प्रबल आसान हुआ,
भीषण बाधा परिलक्षित थी निश्चय हीं अवसान हुआ।
गणादिप का संबल पा  था यही समय कुछ करने का,
या पांडवजन को मृत्यु देने  या उनसे  लड़ मरने  का।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
जिद चाहे सही हो या गलत  यदि उसमें अश्वत्थामा जैसा समर्पण हो तो उसे पूर्ण होने से कोई रोक नहीं सकता, यहाँ तक कि महादेव भी नहीं। जब पांडव पक्ष के बचे हुए योद्धाओं की रक्षा कर रहे जटाधर को अश्वत्थामा ने यज्ञाग्नि में अपना सिर काटकर हवनकुंड में अर्पित कर दिया  तब उनको भी अश्वत्थामा के हठ के आगे झुकना पड़ा और पांडव पक्ष के बाकी बचे हुए योद्धाओं को अश्वत्थामा के हाथों मृत्यु प्राप्त करने के लिए छोड़ देना पड़ा ।
क्या  यत्न  करता उस क्षण
जब युक्ति समझ नहीं  आती थी,
त्रिकाग्निकाल से निज प्रज्ञा
मुक्ति का  मार्ग  दिखाती  थी।   
========
अकिलेश्वर को हरना  दुश्कर
कार्य जटिल ना साध्य कहीं,
जटिल राह थी कठिन लक्ष्य था 
मार्ग अति  दू:साध्य कहीं।
=========
अतिशय साहस संबल  संचय 
करके भीषण लक्ष्य किया,
प्रण धरकर ये निश्चय लेकर
निजमस्तक हव भक्ष्य किया।
========
अति  वेदना  थी तन  में 
निज  मस्तक  अग्नि  धरने  में ,
पर निज प्रण अपूर्णित करके 
भी  क्या  रखा लड़ने  में?
========
जो उद्भट निज प्रण का किंचित
ना जीवन में मान रखे,
उस योद्धा का जीवन रण में 
कोई  क्या  सम्मान रखे?
========
या अहन्त्य  को हरना था या
शिव के  हाथों मरना था,
या शिशार्पण यज्ञअग्नि को
मृत्यु आलिंगन करना था?
=========
हठ मेरा  वो सही गलत क्या
इसका मुझको ज्ञान नहीं,
कपर्दिन  को  जिद  मेरी थी 
कैसी पर था  भान कहीं।
=========
हवन कुंड में जलने की पीड़ा
सह कर वर प्राप्त किया,
मंजिल से  बाधा हट जाने
का सुअवसर प्राप्त किया।
=========
त्रिपुरान्तक के हट जाने से
लक्ष्य  प्रबल आसान हुआ,
भीषण बाधा परिलक्षित थी
निश्चय हीं अवसान हुआ।
=========
गणादिप का संबल पा  था
यही समय कुछ करने का,
या पांडवजन को मृत्यु देने 
या उनसे  लड़ मरने  का।
=========
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
जिद चाहे सही हो या गलत  यदि उसमें अश्वत्थामा जैसा समर्पण हो तो उसे पूर्ण होने से कोई रोक नहीं सकता, यहाँ तक कि महादेव भी नहीं। जब पांडव पक्ष के बचे हुए योद्धाओं की रक्षा कर रहे जटाधर को अश्वत्थामा ने यज्ञाग्नि में अपना सिर काटकर हवनकुंड में अर्पित कर दिया  तब उनको भी अश्वत्थामा के हठ की आगे झुकना पड़ा और पांडव पक्ष के बाकी बचे हुए योद्धाओं को अश्वत्थामा के हाथों मृत्यु प्राप्त करने के लिए छोड़ दिया ।
कुछ क्षण पहले शंकित था मन ना दृष्टित थी कोई आशा ,    
द्रोणपुत्र  के  पुरुषार्थ  से हुआ तिरोहित खौफ निराशा ।
या मर जाये या मारे  चित्त में   कर के ये   दृढ निश्चय,
शत्रु शिविर को हुए अग्रसर  हार फले कि या हो जय।

याद किये फिर  अरिसिंधु में  मर के जो अशेष रहा,  
वो नर  हीं   विशेष रहा  हाँ  वो नर हीं  विशेष रहा ।
कि शत्रुसलिला  में जिस नर के  हाथों में तलवार रहे ,
या  क्षय  की  हो  दृढ प्रतीति परिलक्षित  संहार बहे।

वो मानव जो झुके नहीं कतिपय निश्चित एक हार में,
डग योद्धा का डिगे नहीं अरि के   भीषण   प्रहार  में।
ज्ञात मनुज के चित्त में किंचित सर्वगर्भा का ओज बहे ,
अभिज्ञान रहे निज कृत्यों का कर्तव्यों की हीं खोज रहे।

अकम्पत्व  का  हीं तन  पे  मन पे धारण पोशाक हो ,
रण डाकिनी के रक्त मज्जा  खेल  का मश्शाक  हो।
क्षण का  हीं  तो  मन   है ये क्षण  को हीं  टिका हुआ,
और तन का  क्या  मिट्टी  का  मिटटी में  मिटा हुआ।

पर हार का वरण भी करके  जो  रहा  अवशेष है,
जिस वीर  के  वीरत्व   का जन  में   स्मृति शेष है।  
सुवाड़वाग्नि  सिंधु  में  नर   मर  के   भी अशेष है,
जीवन  वही  विशेष   है   मानव   वही  विशेष  है।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
इस क्षणभंगुर संसार में जो नर निज पराक्रम की गाथा रच जन मानस के पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है उसी का जीवन सफल होता है। अश्वत्थामा का अद्भुत  पराक्रम देखकर कृतवर्मा और कृपाचार्य भी मरने मारने का निश्चय लेकर आगे बढ़ चले।
कुछ क्षण पहले शंकित था मन
ना दृष्टित थी कोई आशा ,    
द्रोणपुत्र के पुरुषार्थ से
हुआ तिरोहित खौफ निराशा।
=======
या मर जाये या मारे  
चित्त में कर के ये दृढ निश्चय,
शत्रु शिविर को हुए अग्रसर  
हार फले कि या हो जय।
=======
याद किये फिर अरिसिंधु में  
मर के जो अशेष रहा,  
वो नर हीं विशेष रहा हाँ  
वो नर हीं विशेष रहा ।
=======
कि शत्रुसलिला में जिस नर के  
हाथों में तलवार रहे ,
या क्षय की हो दृढ प्रतीति
परिलक्षित  संहार बहे।
=======
वो मानव जो झुके नहीं
कतिपय निश्चित एक हार में,
डग योद्धा का डिगे नहीं
अरि के भीषण प्रहार में।
=======
ज्ञात मनुज के चित्त में किंचित
सर्वगर्भा काओज बहे ,
अभिज्ञान रहे निज कृत्यों का
कर्तव्यों की हीं खोज रहे।
=======
अकम्पत्व का हीं तन पे मन पे
धारण पोशाक हो ,
रण डाकिनी के रक्त मज्जा  
खेल  का मश्शाक  हो।
========
क्षण का हीं तो मन है ये
क्षण को हीं टिका हुआ,
और तन का क्या मिट्टी  का  
मिटटी में मिटा हुआ।
========
पर हार का वरण भी करके  
जो रहा अवशेष है,
जिस वीर के वीरत्व का
जन में  स्मृति शेष है।
========
सुवाड़वाग्नि  सिंधु  में  नर  
मर के भी अशेष है,
जीवन वही विशेष है  
मानव वही विशेष है।
========
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
इस क्षणभंगुर संसार में जो नर निज पराक्रम की गाथा रच जन मानस के पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है उसी का जीवन सफल होता है। अश्वत्थामा का अद्भुत  पराक्रम देखकर कृतवर्मा और कृपाचार्य भी मरने मारने का निश्चय लेकर आगे बढ़ चले।
कृपाचार्य कृतवर्मा सहचर
मुझको फिर क्या होता भय, 
जिसे प्राप्त हो वरदहस्त शिव का
उसकी हीं होती जय।
========
त्रास नहीं था मन मे  किंचित
निज तन मन व प्राण का,
पर चिंता एक सता रही
पुरुषार्थ त्वरित अभियान का।
========
धर्माधर्म  की  बात नहीं
न्यूनांश ना मुझको दिखता था,
रिपु मुंड के अतिरिक्त ना
ध्येय अक्षि में टिकता था।
========
ना सिंह भांति निश्चित हीं 
किसी एक श्रृगाल की भाँति,
घात लगा हम किये प्रतीक्षा
रात्रिपहर व्याल की भाँति।  
========
कटु  सत्य है दिन में लड़कर
ना इनको हर सकता था,
भला एक हीं  अश्वत्थामा 
युद्ध  कहाँ लड़ सकता  था?
========
जब तन्द्रा में सारे थे छिप कर
निज अस्त्र उठाया मैंने ,
निहत्थों पर चुनचुन कर हीं
घातक शस्त्र चलाया मैंने।
========
दुश्कर,दुर्लभ,दूभर,मुश्किल
कर्म रचा जो बतलाता हूँ , 
ना चित्त में अफ़सोस बचा
ना रहा ताप ना पछताता हूँ। 
========
तन मन पे भारी रहा बोझ अब
हल्का  हल्का लगता है,
आप्त हुआ है व्रण चित्त का ना
आज ह्रदय में फलता है।  
========
जो सैनिक  योद्धा  बचे हुए थे
उनके  प्राण प्रहारक  हूँ , 
शिखंडी  का  शीश  विक्षेपक  
धृष्टद्युम्न  संहारक  हूँ।
======== 
जो पितृवध से दबा हुआ
जीता था कल तक रुष्ट हुआ,
गाजर मुली सादृश्य  काट आज
अश्वत्थामा तुष्ट  हुआ। 
========
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
अश्रेयकर लक्ष्य संधान हेतु क्रियाशील हुए व्यक्ति को अगर सहयोगियों का साथ मिल जाता है तब उचित या अनुचित का द्वंद्व क्षीण हो जाता है। अश्वत्थामा दुर्योधन को आगे बताता है कि कृतवर्मा और कृपाचार्य का साथ मिल जाने के कारण उसका मनोबल बढ़ गया और वो पूरे जोश के साथ लक्ष्यसिद्धि हेतु अग्रसर हो चला।
जो तुम चिर प्रतीक्षित  सहचर  मैं ये ज्ञात कराता हूँ,
हर्ष  तुम्हे  होगा  निश्चय  ही प्रियकर  बात बताता हूँ।
तुमसे  पहले तेरे शत्रु का शीश विच्छेदन कर धड़ से,
कटे मुंड अर्पित करता हूँ अधम शत्रु का निज कर से।

सुन  मित्र की बातें दुर्योधन के मुख पे  मुस्कान फली,
मनोवांछित सुनने को हीं किंचित उसमें थी जान बची।
कैसी  भी  थी  काया  उसकी कैसी भी वो जीर्ण बची ,
पर मन  के अंतरतम में तो थोड़ी   आशा क्षीण बची।

क्या कर सकता अश्वत्थामा कुरु कुंवर को ज्ञात रहा,
कैसे  कैसे  अस्त्र  शस्त्र में  द्रोण  पुत्र  निष्णात रहा।
स्मृति में  याद आ रहा जब गुरु द्रोण का शीश  कटा ,
धृष्टदयुम्न  के  हाथों  ने था  कैसा  वो  दुष्कर्म  रचा।

जब शल्य के उर में  छाई थी शंका भय और निराशा,
और कर्ण भी भाग चला था त्याग वीरता और आशा।
जब सूर्यपुत्र  कृतवर्मा के   समर क्षेत्र ना टिकते पाँव,
सेना सारी भाग  चली   ना दुर्योधन को दिखता ठांव।

द्रोणाचार्य के मर जाने पर  कैसा वो नैराश्य मचा था,
कृपाचार्य भी भाग चले थे दुर्योधन भी भाग चला था।
जब कौरवों  में मचा हुआ था  घोर निराशा हाहाकार,
अश्वत्थामा पर  लगा हुआ  था शत्रु का करने संहार।

अति शक्ति संचय कर उसने तब निज हाथ बढ़ाया,
पाँच  कटे   हुए नर  मस्तक  थे निज   हाथ  दबाया।
पीपल   के   पत्तों  जैसे  थे  सर सब फुट पड़े थे  वो,
वो  पांडव  के सर ना हो सकते ऐसे टूट पड़े थे जो ।

दुर्योधन के मन में क्षण को जो भी थोड़ी आस जगी,
मरने मरने को हतभागी पर किंचित थी श्वांस फली।
धुल धूसरित होने को थे स्वप्न दृश ज्यो दृश्य जगे  ,
शंका के अंधियारे बादल आ आके थे फले फुले।

माना भीम नहीं था ऐसा कि मेरे मन को वो  भाये ,
और नहीं खुद  पे  मैं उसके पड़ने   देता था साए।
माना उसकी मात्र उपस्थिति मन को मेरे जलाती थी,
देख  देख   ना  सो  पाता   था   दर्पोंन्नत  जो  छाती थी।

पर उसके तन के बल को भी मै जो थोड़ा  सा  जानू ,
इतनी बार लड़ा हूँ उससे कुछ  तो  मैं भी  पहचानू  ।
क्या भीम का सर भी ऐसे हो सकता  इतना कोमल?
और पार्थ  की  शक्ति कैसे हो सकती  ऐसे ओझल?

अश्वत्थामा मित्र तुम्हारी शक्ति अजय का  ज्ञान मुझे,
जो कुछ तुम कर सकते हो उसका है अभिमान मुझे।
 पर  युद्धिष्ठिर और  नकुल  है  वासुदेव  के  रक्षण में,
किस भांति तुम जीत गए जीवन के उनके भक्षण में?

तिमिर  घोर  अंधेरा  छाया  निश्चित कोई  भूल हुई है,
निश्चित हीं  किस्मत  में मेरे धँसी हुई सी  शूल हुई है।
फिर  दीर्घ  स्वांस लेकर दुर्योधन  हौले से ये  बोला,
है  चूक  नहीं तेरी  किंचित पर ये कैसा कर डाला?

इतने  कोमल नर मुंड  ना पांडव के  हो सकते हैं?
पांडव  पुत्रों   के  कपाल   ऐसे कच्चे हो  सकते हैं।
ये  कपाल  ना  पांडव  के  जो आ जाए यूँ तेरे हाथ,
आसां ना  संधान  लक्ष्य का ना आये वो  तेरे  हाथ।



थे दुर्योधन  के  मन के शंका  बादल न  यूँ निराधार,
अनुभव जनित  तथ्य घटित ना कोई वहम विचार।
दुर्योधन  के  इस वाक्य से सत्य हुआ ये उद्घाटित,
पांडव पुत्रों का हनन हुआ यही तथ्य था सत्यापित।

ये जान कर अश्वत्थामा  उछल पड़ा था भूपर  ऐसे ,
जैसे आन पड़ी बिजली उसके हीं मस्तक पर जैसे।
क्षण को पैरों के नीचे की धरती हिलती जान पड़ी ,
जो समक्ष था आँखों के उड़ती उड़ती सी भान पड़ी।

शायद पांडव के जीवन में कुछ क्षण और बचे होंगे,
या  उसके  हीं  कर्मों  ने   दुर्भाग्य   दोष    रचे  होंगे।
या उसकी प्रज्ञा  को  घेरे  प्रतिशोध की ज्वाला थी,
लक्ष्य भेद ना कर पाया किस्मत में विष प्याला थी।

ऐसी भूल हुई उससे थी  क्षण को ना विश्वास हुआ,
लक्ष्य चूक सी लगती थी गलती का एहसास हुआ।
पल को तो हताश हुआ था पर संभला था एक पल में ,
जिसकी आस नहीं थी उसको प्राप्त हुआ था फल में।

जिस  कृत्य  से  धर्म  राज  ने  गुरु  द्रोण  संहार किया ,
सही हुआ सब जिन्दे हैं ना सरल मृत्यु स्वीकार हुआ ।
दुर्योधन हे मित्र कहें क्या पांडव को था ज्ञात नहीं,
मैं अबतक हीं तो जिंदा था इससे पांडव अज्ञात नहीं।

बड़े धर्म की भाषा कहते नाहक गौरव गाथा कहते,
किस प्रज्ञा से अर्द्ध सत्य को जिह्वा पे धारण करते।
जो गुरु खुद से ज्यादा भरोसा धर्म राज पे करते थे,
पिता तुल्य गुरु द्रोण से कैसे धर्मराज छल रचते थे।

और धृष्टद्युम्न वो पापी कैसा योद्धा पे संहार किया,
पिता द्रोण निःशस्त्र हुए थे और सर पे प्रहार किया?
हे मित्र दुर्योधन इस बात की ना पीड़ा किंचित मुझको,
पिता युद्ध में योद्धा थे योद्धा की गति मिली उनको।

पर जिस छल से धर्म राज ने गुरु द्रोण संहार किया,
अब भी कहलाते धर्मराज पर दानव सा आचार किया।
मैंने क्या अधर्म किया और पांडव नें क्या धर्म किया,
जो भी किया था धर्मराज ने किंचित पशुवत धर्म किया।

भीष्म पितामह गुरु द्रोण के ऐसे वध करने के बाद,
सो सकते थे पांडव कैसे हो सकते थे क्यों आबाद।
कैसा धर्म विवेचन उनका उल्लेखित वो न्याय विधान,
जो  दुष्कर्म  रचे  जयद्रथ ने पिता कर रहे थे भुगतान।

गर दुष्कृत्य रचाकर कोई खुद को कह पाता हो  वीर ,
न्याय  विवेचन में  निश्चित  हीं  बाधा  पड़ी  हुई  गंभीर।
अब जिस पीड़ा को हृदय लिए अश्वत्थामा चलता है ,
ये देख  तुष्टि हो जाएगी  वो पांडव में भी फलता है ।

पितृ घात के पितृ ऋण से कुछ तो पीड़ा कम होगी ,
धर्म राज से अश्रु नयन से हृदय अग्नि कुछ नम होगी।
अति पीड़ा होती थी उसको पर मन में हर्षाता था,
हार गया था पांडव से पर दुर्योधन मुस्काता  था।

हे अश्वत्थामा मेरे उर को भी कुछ ठंडक आती है ,
टूट  गया  है  तन  मन मेरा पर दर्पोंनत्त छाती है।
तुमने जो पुरुषार्थ किया निश्चित गर्वित होता हूँ,
पर जिस कारण तू होता न उस कारण होता हूँ।



तू हँसता तेरे कारण से मेरे निज पर कारण हैं ,
जैसे  हर नर भिन्न भिन्न जैसे अक्षर उच्चारण है।
कदा कदा हीं पूण्य भाव किंचित जो मन में आते थे,
सोच पितृ संग अन्याय हुए ना सिंचित हीं हो पाते थे।

जब  माता के नेत्र दृष्टि गोचित उर में ईर्षा होती,
तन में मन में तपन घोर अंगारों की वर्षा होती।
बचपन से मैंने पांडव को कभी नहीं भ्राता माना,
शकुनि मामा से अक्सर हीं सहता रहता था ताना।

जिसको  हठधर्मी कह कहकर आजीवन अपमान दिया,
उर में भर इर्ष्या की ज्वाला और मन में  अभिमान  दिया।
जो जीवन भर भीष्म ताप से दग्ध  आग को सहता था,
पाप पुण्य की बात भला  बालक में कैसे  फलता था?

तन   मन   में  लगी हुई  थी प्रतिशोध की जो  ज्वाला ,
पांडव   सारे   झुलस  गए पीकर मेरे विष की हाला।
ये तथ्य सत्य  है दुर्योधन  ने अनगिनत अनाचार सहे,
धर्म पूण्य की बात वृथा  कैसे उससे धर्माचार फले ?

हाँ  पिता रहे आजन्म अंध ना न्याय युक्त फल पाते थे ,
कहने को आतुर सकल रहे पर ना कुछ भी कह पाते थे।
ना कुछ  सहना  ना कुछ  कहना  ये कैसी  लाचारी थी ,
वो विदुर  नीति आड़े आती अक्सर वो विपदा  भारी थी।

वो जरासंध जिससे डरकर कान्हा मथुरा रण छोड़ चले,
वो कर्ण सम्मुख था नतमस्तक सोचो कैसा वो वीर अहे।
ऐसे वीर से जीवन भर जाति का ज्ञान बताते थे,
ना कर्म क्षत्रिय का करते नाहक़ अभिमान सजाते थे।

जो जीवन भर हाय हाय जाति से ही पछताता था,
उस कर्ण मित्र के साये में पूण्य कहाँ फल पाता था।
पास एक था कर्ण मित्र भी न्याय नहीं मिल पाता था?
पिता दृश थी विवशता ना सह पाता कह पाता था  ।

ऐसों के बीच रहा जो भी उससे क्या धर्म विजय होगा,
जो आग के साए में जीता तो न्याय पूण्य का क्षय होगा।
दुर्बुधि  दुर्मुख कहके  जिसका  सबने  उपहास  किया ,
अग्न आप्त हो जाए किंचित बस थोड़ा  प्रयास किया।

अग्न प्रज्वल्लित तबसे हीं जबसे निजघर पांडव आये,
भीष्म  पितामह तात विदुर के प्राणों के बन के साये।
जब  बन बेचारे महल पधारे थे सारे  वनवासी पांडव ,
अंदेश  तब फलित हुआ था आगे होने  वाला तांडव।

जभी पिता हो प्रेमासक्त अर्जुन को  गले लगाते थे,
मेरे  तन  में मन मे क्षण अंगार फलित हो जाते थे।
जब न्याय नाम पे मेरे पिता से जैसे पुरा राज लिए ,
वो राज्य के थे अधिकारी पर ना सर पे ताज दिए।

अन्याय हुआ था मेरे तात से डर था वैसा न हो जाए,
विदुर नीति के मुझपे भी किंचित न पड़ जाए साए।
डर तो था पहले हीं मन में और फलित हो जाता था,
भीम दुष्ट  के  कुकर्मों से  और  त्वरित हो जाता था।

अन्याय त्रस्त था तभी भीम को मैंने भीषण तरल दिया ,
मुश्किल से बहला फुसला था महाचंड को गरल दिया।
पर बच निकला भीम भाग्य से तो छल से अघात दिया,
लक्षागृह की रचना की थी फिर भीषण प्रतिघात किया।

बल से  ना पा सकता था छल से हीं बेशक काम किया ,
जो मेरे तात का सपना था कबसे बेशक सकाम किया।
दुर्योधन   मनमानी   करता  था अभिमानी  माना मैंने ,
पर दूध धुले भी  पांडव  ना थे सच में हीं पहचाना मैंने।

क्या  जीवन रचनेवाला  कभी सोच के जीवन रचता है,
कोई  पुण्य  प्रतापी कोई पाप  अगन ले हीं  फलता है।
कौरव पांडव सब कटे मरे क्या यही मात्र था प्रयोजन ,
रचने वाले ने क्या सोच के किया युद्ध का आयोजन ?

क्या पांडव सारे धर्मनिष्ठ और हम पापी थे बचपन से ?
सारे कुकर्म फला करते क्या कौरव से लड़कपन से ?
जिस  खेल  को  खेल  खेल  में  पांडव  खेला करते थे ,
आग  जलाकर  बादल  बनकर  अग्नि  वर्षा  करते थे।

हे मित्र कदापि ज्ञात तुम्हे भी माता के  हम भी प्यारे।
माता  मेरी  धर्मनिष्ठ  फिर  क्यों हम  आँखों  के तारे ?
धर्म  शेष कुछ मुझमे भी जो साथ रहा था मित्र कर्ण ,
पांडव के मामा शल्य कहो क्यों साथ रहे थे दुर्योधन?

अश्वत्थामा  मित्र  सुनो  हे  बात  तुझे सच  बतलाता हूँ  ,
चित्त में पुण्य जगे थे किंचित फले नहीं मैं पछताता हूँ।
हे मित्र जरा तुम  याद करो जब   चित्रसेन से हारा था,
जब अर्जुन का धनुष बाण हीं  मेरा  बना सहारा था।

तब मेरे भी मन मे भी क्षण को धर्म पूण्य का ज्ञान हुआ,
अज्ञान हुआ था तिरोहित क्षय मेरा भी अभिमान हुआ।
उस दिन मन में निज कुकर्मों का  थोड़ा  एहसास हुआ ,
तज दूँ इस दुनिया को क्षण में क्षणभर को प्रयास हुआ।

आत्म ग्लानि का ताप लिए अब विष हीं पीता रहता हूँ ,
हे  अश्वत्थामा  ज्ञात  नहीं तुमको पर सच है  कहता हूँ।
ऐसा  ना था  बचपन  से हीं  कोई कसम उठाई थी ,
भीम ढीठ  से ना  जलता था उसने आग लगाई थी।

मेरे  अनुजों    संग  जाने   कैसे  कुचक्र रचाता  था ,
बालोचित ना क्रीड़ा थी भुजबल से इन्हें डराता था।
प्रिय अनुजों की पीड़ा मुझसे  यूँ ना  देखी जाती थी ,
भीम ढींठ  के कटु हास्य वो दर्प से उन्नत छाती थी।

ऐसे  हीं  ना  भीम  सेन को मैंने विष का पान दिया ,
उसने मेरे  भ्राताओं को किंचित हीं अपमान दिया।
और पार्थ  बालक मे भी थी कौन पुण्य की अभिलाषा ,
चित्त में निहित  निज स्वार्थ  ना कोई धर्म की पिपासा।

डर का चित्त में भाग लिए वो दिनभर कम्पित रहता था ,
बाहर से तो वो  शांत दिखा पर भीतर शंकित रहता था।
ये डर हीं तो था उसका जब हम सारे सो जाते थे,
छुप छुपकर संधान लगाता जब  तारे  खो जाते थे।

छल में कपटी अर्जुन का भी ऐसा कम है नाम नहीं।
गुरु द्रोण का कृपा पात्र बनना था उसका काम वहीं।
मन में उसके क्या था उसके ये दुर्योधन तो जाने ना,
पर इतना भी मूर्ख नहीं चित्त के अंतर  पहचाने ना।

हे मित्र कहो ये न्याय कहाँ  उस अर्जुन के कारण हीं,
एक्लव्य  अंगूठा  बलि  चढ़ा  ना  कोई  अकारण हीं।
सोंचो गुरुवर ने पाप किया क्यों खुद को बदनाम किया ,
जो सूरज जैसा उज्ज्वल हो फिर क्यों ऐसा अंजाम लिया?

ये अर्जुन का था किया धरा  उसके मन में था जो  संशय,
गुरु ने खुद पे लिया दाग ताकि अर्जुन चित्त रहे अभय।
फिर निज महल में बुला बुला अंधे का बेटा कहती  थी  ,
जो क्रोध अगन में जला बढ़ा उसपे घी  वर्षा करती  थी।

मैं  चिर अग्नि  में जला  बढ़ा क्या  श्यामा को ज्ञान नहीं ,
छोड़ो  ऐसे भी कोई भाभी  करती क्या अपमान कहीं?
श्यामा का  जो  चिर  हरण था वो कारण जग जाहिर है,
मृदु हास्य का खेल नहीं अपमान फलित डग बाहिर है।

वो अंधापन हीं कारण था ना पिता मेरे महाराज बने,
तात अति  थे बलशाली फिर भी पांडू अधिराज बने।
दुर्योधन बस नाम नहीं  ये  दग्ध आग का शोला  था ,
वर्षों से सिंचित ज्वाला थी कि अति भयंकर गोला था।

उसी लाचारी को कहकर क्या ज्ञात कराना था उसको ?
तृण जलने को तो ईक्षुक हीं क्यों आग लगाना था उसको?
कि वो चौसर के खेल नही न मात्र खेल के पासे थे,
शकुनि ने अपमान सहे थे एक अवसर के प्यासे थे।

उस अवसर का कारण  मैं ना धर्मराज हीं कारण थे ,
सुयोधन को समझे कच्चा  जीत लिए मन धारण थे।
कैसे कोई कह सकता है दुर्योधन को व्याभिचारी ,
जुए  का  व्यसनी धर्मराज चौसर उनकी हीं लाचारी।

जब शकुनि मामा को खुद के बदले मैंने खेलाया था,
खुद हीं पासे चलने को उनको किसने उकसाया था।
ये धर्मराज का व्यसनी मन उनकी बुद्धि पर हावी था,
चौसर खेले में धर्म नहीं उनका बस अहम प्रभावी था।

वरना  जैसे कि चौसर में मामा  शकुनी  का ज्ञान लिया।
वो नहीं कृष्ण को ले आये बस अपना अभिमान लिया।
उसी मान के चलते हीं तो  हुआ श्यामा का चिर हरण,
अग्नि मेरी जलने को आतुर उर में  बसती रही अगन।

श्यामा का सारा वस्त्र हरण वो द्रोण भीष्म की लाचारी,
चिनगारी कब की सुलग रही थी मात्र आग की तैयारी।
कर्ण मित्र की आंखों ने अब तक जितने अपमान सहे,
प्रथम खेल के  स्थल ने   जाने कितने अवमान कहे।

उसी भीम की नजरों में जब वो अपमान फला देखा ,
पांडव की नीची नजरों में वो ही प्रतिघात सजा देखा ।
जब चिरहरण में श्यामा ने कातर होकर चीत्कार किया,
ये जान रहा था दुर्योधन है समर शेष स्वीकार किया।

दुर्योधन तो मतवाला था कि ज्ञात रहा विष का हाला,
ये उसको खुद भी मरेगा कि  चिरहरण का वो प्याला।
कुछ नही समझने वाला था ज्ञात श्याम थे अविनाशी,
वो हीं  श्यामा  के  रक्षक  थे पांचाली  हित अभिलाषी।

फिर भी जुए के उसी खेल में मैंने जाल बिछाया था,
उस खेल में  मामा  ने तरकस से वाण चलाया था।
अंधा कह कर श्यामा ने जो भी मेरा अवमान किया,
वो  प्रतिशोध  की चिंगारी  मेरे  उर में अज्ञान दिया।

हम जीत गए थे चौसर में पर युद्ध अभी अवशेष रहा,
जब तक दुर्योधन जीता था वो समर कदापि शेष रहा।
हाँ तुष्ट हुआ था दुर्योधन उस प्रतिशोध की ज्वाला में,
जले  भीम ,  पार्थ, धर्म राज पांचाली  विष हाला में।

और जुए में  धर्म  राज  ने  खुद ही दाँव लगाया था,
चौसर  हेतू  पांडव  तत्तपर मैंने तो मात्र बुलाया था।
गर किट कोई आ आकर दीपक में जल जाता है,
दोष मात्र कोई किंचित क्या दीपक पे फल पाता है।

दुर्योधन तो  मतवाला था  राज शक्ति का अभिलाषी,
शक्ति संपूज्य रहा जीवन ना धर्म ज्ञान  का विश्वासी ।
भीष्म अति थे बलशाली जो कुछ उन्होंने ज्ञान दिया ,
थे पिता मेरे लाचार बड़े मजबूरी में सम्मान दिया।

जो  एकलव्य  से अंगूठे का  गुरु द्रोण  ने दान लिया ,
जो शक्तिपुंज है पूज्य वही बस ये ही तो प्रमाण दिया।
भीष्म पितामह किंचित जब कोई स्त्री हर लाते हैं ,
ना उन्हें विधर्मी कोई कहता मात्र पुण्य फल पाते हैं।

दुर्योधन भी जाने क्या क्या पाप पुण्य क्या अभिचारी,
जीत गया जो शक्ति पुंज वो मात्र न्याय का अधिकारी।
दुर्योधन ने धर्म  मात्र का मर्म यही इतना बस  जाना ,
निज बाहू  पे जो जीता  जिसने निज गौरव पहचाना।

उसके आगे ईश  झुके तो नर की क्या औकात भला ?
रजनी चरणों को धोती  है  आ  झुकता  प्रभात चला।
इसीलिए तो जीवन पर पांडव संग बस अन्याय किया,
पर धर्म युद्ध में धर्मराज ने भी कौन सा  न्याय किया?

धर्मराज हित कृष्ण कन्हैया महावीर पूण्य रक्षक थे,
कर्ण का वध हुआ कैसे पांडव भी धर्म के भक्षक थे?
सब कहते हैं अभिमन्यु का कैसा वो संहार हुआ?
भूरिश्रवा के प्राण हरण में  कैसा धर्मा चार हुआ ?

भीष्म तात निज हाथों से गर धनुष नहीं हटाते तो,
भीष्म हरण था असंभव पांडव किंचित पछताते तो।
द्रोण युद्ध में शस्त्र हीन होकर बैठे असहाय भला,
शस्त्रहीन का जीवन लेने में कैसे कोई पूण्य फला?

जिस भाव को मन में रखकर हम सबका संहार किया,
क्यों गलत हुआ जो भाव वोही ले मैंने  नर संहार किया।
क्या कान्हा भी बिना दाग के हीं ऐसे रह पाएंगे?
ना अनुचित कोई कर्म फला उंनसे कैसे  कह पाएंगे?

पार्थ  धर्म  के अभिलाषी व पूण्य लाभ के हितकारी,
दुर्योधन तो था हठधर्मी नर अधम पाप का अधिकारी।
न्याय पूण्य के नाम लिये दुर्योधन को हरने धर्म चला,
क्या दुर्योधन को हरने में हित हुआ धर्म का कर्म भला?

धर्म राज तो चौसर के थे व्यसनी फिर वो काम किया,
युद्ध जीत कर हरने का फिर से हीं वो इंजेजाम किया।
अति जीत के विश्वासी कि खुद पे  यूँ अभिमान किया,
चुन लूँ चाहे जिसको भी किंचित अवसर प्रदान किया।

पर दुर्योधन ने धर्मराज से धर्म  युद्ध  व्यापार किया ,
चुन सकता था धर्मराज ना अर्जुन पे प्रहार किया।
हे  मित्र कहो  ले गदा मेरे  सम्मुख  होते सहदेव नकुल,
क्या इहलोक पे बच जाते क्या मिट न जाता उनका मुल?

पर मैंने तो न्याय उचित ही चारों को जीवन दान दिया ,
चुना भीम को गदा युद्ध में निज कौशल प्रमाण दिया ।
गर भीम अति बलशाली था तो निज बाहू मर्दन करता ,
जिस गदा शक्ति का मान बड़ा था बाँहों से गर्दन धरता।

यदुनंदन को ज्ञात  रहा था   माता का   उपाय भला,
करके रखा दुर्योधन को दिग्भ्रमित  असहाय छला।
पर  जान गए जब गदा युद्ध में दुर्योधन हीं भारी था ,
छल से जंधा तोड़ दिए अब कौन धर्म अधिकारी था ?

रक्त सींच निज हाथों से अपने केशों को दान दिया ,
क्या श्यामा सो पाएगी कि बड़ा पुण्य का काम किया?
दुर्योधन अधर्म ,विधर्म , अन्याय, पाप का रहा पर्याय,
तो पांडव किस मुख से धर्मी न्याय पुरुष फिर रहे हाय।

बड़ा धर्म का नाम लिए कि पुण्य कर्म अभिज्ञान लिए ,
बड़ा कुरुक्षेत्र आये थे सच का सच्चा अभिमान लिए।
सच तो  दुर्योधन  हरने में पांडव  दुर्योधन वरण चले,
अन्याय पाप का जय होता  धर्म न्याय का क्षरण चले।

गर दुर्योधन ने जीवन भर पांडव संग अभिचार किया,
तो धर्म युद्ध में धर्म पूण्य का किसने है व्यापार किया?
जहाँ  पुण्य का क्षय होता है शक्ति पुंज का जय होता है ,
सत्य कहाँ होता राजी है कहाँ धर्म का जय होता है ?

पाप पुण्य की बात नहीं जहाँ शक्ति का होता व्यापार,
वहाँ मुझी को पाओगे तुम दुर्योधन का हीं संचार।
दिख नहीं पड़ता तूमको कब सत्य यहाँ इतराता है?,
यहाँ हार गया है दुर्योधन पर पूण्य कर्म पछताता है ।

पांडव के भी तन में मन में सब पाप कर्म फलित होंगे,
दुर्योधन सब कुछ झेल चुका उनपे भी अवतरित होंगे।
कि धर्म युद्ध में धर्म हरण बस धर्म हरण हीं हो पाया,
जो कुरुक्षेत्र को देखेगा बस न्याय क्षरण हीं हो पाया।



जीत गए किंचित पांडव जब अवलोकन कर पाएंगे?
जब भी अंतर को  झांकेंगे  दुर्योधन  को  हीं  पाएंगे।
ये बात बता के दुर्योधन तब ईह्लोक को त्याग चला,
कहते सारे पांडव की जय धर्म पुण्य का भाग्य फला।

कर्ण पुत्र की लाचारी थी जीवित जो बचा रहा बच के ,
वृषकेतु आ मिला पार्थ कहते सब साथ मिला सच से।
हाँ अर्जुन को भी कर्ण वध का मन में था संताप फला ,
वृष केतु  को  प्रेम  दान कर करके पश्चाताप फला  ।

वृष केतु के गुरु पार्थ और बालक पुण्य प्रणेता था ,
सब सीख लिया था अर्जुन से वो योद्धा था विजेता थे।
कोई भी ऐसा वीर नहीं ठहरे जो भी उसके समक्ष ,
पांडव सारे खुश होते थे देख कर्ण पुत्र कर्ण समक्ष ।

जब स्वर्गारोहण करने को तैयार हो चले पांडव वीर ,
विकट चुनौती आन पड़ी थी धर्मराज हो चले अधीर ।
वृषकेतु था प्रबल युवक अभिमन्यु पुत्र पर बालक था ,
परीक्षित था नया नया वृषकेतु राज्य संचालक था।

वृषकेतु और परीक्षित में कौन  राज्य का अधिकारी ,
धर्मराज थे उलझन में की आई फिर विपदा भारी ।
न्याय यही तो कहता था कि वृषकेतु को मिले  प्रभार  ,
वो ही राज्य का अधिकारी वोही योग्य राज्याधिकार।

पर पुत्र के प्रेम में अंधे अर्जुन ने वो  व्यवहार किया ,
कभी  धृतराष्ट्र  ने  दुर्योधन से जैसा था प्यार किया।
अभिमन्यु  के  पुत्र परीक्षित को देके राज्याधिकार ,
न्याय धर्म पे कर डाला था आखिर पांडव ने प्रहार।

यदि  योग्यता  हीं  राज्य की होती कोई परिभाषा ,
वृषकेतु हीं श्रेयकर था वो ही धर्म की अंतिम आशा।
धृतराष्ट्र  तो  अंधे  थे अपने कारण कह सकते  थे,
युद्धिष्ठिर और पार्थ के क्या  कारण हो सकते थे ?

पुत्र मोह में अंधे राजा का सबने उपहास किया ,
अन्याय त्रस्त था दुर्योधन ना सबने विश्वास किया।
अब किस मुख से पार्थ धर्म की गाथा कहते रहते ?
कर्म तो हैं विधर्मी  जैसे पाप कर्म हीं गढ़ते रहते ।

अस्वत्थामा देख के सारी हरकत अर्जुन पांडव के ,
ना अफ़सोस कोई होता था उसको अपने तांडव पे।
अतिशय  पीड़ा  तन  में मन में लिए पहाड़ों के नीचे,
केशव श्राप लगा हुआ अब भी अस्वत्थामा के पीछे।

बीत  गए  हैं  युग  कितने अब उसको है ज्ञान नहीं,
फलित हुई  हरि की वाणी बचा रहा बस भान नहीं।
तन  में  पड़े  हुए  हैं  फोड़े  छिन्न  भिन्न सी काया है ,
जल से जलते हैं अंगारे आँखों समक्ष अँधियारा है ।

पर  कष्ट पीड़ा झेल  के सारे अब भी  वो ना रोता है ,
मन  में  कोई  पाप भाव  ना  अस्वत्थामा  सोता  है।
एक वाणी जो यदुनंदन की फलित हुई थी होनी थी,
पर एक वाणी फलित हुई ना ये कैसी अनहोनी थी ?

केशव ने तो ज्ञान दिया था जब  धर्म का क्षय होगा,
पाप   धरा   पर  छाएगा  दुष्कर्मों  का  जय  होगा।
तब तब पुण्य के जय हेतु गिरिधर धरती पर आएंगे,
धर्म   पताका  पुनर्स्थापित  धरती  पर  कर   पाएंगे ।



पर किंचित केशव की वाणी नहीं सत्य है होने को ,
नहीं सत्य की जीत हैं संभव धर्म खड़ा है रोने  को।
मंदिर मस्जिद नाम पर जाने होते  कितने पापाचार,
दु:शासन करते वस्त्र हरण अबला हैं कितनी लाचार।



सीताओं  का  अपहरण  भी रावण  हाथों होता हैं ,
अग्नि  परीक्षा  में  जलती  है राम आज भी  रोता है।
मुद्रा की चिंता में मानव भगता रहता पल पल पल,
रातों को ना आती निद्रा बेचैनी चित्त में इस उस पल।

जाने कितने हिटलर आतें सद्दाम जाने छा जाते हैं ,
गाँधी की बातें हुई बेमानी सच छलनी हो जाते हैं।
विश्व युद्ध भी देखा उसने देखा मानव का वो संहार,
तैमुर लंग के कृत्यों से दिग्भ्रमित हुआ वो नर लाचार।

सम सामयिक होना भी एक व्यक्ति को आवश्यक है
पर जिस ज्ञान से उन्नति हो बौद्धिक मात्र निरर्थक है ।
नित अध्ययन रत होकर भी है अवनति संस्कार में
काम एक है नाम अलग बस बदलाहट किरदार में।

ईख पेर कर रस चूसने जैसे व्यापारी करें व्यापार ,
देह अगन को जला जलाकर महिलाओं से चले बाजार।
आज एक नहीं लाखों सीताएँ घुट घुट कर मरा करती,
कैसी दुनिया कृष्ण की वाणी और धर्म की ये धरती?

अब अधर्म  धर्म पे हावी नर का हो भीषण संहार,
मंदिर मस्जिद  हिंसा  निमित्त  बहे रक्त की धार।
इस धरती पे नर  भूले मानवता  की परिभाषा,
इस युग  में मानव से नहीं मानवता की आशा।

हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई  जैन बौद्ध की कौम,
अति विकट ये प्रश्न है भाई धर्म राह पर कौन?
एक निर्भया छली गई जाने  कितनी छल जाएँगी ,
और दहेज़ की  ज्वाला में जाने कितनी जल जाएंगी ?

आखिर कितनों के प्राण जलेंगे तब हरि धरा पर आयेंगे,
धरती पर धर्म प्रतिष्ठा होगी जो वो  कहते कर पाएंगे ।
मृग मरीचिका सी लगती है केशव की वो अद्भुत वाणी,
हर जगह प्रतिष्ठित होने को है दुर्योधन की वही कहानी।

जो  जीत  गया  संसार  युद्ध  में  धर्मी  वो  कहलाता  है ,
और  विजित  जो  भी  होता  विधर्मी सा  फल पाता है ।
ना कोई है धर्म प्रणेता ना कोई है पुण्य संहारक ,
जीत गया जो जीवन रण में वो पुण्य का प्रचारक।

जीत मिली जिसको उसके हर कर्म पुण्य हो जायेंगे ,
और हार मिलती जिसको हर कर्म पाप हो जायेंगे  ।
सच ना इतिहास बताता है सच जो है उसे छिपाता है,
विजेता हाथों त्रस्त या तुष्ट जो चाहे वही दिखाता है ।

दुर्योधन को हरने में जो पांडव ने दुष्कर्म रचे ,
उन्हें नजर ना आयेंगी क्या कान्हा ने कुकर्म रचे।
शकुनी मामा ने पासा फेंका बात बताई जाएगी ,
धर्मराज थे कितनी व्यसनी बात भुलाई जाएगी।

कलमकार को दुर्योधन में पाप नजर हीं आयेंगे ,
जो भी पांडव में फलित हुए सब धर्म हो जायेंगे ।
धर्म पुण्य की बात नहीं थी सत्ता हेतु युद्ध हुआ था,
दुर्योधन के मरने में हीं न्याय धर्म ना पुण्य फला था।



सत्ता के हित जो लड़ते हैं धर्म हेतु ना लड़ते हैं ,
निज स्वार्थ की सिद्धि हेतु हीं तो योद्धा मरते हैं।
ताकत शक्ति के निमित्त युद्ध सत्ता को पाने को तत्पर,
कौरव पांडव आयेंगे पर ना होंगे केशव हर अवसर ।

हर युग में पांडव  भी होते हर युग में दुर्योधन होते  ,
जो जीत गया वो धर्म प्रणेता हारे सब दुर्योधन होते।
अब वो हंसता देख देख  के दुर्योधन की सच्ची वाणी ,
तब भी सच्ची अब भी सच्ची दुर्योधन की कथा कहानी।

हिम शैल के तुंग शिखर पर बैठे बैठे  वो घायल नर,
मंद मंद उद्घाटित चित्त पे उसके होता था  ये स्वर ।
धुंध पड़ी थी अबतक जिसपे तथ्य वही दिख पाता है,
दुर्योधन तो  मर   जाता   कब  दुर्योधन मिट पाता है?

द्रोणपुत्र  ओ द्रोणपुत्र  ये  कैसा   सत्य  प्रकाशन है ?
ये कौन तर्क देता तुझको है कैसा तथ्य प्रकाशन है?
कैसा अज्ञान का ज्ञापन ये अबुद्धि का कैसा व्यापार?
कैसे  ये चिन्हित होता तुझसे अविवेक का यूँ प्रचार?

द्रोण  पुत्र  ओ  द्रोणपुत्र ये कैसा जग का दृष्टिकोण,
नयनों से प्रज्ञा लुप्त हुई  चित्त पट पे तेरे बुद्धि मौन।
ये  कौन  बताता है तुझको ना दुर्योधन मिट पाता है ,
ज्ञान  चक्षु  से देख जरा  क्या  दुर्योधन टिक पाता है?

ये  कैसा  अनुभव  तेरा  कैसे  तुझमे निष्कर्ष फला ,
समझ नहीं तू पाता क्यों तेरे चित्त में अपकर्ष फला।
क्या  तेरे अंतर मन में भी बनने की चाहत दुर्योधन ,
द्रोणपुत्र  ओ द्रोणपुत्र कुछ तो अंतर हो अवबोधन।

मात्र अग्नि का बुझ जाना हीं  शीतलता का नाम नहीं,
और प्रतीति जल का होना पयोनिधि का प्रमाण नहीं।
आंखों से जो भी दिखता है नहीं ज्ञान का मात्र पर्याय,
मृगमरीचिका में गोचित जो छद्म मात्र हीं तो जलकाय।

जो कुछ तेरा अवलोकन क्या समय क्षेत्र से आप्त नहीं,
कैसे कह सकते हो जो तेरा सत्य जगत में व्याप्त वहीं।
अश्वत्थामा  तथ्य  प्रक्षेपण क्या ना तेरा  कलुषित  है?
क्या तेरा  जो सत्य  अन्वेषण ना माया मलदुषित है?

इतना सब दुख सहते रहते फिर भी कैसा दोष विकार,
मिथ्या ज्ञान अर्जन करते हो और सजाते अहम विचार।
अगर मान भी ले गर किंचित कुछ तो तथ्य बताते हो,
तुम्ही बताओ इस सत्य से क्या कुछ बेहतर कर पाते हो?

जिस तथ्य प्रकाशन से  गर नहीं किसी का हित होता,
वो भी क्या है सत्य प्रकाशन नहीं कोई हलुषित होता।
दुर्योधन अभिमानी  जैसों  का जो मिथ्या मंडन  करते,
क्या नहीं लगता तुमको तुम निज आमोद मर्दन करते।

चौंक इधर को कभी उधर को देख रहा था द्रोणपुत्र,
ये  कौन बुलाता निर्जन में संबोधन करता द्रोणपुत्र?
मैं तो हिम में पड़ा हुआ हिमसागर घन में जलता हूँ,
ये बिना निमंत्रण स्वर कैसा ध्वनि कौन सा सुनता हूँ?

हिम शेष ही बचा हुआ है अंदर भी और बाहर भी,
ना विशेष है बचा हुआ कोई तथ्य नया उजागर भी।
इतने  लंबे  जीवन  में जो कुछ देखा वो कहता था,
ना कोई है सत्य प्रकाशन जग सीखा हीं कहता था।

बात बड़ी है नई नई जो कुछ देखा खुद को बोला,
ना कोई दृष्टिगोचित फिर राज यहाँ किसने खोला।
ये  मेरे  मन  की  सारी  बाते कैसे  कोई जान रहा,
मन मेरे क्या चलता है कोई कैसे हैं पहचान रहा।

अतिदुविधा में हिमशिखर पर द्रोणपुत्र था पड़ा हुआ,
उस स्वर से कुछ था चिंतित और कुछ था डरा हुआ।
गुरु  पुत्र ओ  गुरु पुत्र ओ चिर लिए तन अविनाशी,
निज प्रज्ञा पर संशय कैसा क्यूँ हुए निज अविश्वासी।

ये ढूंढ रहे किसको जग में शामिल तो हूँ तेरे रग में,
तेरा हीं तो चेतन मन हूँ क्यों ढूंढे पदचिन्हों में डग में।
नहीं  कोई बाहर से  तुझको ये आवाज लगाता है,
अब तक भूल हुई तुझसे कैसे अल्फाज बताता है ।

है फर्क यही इतना बस कि जो दीपक अंधियारे में,
तुझको इक्छित मिला नही दोष कभी उजियारे में।
सूरज तो  पूरब  में उगकर  रोज रोज हीं आता है,
जो भी घर के बाहर आए उजियारा हीं पाता है।

ये क्या बात हुई कोई गर छिपा रहे घर के अंदर ,
प्रज्ञा पे  पर्दा  चढ़ा  रहे दिन रात महीने निरंतर।
बड़े गर्व से कहते हो ये सूरज कहाँ निकलता है,
पर तेरे कहने से केवल सत्य कहाँ पिघलता है?

सूरज  भी  है तथ्य सही पर तेरा भी सत्य सही,
दोष तेरेअवलोकन में अर्द्धमात्र हीं कथ्य सही।
आँख  मूंदकर  बैठे हो सत्य तेरा अँधियारा  है ,
जरा खोलकर बाहर देखो आया नया सबेरा है।

इस सृष्टि में मिलता तुमको जैसा दृष्टिकोण तुम्हारा,
तुम हीं तेरा जीवन चुनते जैसा भी  संसार तुम्हारा।
बुरे सही अच्छे भी जग में पर चुनते कैसा तुम जग में,
तेरे कर्म पर हीं निर्भर है क्या तुमको मिलता है डग में।

बात सही तो लगती धीरे धीरे ग्रंथि सुलझ रही थी ,
गाँठ बड़ी अंतर में पर किंचित ना वो उलझ रही थी।
पर  उत्सुक  हो  रहा  द्रोणपुत्र  देख रहा आगे पीछे ,
कौन अनायास बुला रहा उस वाणी से हमको खींचे?

ना पेड़ पौधा खग पशु कोई ना दृष्टिगोचित कोई नर,
बार बार फिर बुला रहा कैसे मुझको अगोचित स्वर।
गंध  नहीं  है रूप  नहीं  है  रंग  नहीं  है देह आकार,
फिर भी कर्णों में आंदोलन किस भाँति कंपन प्रकार।

क्या एक अकेले रहते चित्त में भ्रम का कोई जाल पला,
जो भी सुनता हूँ निज चित का कोई माया जाल फला।
या  उम्र  का  हीं  ये  फल  है लुप्त  पड़े थे  जो विकार,
जाग  रहें  हैं  हौले  हौले  सुप्त  पड़े सब लुप्त विचार।

नहीं  मित्र  ओ  नहीं  मित्र नहीं ये तेरा  कोई छद्म भान,
अंतर में झांको तुम निज के अंतर में हीं कर लो ध्यान।
ये  स्वर  तेरे अंतर हीं  का कृष्ण कहो या तुम भगवान,
वो  जो  जगत  बनाते  है वो हीं  जगत  मिटाते  जान।

देखो  तो मैं हीं  दुर्योधन तुझको समझाने आया हूँ,
मित्र धर्म का कुछ ऋण बाकी उसे चुकाने आया हूँ।
मेरे हित हीं निज तन पे जो कष्ट उठाते आये हो,
निज मन पे जो भ्रम पला निज से हीं छुपाते आये हो।

जरा आंख तो कुछ हीं पल को बंद करो बतलाता हूँ,
कुछ हीं पल को शांत करो सत्य को कि तुझे दिखता हूँ।
चलो दिखाऊँ द्रोण पुत्र नयनों के पीछे का संसार,
कितने हीं संसार छुपे है तेरे इन नयनों के पार।

आओ अश्वत्थामा आओ ना मुझपे यूँ तुम पछताओ,
ना खुद पे भी दुख का कोई कारण सुख अब तुम पाओ।
कृष्ण तत्व मुझपे है तुमने इतना जो उपकार किया,
बात सही है द्रोण पुत्र ने भी सबका अपकार किया।

पर दुष्कर्म किये जो इसने अब तक मूल्य चुकाता है,
सत्य तथ्य ना ज्ञात मित्र को नाहक हीं पछताता है।
जैसे मेरे मन ने  चित पर भ्रम का  जाल बिछाया था,
सत्य कथ्य दिखला कर तूने माया जाल हटाया था।

है गिरिधर अब आगे आएं द्रोण पुत्र को भी समझाएँ,
जो कुछ अबतक समझ रहा भ्रम है कैसे भी बतलाएं।
नाहक हीं क्यों समझ रहा है दुर्योधन ना मिट पाया।
कृष्ण बताएं कुछ तो इसको दुर्योधन ना टिक पाया।

कान खड़े हुए विस्मित था ये कैसा दुर्योधन है,
धर्मराज जो कहते आए थे वैसा सुयोधन है।
कैसे दिल की तपन आग को दुर्योधन सब भूल गया,
अब ऐसा दृष्टिगोचित होता द्वेष क्रोध निर्मूल गया।

जिससे जलता लड़ता था उसको हीं आज बुलाता है,
ये  कैसा  दुर्योधन  है  जो खुद को आग लगाता है?
जिस  कृष्ण  के  कारण हीं तो ऐसा दुष्फल पाता हूँ,
जाने  खुद  को  कैसे  कैसे  कारण  दे पछताता हूँ।

अश्वत्थामा द्रोण पुत्र आओ तो आओ मेरे साथ,
मैं हीं तो हूँ मित्र तुम्हारा और कृष्ण भी मेरे साथ।
आँख बंद करो इक क्षण को देखों तो कैसा संसार,
क्या  जग का परम तत्व क्या है इस जग का सार।

सुन बात मित्र की मन मे अतिशय थे संशय आये,
पर  सोचा द्रोण पुत्र ने और कोई ना रहा उपाय।
चलो दुर्योधन के हित मैंने इतना पापाचार किया,
जो खुद भी ना सोचा मैंने कैसा था व्यापार किया।

बात मानकर इसकी क्षण को देखे अब होता है क्या,
आँख  मूंदकर  बैठा था वो देखें अब होता है क्या?
कुछ हीं क्षण में नयनों के आगे दो ज्योति निकट हूई,
तन से टूट गया था रिश्ता मन की द्योति  प्रकट हुई।

इस  धरती  के  पार  चला था देह छोड़ चंदा तारे,
अति गहन असीमित गहराई जैसे लगते अंधियारे।
सांस नहीं ले पाता था क्या जिंदा था या सपना था,
ज्योति रूप थे कृष्ण साथ साथ मित्र भी अपना था।

मुक्त हो गया अश्वत्थामा मुक्त हो गई उसकी देह ,
कृष्ण संग भी साथ चले थे और दुर्योधन साथ विदेह।
द्रोण पुत्र को हुआ ज्ञात कि धर्म पाप सब रहते हैं ,
ये खुद पे निर्भर करता क्या ज्ञान प्राप्त वो करते हैं ?

फुल भी होते हैं धरती है और शूल भी होते हैं ,
चित्त पे फुल खिले वैसे जैसे धरती पर बोते हैं ।
जिसकी जैसी रही अपेक्षा वैसा फल टिक पाता है
दुर्योधन ना टिक पाता ना दुर्योधन मिट पाता है ।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
जिस मानव का सिद्ध मनोरथ
मृत्यु     क्षण      होता    संभव,
उस मानव का हृदय आप्त ना
हो   होता        ये      असंभव।
============
ना   जाने किस   भाँति आखिर
पूण्य   रचा    इन  हाथों       ने ,
कर्ण   भीष्म  न  कर  पाए  वो
कर्म   रचा    निज     हाथों ने।
===========
मुझको भी विश्वास ना होता
है  पर   सच    बतलाता  हूँ,
जिसकी   चिर   प्रतीक्षा  थी
तुमको  वो बात सुनाता  हूँ।
===========
तुमसे  पहले  तेरे  शत्रु का
शीश विच्छेदन कर धड़ से,
कटे मुंड  अर्पित  करता हूँ,
अधम शत्रु का निजकर से।
===========
सुन मित्र की बातें दुर्योधन के
मुख     पे    मुस्कान    फली,
मनो वांछित   सुनने  को   हीं
किंचित उसमें थी जान बची।
===========
कैसी  भी  थी  काया  उसकी  
कैसी   भी    वो    जीर्ण  बची ,
पर मन  के अंतर तम  में  तो
अभिलाषा  कुछ  क्षीण  बची।
==========
क्या  कर  सकता  अश्वत्थामा
कुरु  कुंवर  को   ज्ञात    रहा,
कैसे    कैसे    अस्त्र     शस्त्र  
अश्वत्थामा    को   प्राप्त  रहा।
=========
उभर   चले  थे  मानस पट पे
दृश्य   कैसे   ना    मन   माने ,
गुरु  द्रोण  के  वधने  में  क्या
धर्म  हुआ   था    सब   जाने।
=========
लाख  बुरा  था  दुर्योधन  पर
सच  पे   ना   अभिमान रहा ,
धर्मराज  सा   सच पे सच में
ना  इतना    सम्मान    रहा।
=========
जो छलता था दुर्योधन पर
ताल थोक कर हँस हँस के,
छला गया छलिया के जाले
में उस दिन  फँस फँस  के।
=========
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
किसी व्यक्ति के जीवन का लक्ष्य जब मृत्यु के निकट पहुँच कर भी पूर्ण  हो जाता है  तब उसकी  मृत्यु उसे ज्यादा परेशान नहीं कर पाती। अश्वत्थामा भी दुर्योधनको एक शांति पूर्ण  मृत्यु  प्रदान  करने  की  ईक्छा से उसको स्वयं  द्वारा  पांडवों के मारे जाने का समाचार  सुनाता है, जिसके  लिए दुर्योधन ने आजीवन कामना की  थी । युद्ध भूमि में   घायल   पड़ा    दुर्योधन   जब  अश्वत्थामा के मुख से पांडवों के  हनन की बात सुनता है तो  उसके  मानस   पटल  पर सहसा अतित के वो  दृश्य  उभरने लगते हैं जो गुरु द्रोणाचार्य के वध होने के वक्त घटित हुए थे।  अब आगे क्या हुआ , देखते हैं मेरी दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया" के इस 35 वें भाग में।
-------
भीम के हाथों मदकल,
अश्वत्थामा मृत पड़ा,
धर्मराज ने  झूठ कहा,
मानव या कि गज मृत पड़ा।
-------
और कृष्ण ने उसी वक्त पर ,
पाञ्चजन्य  बजाया  था,
गुरु द्रोण को धर्मराज ने  ,
ना कोई सत्य बताया था।
--------
अर्द्धसत्य भी  असत्य से ,
तब घातक  बन जाता है,
धर्मराज जैसों की वाणी से ,
जब छन कर आता है।
--------
युद्धिष्ठिर के अर्द्धसत्य  को ,
गुरु द्रोण ने सच माना,
प्रेम पुत्र से करते थे कितना ,
जग ने ये पहचाना।
---------
होता  ना  विश्वास कदाचित  ,
अश्वत्थामा  मृत पड़ा,
प्राणों से भी जो था प्यारा ,
यमहाथों अधिकृत पड़ा।
---------
मान पुत्र  को मृत द्रोण का  ,
नाता जग से छूटा था,
अस्त्र शस्त्र त्यागे  थे वो ना ,
जाने  सब ये झूठा था।
---------
अगर पुत्र इस धरती पे  ना ,
युद्ध जीतकर क्या होगा,
जीवन का भी मतलब कैसा ,
हारजीत का क्या होगा?
---------
यम के द्वारे हीं जाकर किंचित ,
मैं फिर मिल पाऊँगा,
शस्त्र  त्याग कर बैठे शायद ,
मर कामिल हो पाऊँगा।
----------
धृष्टदयुम्न  के हाथों  ने  फिर  ,
कैसा वो  दुष्कर्म  रचा,
गुरु द्रोण को वधने में ,
नयनों  में ना कोई शर्म  बचा।
----------
शस्त्रहीन ध्यानस्थ द्रोण का ,
मस्तकमर्दन कर छल से,
पूर्ण किया था कर्म  असंभव ,
ना कर पाता जो बल से।
----------
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
द्रोण को सहसा अपने पुत्र अश्वत्थामा की मृत्यु के समाचार पर विश्वास नहीं हुआ। परंतु ये समाचार जब उन्होंने धर्मराज के मुख से सुना तब संदेह का कोई कारण नहीं बचा। इस समाचार को सुनकर गुरु द्रोणाचार्य के मन में इस संसार के प्रति विरक्ति पैदा हो गई। उनके लिये जीत और हार का कोई मतलब नहीं रह गया था। इस निराशा भरी विरक्त अवस्था में गुरु द्रोणाचार्य  ने अपने अस्त्रों और शस्त्रों  का त्याग कर दिया और  युद्ध के मैदान में ध्यानस्थ होकर बैठ गए। आगे क्या हुआ देखिए मेरी दीर्घ कविता दुर्योधन कब मिट पाया के छत्तीसवें भाग में।
================
उम्र चारसौ श्यामलकाया
शौर्योगर्वित उज्ज्वल भाल,
आपाद मस्तक दुग्ध दृश्य
श्वेत प्रभा समकक्षी बाल।
================
वो युद्धक थे अति वृद्ध पर
पांडव जिनसे चिंतित थे,
गुरुद्रोण सेअरिदल सैनिक
भय से आतुर कंपित थे।
================
उनको वधना ऐसा जैसे
दिनकर धरती पर आ जाए,
सरिता हो जाए निर्जल कि
दुर्भिक्ष मही पर छा जाए।
================
मेरुपर्वत दौड़ पड़े अचला
किंचित कहीं इधर उधर,
देवपति को हर ले क्षण में
सूरमा कोई कहाँ किधर?
================
ऐसे हीं थे द्रोणाचार्य रण
कौशल में क्या ख्याति थी,
रोक सके उनको ऐसे कुछ
हीं योद्धा की जाति थी।
================
शूरवीर कोई गुरु द्रोण का
मस्तक मर्दन कर लेगा,
ना कोई भी सोच सके
प्रयुत्सु गर्दन हर लेगा।
=================
किंतु जब स्वांग रचा द्रोण
का मस्तक भूमि पर लाए,
धृष्टद्युम्न हर्षित होकर जब
समरांगण में चिल्लाए।
=================
पवनपुत्र जब करते थे रण
भूमि में चंड अट्टाहस,
पांडव के दल बल में निश्चय
करते थे संचित साहस।
=================
गुरु द्रोण के जैसा जब
अवरक्षक जग को छोड़ चला,
जो अपनी छाया से रक्षण
करता था मग छोड़ छला।
=================
तब वो ऊर्जा कौरव दल में
जो भी किंचित छाई थी,
द्रोण के आहत होने से
निश्चय अवनति हीं आई थी।
=================
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
महाभारत युद्ध के समय द्रोणाचार्य की उम्र लगभग चार सौ साल की थी। उनका वर्ण श्यामल था, किंतु सर से कानों तक छूते दुग्ध की भाँति श्वेत केश उनके मुख मंडल की शोभा बढ़ाते थे। अति वृद्ध होने के बावजूद वो युद्ध में सोलह साल के तरुण की भांति हीं रण कौशल का प्रदर्शन कर रहे थे। गुरु द्रोण का पराक्रम ऐसा था कि उनका वध ठीक वैसे हीं असंभव माना जा रहा था जैसे कि सूरज का धरती पर गिर जाना, समुद्र के पानी का सुख जाना। फिर भी जो अनहोनी थी वो तो होकर हीं रही। छल प्रपंच का सहारा लेने वाले दुर्योधन का युद्ध में साथ देने वाले गुरु द्रोण का वध छल द्वारा होना स्वाभाविक हीं था।
===================
कौरव सेना को एक विशाल बरगद सदृश्य रक्षण प्रदान करने वाले गुरु द्रोणाचार्य का जब छल से वध कर दिया गया तब कौरवों की सेना में निराशा का भाव छा गया। कौरव पक्ष के महारथियों के पाँव रण क्षेत्र से उखड़ चले। उस क्षण किसी भी महारथी में युद्ध के मैदान में टिके रहने की क्षमता नहीं रह गई थी । शल्य, कृतवर्मा, कृपाचार्य, शकुनि और स्वयं दुर्योधन आदि भी भयग्रस्त हो युद्ध भूमि छोड़कर भाग खड़े हुए। सबसे आश्चर्य की बात तो ये थी कि महारथी कर्ण भी युद्ध का मैदान छोड़ कर भाग खड़ा हुआ।
=================
धरा   पे   होकर   धारा शायी
गिर पड़ता जब  पीपल  गाँव,
जीव  जंतु  हो  जाते ओझल
तज  के इसके  शीतल छाँव।
=================
जिस तारिणी के बल पे केवट
जलधि   से   भी   लड़ता   है,
अगर  अधर में छिद  पड़े  हों
कब  नौ चालक   अड़ता  है?
=================
जिस योद्धक के शौर्य  सहारे
कौरव   दल  बल   पाता  था,
साहस का वो स्रोत तिरोहित
जिससे   सम्बल  आता  था।
================
कौरव  सारे  हुए थे  विस्मित
ना  कुछ क्षण को सोच सके,
कर्म  असंभव  फलित  हुआ
मन कंपन  निःसंकोच  फले।
=================
रथियों के सं  युद्ध त्याग  कर
भाग    चला    गंधार     पति,
शकुनि का तन कंपित भय से
आतुर   होता    चला   अति।
================
वीर  शल्य  के  उर  में   छाई
सघन भय और गहन निराशा,
सूर्य पुत्र  भी  भाग  चला  था
त्याग पराक्रम धीरज  आशा।
================
द्रोण के सहचर  कृपाचार्य के
समर  क्षेत्र  ना   टिकते  पाँव,
हो  रहा   पलायन   सेना  का
ना दिख पाता था  कोई ठाँव।
================
अश्व   समर    संतप्त    हुए  
अभितप्त हो चले रण  हाथी,
कौरव के प्रतिकूल बह चली
रण  डाकिनी ह्रदय  प्रमाथी।
================
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
कौरव सेना को एक विशाल बरगद सदृश्य रक्षण प्रदान करने वाले गुरु द्रोणाचार्य का जब छल से वध कर दिया गया तब कौरवों की सेना में निराशा का भाव छा गया। कौरव पक्ष के महारथियों के पाँव रण क्षेत्र से उखड़ चले। उस क्षण किसी भी महारथी में युद्ध के मैदान में टिके रहने की क्षमता नहीं रह गई थी । शल्य, कृतवर्मा, कृपाचार्य, शकुनि और स्वयं दुर्योधन आदि भी भयग्रस्त हो युद्ध भूमि छोड़कर भाग खड़े हुए। सबसे आश्चर्य की बात तो ये थी कि महारथी कर्ण भी युद्ध का मैदान छोड़ कर भाग खड़ा हुआ।
कार्य दूत का जो होता है अंगद ने अंजाम दिया ,
अपने स्वामी रामचंद्र के शक्ति का प्रमाण दिया।
कार्य दूत का वही कृष्ण ले दुर्योधन के पास गए,
जैसे कोई अर्णव उदधि खुद प्यासे अन्यास गए।

जब रावण ने अंगद को वानर जैसा उपहास किया,
तब कैसे वानर ने बल से रावण का परिहास किया।
ज्ञानी रावण के विवेक पर दुर्बुद्धि अति भारी थी,
दुर्योधन भी ज्ञान शून्य था सुबुद्धि मति मारी थी।

ऐसा न था श्री कृष्ण की शक्ति अजय का ज्ञान नहीं ,
अभिमानी था मुर्ख नहीं कि हरि से था अंजान नहीं।
कंस कहानी ज्ञात उसे भी मामा ने क्या काम किया,
शिशुओं का हन्ता पापी उसने कैसा दुष्काम किया।

जब पापों का संचय होता धर्म खड़ा होकर रोता था,
मामा कंस का जय होता सत्य पुण्य क्षय खोता था।
कृष्ण पक्ष के कृष्ण रात्रि में कृष्ण अति अँधियारे थे ,
तब विधर्मी कंस संहारक गिरिधर वहीं पधारे थे।

जग के तारण हार श्याम को माता कैसे बचाती थी ,
आँखों में काजल का टीका धर आशीष दिलाती थी।
और कान्हा भी लुकके छिपके माखन दही छुपाते थे ,
मिटटी को मुख में रखकर संपूर्ण ब्रह्मांड दिखाते थे।

कभी गोपी के वस्त्र चुराकर मर्यादा के पाठ पढ़ाए,
पांचाली के वस्त्र बढ़ाकर चीर हरण से उसे बचाए।
इस जग को रचने वाले कभी कहलाये थे माखनचोर,
कभी गोवर्धन पर्वत धारी कभी युद्ध तजते रणछोड़।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
जिस प्रकार अंगद ने रावण के पास जाकर अपने स्वामी मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम चन्द्र के संधि का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था , ठीक वैसे हीं भगवान श्रीकृष्ण भी महाभारत युद्ध शुरू होने से पहले कौरव कुमार दुर्योधन के पास पांडवों की तरफ से  शांति प्रस्ताव लेकर गए थे। एक दूत के रूप में अंगद और श्रीकृष्ण की भूमिका एक सी हीं प्रतीत होती है । परन्तु वस्तुत:  श्रीकृष्ण और अंगद के व्यक्तित्व में जमीन और आसमान का फर्क है । श्रीराम और अंगद के बीच तो अधिपति और प्रतिनिधि का सम्बन्ध था ।  अंगद तो मर्यादा पुरुषोत्तम  श्रीराम के संदेशवाहक मात्र थे  । परन्तु महाभारत के परिप्रेक्ष्य में श्रीकृष्ण पांडवों के सखा , गुरु , स्वामी ,  पथ प्रदर्शक आदि सबकुछ  थे । किस तरह का व्यक्तित्व दुर्योधन को समझाने हेतु प्रस्तुत हुआ था , इसके लिए कृष्ण के चरित्र और  लीलाओं का वर्णन समीचीन होगा ।  कविता के इस भाग में कृष्ण का अवतरण और बाल सुलभ लीलाओं का वर्णन किया गया है ।  प्रस्तुत है दीर्घ कविता  "दुर्योधन कब मिट पाया" का चतुर्थ  भाग।
जब  कान्हा के होठों पे  मुरली  गैया  मुस्काती थीं,
गोपी सारी लाज वाज तज कर दौड़े आ जाती थीं।
किया  प्रेम  इतना  राधा  से कहलाये थे राधेश्याम,
पर भव  सागर तारण हेतू त्याग  चले थे राधे धाम।

पूतना , शकटासुर ,तृणावर्त असुर अति अभिचारी ,
कंस आदि  के  मर्दन कर्ता  कृष्ण अति बलशाली।
वो कान्हा थे योगि राज पर भोगी बनकर नृत्य करें,
जरासंध जब रण को तत्पर भागे रण से कृत्य रचे।

सारंग  धारी   कृष्ण  हरि  ने वत्सासुर संहार किया ,
बकासुर और अघासुर के प्राणों का व्यापार किया।
मात्र  तर्जनी  से हीं तो  गिरि धर ने गिरि उठाया था,
कभी देवाधि पति इंद्र   को घुटनों तले झुकाया था।

जब पापी  कुचक्र  रचे  तब  हीं  वो चक्र चलाते हैं,
कुटिल  दर्प सर्वत्र  फले  तब  दृष्टि  वक्र  उठाते हैं।
उरग जिनसे थर्र थर्र काँपे पर्वत जिनके हाथों नाचे,
इन्द्रदेव भी कंपित होते हैं नतमस्तक जिनके आगे।

एक  हाथ में चक्र हैं  जिनके मुरली मधुर बजाते हैं,
गोवर्धन  धारी डर  कर  भगने  का खेल दिखातें है।
जैसे  गज  शिशु से  कोई  डरने का  खेल रचाता है,
कारक बन कर कर्ता  का कारण से मेल कराता है।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
भगवान श्रीकृष्ण की लीलाएँ अद्भुत हैं। उनसे न केवल स्त्रियाँ , पुरुष अपितु गायें भी अगाध प्रेम करती थीं। लेकिन उनका प्रेम व्यक्ति परक न होकर परहित की भावना से ओत प्रोत था। जिस राधा को वो इतना प्रेम करते थे कि आज भी उन्हें राधेकृष्ण के नाम से पुकारा जाता है। जिस राधा के साथ उनका प्रेम इतना गहरा है कि आज भी मंदिरों में राधा और कॄष्ण की मूर्तियाँ मिल जाती है। वोही श्रीकृष्ण जग के निमित्त अपनी वृहद भूमिका को निभाने हेतू श्रीराधा का त्याग करने में जरा भी नहीं हिचकिचाते हैं। और आश्चर्य की बात तो ये हूं एक बार उन्होंने श्रीराधा का त्याग कर दिया तो जीवन में पीछे मुड़कर फिर कभी नहीं देखा। श्रीराधा की गरिमा भी कम नहीं है। श्रीकृष्ण के द्वारिकाधीश बन जाने के बाद उन्होंने श्रीकृष्ण से किसी भी तरह की कोई अपेक्षा नहीं की, जिस तरह की अपेक्षा सुदामा ने रखी। श्रीकृष्ण का प्रेम अद्भुत था तो श्रीराधा की गरिमा भी कुछ कम नहीं। कविता के इस भाग में भगवान श्रीकृष्ण के बाल्य काल के कुछ लीलाओं का वर्णन किया गया है। प्रस्तुत है दीर्घ कविता दुर्योधन कब मिट पाया का पांचवा भाग।
ऐसे  शक्ति  पुंज  कृष्ण  जब  शिशुपाल  मस्तक हरते थे,
जितने  सारे  वीर  सभा में थे सब चुप कुछ ना कहते थे।
राज    सभा   में  द्रोण, भीष्म थे  कर्ण  तनय  अंशु माली,
एक तथ्य था  निर्विवादित श्याम  श्रेष्ठ   सर्व  बल शाली।


वो   व्याप्त   है   नभ  में जल  में  चल में  थल में भूतल में,
बीत   गया जो   पल   आज जो  आने वाले उस कल में।
उनसे   हीं   बनता  है  जग ये  वो  हीं तो  बसते हैं जग में,
जग के डग डग  में शामिल हैं शामिल जग के रग रग में।


कंस  आदि   जो   नरा  धम  थे  कैसे  क्षण  में    प्राण लिए,
जान  रहा  था  दुर्योधन  पर  मन  में  था  अभि मान लिए।
निज दर्प में पागल था उस क्षण क्या कहता था ज्ञान नही,
दुर्योधन  ना कहता  कुछ भी  कहता था अभिमान  कहीं।


गिरिधर  में   अतुलित  शक्ति  थी  दुर्योधन  ये  जान  रहा,
ज्ञात  कृष्ण  से  लड़ने­  पर  क्या पूतना का परिणाम रहा?
श्रीकृष्ण   से  जो  भिड़ता   था  होता   उसका   त्राण  नहीं ,  
पर  दुर्योधन  पर  मद   भारी था   लेता       संज्ञान   नहीं।


है तथ्य विदित ये क्रोध अगन उर में लेकर हीं जलता था ,
दुर्योधन   के  अव  चेतन  में   सुविचार कब   फलता   था।
पर  निज स्वार्थ  सिद्धि  को  तत्तपर रहता कौरव  कुमार,
वक्त  पड़े   तो  कुटिल   बुद्धि  युक्त   करता  था व्यापार।


अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
जमीर मेरा कहता जो करता रहा था तबतक ,
मिल रहा था मुझ को  क्या  बन के खुद्दार में।

बिकना जरूरी था  देख कर बदल गया,
बिक रहे थे कितने जब देखा अख़बार में।

हौले सीखता गया जो ना थी किताब में ,
दिल पे भारी हो चला दिमाग कारोबार में ।

सच की बातें ठीक है  पर रास्ते थोड़े अलग ,
तुम कह गए हम सह गए थोड़े से व्यापार में।

हाँ नहीं हूँ आजकल मैं जो कभी था कलतलक,
सच में सच पे टिकना ना था मेरे ईख्तियार में।

जमीर से डिग जाने का फ़न भी कुछ कम नहीं,
वक्त क्या है क़ीमत क्या मिल रही बाजार में।

तुम कहो कि जो भी है सच पे हीं कुर्बान हो ,
क्या जरुरी सच जो तेरा सच हीं हों संसार में।

वक्त  से जो लड़ पड़े पर क्या मिला है आपको,
हम तो चुप थे आ गए हैं देख अब सरकार में।
समाज  स्वयं से लड़ने वालों को नहीं बल्कि तटस्थ और चुप रहने वालों को  प्रोत्साहित करता है। या यूँ कहें कि जो अपनी जमीर से समझौता करके समाज में होने वाले अन्याय के प्रति तटस्थ और मूक रहते हैं , वो हीं ऊँचे पदों पे प्रतिष्ठित रहते हैं। यही हकीकत है समाज और तंत्र का।
======
तेरी पर चलती रहे दुकान,
मान गए भई पलटू राम।
======
कभी भतीजा अच्छा लगता,
कभी भतीजा कच्चा लगता,
वोहीं जाने क्या सच्चा लगता,
ताऊ का कब  नया पैगाम ,
अदलू, बदलू, डबलू  राम,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
======
जहर उगलते अपने चाचा,
जहर निगलते अपने चाचा,
नीलकंठ बन छलते चाचा,
अजब गजब है तेरे काम ,
ताऊ चाचा रे तुझे  प्रणाम,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
======
केवल चाचा हीं ना कम है,
भतीजा भी एटम बम है,
कल गरम था आज नरम है,
ये भी कम ना सलटू राम,
भतीजे को भी हो सलाम,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
======
मौसम बदले चाचा बदले,
भतीजे भी कम ना बदले,
पकड़े गर्दन गले भी पड़ले।
क्या बच्चा क्या चाचा जान,
ये भी वो भी पलटू राम,
इनकी चलती रहे दुकान।
======
कभी ईधर को प्यार जताए,
कभी उधर पर कुतर कर खाए,
कब किसपे ये दिल आ जाए,
कभी ईश्क कभी लड़े धड़ाम,
रिश्ते नाते सब कुर्बान,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
======
थूक चाट के बात बना ले,
जो  मित्र था घात लगा ले,
कुर्सी को हीं जात बना ले,
कुर्सी से हीं दुआ सलाम,
मान गए भई पलटू राम,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
======
अहम गरम है भरम यही है,
ना आंखों में शरम कहीं है,
सबकुछ सत्ता धरम यही है,
क्या वादे कैसी है जुबान ,
कुर्सी चिपकू बदलू राम,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
======
चाचा भतीजा की जोड़ी कैसी,
बुआ और बबुआ के जैसी,
लपट कपट कर झटक हो वैसी,
ताक पे रख कर सब सम्मान,
धरम करम इज्जत  ईमान,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
======
अदलू, बदलू ,झबलू राम,
मान  गए भई पलटू राम।
======
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
इस सृष्टि में बदलाहटपन स्वाभाविक है। लेकिन इस बदलाहटपन में भी एक नियमितता है। एक नियत समय पर हीं दिन आता है, रात होती है। एक नियत समय पर हीं मौसम बदलते हैं। क्या हो अगर दिन रात में बदलने लगे? समुद्र सारे नियमों को ताक पर रखकर धरती पर उमड़ने को उतारू हो जाए? सीधी सी बात है , अनिश्चितता का माहौल बन जायेगा l भारतीय राजनीति में कुछ इसी तरह की अनिश्चितता का माहौल बनने लगा है। माना कि राजनीति में स्थाई मित्र और स्थाई शत्रु नहीं होते , परंतु इस अनिश्चितता के माहौल में कुछ तो निश्चितता हो। इस दल बदलू, सत्ता चिपकू और पलटूगिरी से जनता का भला कैसे हो सकता है? प्रस्तुत है मेरी व्ययंगात्मक कविता "मान गए भई पलटू राम"।
तुम कहते हो करूँ पश्चताप,
कि जीवन के प्रति रहा आकर्षित ,
अनगिनत वासनाओं से आसक्ति की ,

मन के पीछे भागा , कभी तन के पीछे भागा ,
कभी कम की चिंता तो कभी धन की भक्ति की। 

करूँ पश्चाताप कि शक्ति के पीछे रहा आसक्त  ,
कभी अनिरा से दूरी , कभी  मदिरा की मज़बूरी  ,
कभी लोभ कभी भोग तो कभी मोह का वियोग ,
पर योग के प्रति विषय-रोध के प्रति रहा निरासक्त?

और मैं सोचता हूँ  पश्चाताप तो करूँ पर किसका ?
उन ईक्छाओं की जो कभी तृप्त  ना हो  सकी?
वो  चाहतें  जो मन में तो थी पर तन में खिल ना सकी?

हाँ हाँ इसका भी अफ़सोस  है मुझे ,
कि मिल ना सका मुझे वो अतुलित धन ,
वो आपार संपदा जिन्हें रचना था मुझे , करना था सृजन। 

और और भी वो बहुत सारी शक्तियां, वो असीम ताकत ,
जिन्हें हासिल करनी थी , जिनका करना था अर्जन। 

मगर अफ़सोस ये कहाँ आकर फंस गया?
कि सुनना था अपने तन की। 
मोक्ष की की बात तो तू अपने पास हीं रख ,
करने दे मुझे मेरे मन की। 

अजय अमिताभ सुमन
अक्सर मंदिर के पुजारी व्यक्ति को जीवन के आसक्ति के प्रति पश्चताप का भाव रख कर ईश्वर से क्षमा प्रार्थी होने की सलाह देते हैं। इनके अनुसार यदि वासना के प्रति निरासक्त होकर ईश्वर से क्षमा याचना की जाए तो मरणोपरांत ऊर्ध्व गति प्राप्त होती है।  व्यक्ति डरकर दबी जुबान से क्षमा मांग तो लेता है परन्तु उसे अपनी अनगिनत  वासनाओं के अतृप्त रहने  का अफसोस होता है। वो पश्चाताप जो केवल जुबाँ से किया गया हो  क्या एक आत्मा के अध्यात्मिक उन्नति में सहायक हो सकता हैं?
झूठ हीं फैलाना कि,सच हीं में यकीनन,
कैसी कैसी बारीकियाँ बाजार के साथ।
औकात पे नजर हैं जज्बात बेअसर हैं ,
शतरंजी चाल बाजियाँ करार के साथ।

दास्ताने क़ुसूर दिखा के क्या मिलेगा,
छिप जातें गुनाह हर अखबार के साथ।
नसीहत-ए-बाजार में आँसू बावक्त आज,
दाम हर दुआ की बीमार के साथ।

दाग जो हैं पैसे से होते बेदाग आज ,
आबरू बिकती दुकानदार के साथ।
सच्ची जुबाँ की है मोल क्या तोल क्या,
गिरवी न माँगे क्या क्या उधार के साथ।

आन में भी क्या है कि शान में भी क्या ,
ना जीत से है मतलब ना हार के साथ।
फायदा नुकसान की हीं बात जानता है,
यही कायदा कानून है बाजार के साथ।

सीख लो बारीकियाँ ,ये कायदा, ये फायदा,
हँसकर भी क्या मिलेगा लाचार के साथ।
बाज़ार में खड़े हो जमीर रख के आना,
चलते नहीं हैं सारे खरीददार के साथ।
खुद को जब खंगाला मैंने,
क्या बोलूँ क्या पाया मैंने?
अति कठिन है मित्र तथ्य वो,
बा मुश्किल ही मैं कहता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

हृदय रुष्ट है कोलाहल में,
जीवन के इस हलाहल में,
अनजाने चेहरे रच रचकर,
खुद हीं से खुद को ठगता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

नेत्र ईश ने सरल दिया था,
प्रीति युक्त मन तरल दिया था,
पर जब जग ने गरल दिया था,
विष प्याले मैं भी रचता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

ज्ञात नहीं मुझे क्या पथ्य है?
इस जीवन का क्या तथ्य है?
कभी सबेरा हो चमकूँ तो ,
कभी साँझ हो मैं ढलता हूँ ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

सुनता हूँ माया है जग तो,
जो साया है छाया डग तो,
पर हो जीत कभी ईक पग तो,
विजय हर्ष को मैं चढ़ता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ ।

छद्म जीत पर तृष्णा जगती,
चिंगारी बन फलती रहती,
मरु स्वपन में हाथ नीर ले,
प्यासा हो हर क्षण गलता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

मन में जो मेरे चलता है ,
आईने में क्या दिखता है?
पर जब तम अंतस खिलता है ,
शब्दों से निज को ढंकता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

जिस पथ का राही था मैं तो,
प्यास रही थी जिसकी मूझको,
निज सत्य का उदघाटन करना,
मुश्किल होता मैं डरता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ ।

जाने राह कौन सी उत्तम,
करता रहता नित मन मंथन,
योग कठिन अति भोग छद्म है,
अक्सर संशय में रहता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ ।

कुछ कहते अंदर को जाओ,
तब जाकर तुम निज को पाओ,
पर मुझमे जग अंदर दिखता ,
इसीलिए बाहर पढ़ता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

अंदर बाहर के उलझन में ,
सुख के दुख के आव्रजन में,
किंचित आस जगे गरजन में,
रात घनेरी पर बढ़ता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।
धुप में  छाँव में , गली हर ठांव में ,
थकते कहाँ थे कदम , मिटटी में गाँव में।

बासों की झुरमुट से , गौरैया लुक  छिप के ,
चुर्र चूर्र के फुर्र फुर्र के, डालों पे रुक रुक के।
कोयल की कु कु और , कौए के काँव में ,  
थकते कहाँ थे कदम , मिटटी में गाँव में।

फूलों की कलियाँ झुक , कहती  थी मुझसे कुछ ,
अड़हुल वल्लरियाँ सुन , भौरें की रुन झुन गुन।
उड़ने  को आतुर  पर , रहते थे  पांव में ,
थकते कहाँ थे कदम , मिटटी में गाँव में।

वो सत्तू की लिट्टी और चोखे का स्वाद   ,
आती है भुन्जे की चटनी की जब याद ।
तब दायें ना सूझे कुछ , भाए ना बाँव में ,
थकते कहाँ थे कदम  मिटटी में गाँव में।

बारिश में अईठां और गरई पकड़ना ,
टेंगडा  के काटे  पे  झट से  उछलना ।
कि हड्डा से बिरनी से पड़ते गिराँव में ,
थकते कहाँ थे कदम  मिटटी में गाँव में।

साईकिल को लंगड़ा कर कैंची चलाते ,
जामुन पर दोल्हा और पाती लगाते।
थक कर सुस्ताते फिर बरगद की छाँव में,
थकते कहाँ थे कदम  मिटटी में गाँव में।

गर्मी में मकई की ऊँची मचाने थी,
जाड़े  में घुर को तपती दलाने  थीं।
चीका की कुश्ती , कबड्डी  की दांव में,
थकते कहाँ थे कदम  मिटटी में गाँव में।

सीसम के छाले से तरकुल मिलाकर ,
लाल होठ करते थे पान  सा चबाकर ,
मस्ती क्या छाती थी कागज के नाँव में
थकते कहाँ थे कदम  मिटटी में गाँव में।

रातों को तारों सा जुगनू की टीम टीम वो,
मेढक की टर्र टर्र जब बारिश की रिमझिम हो।
रुन झुन आवाजें क्या झींगुर के झाव में,
थकते कहाँ थे कदम  मिटटी में गाँव में।

धुप में  छाँव में , गली हर ठांव में ,
थकते कहाँ थे कदम , मिटटी में गाँव में।
इस सृष्टि में हर व्यक्ति को, आजादी अभिव्यक्ति की,
व्यक्ति का निजस्वार्थ फलित हो,नही चाह ये सृष्टि की।
जिस नदिया की नौका जाके,नदिया के हीं धार बहे ,
उस नौका को किधर फ़िक्र कि,कोई ना पतवार रहे?
लहरों से लड़ने भिड़ने में , उस नौका का सम्मान नहीं,
विजय मार्ग के टल जाने से, मंजिल का अवसान नहीं।

जिन्हें चाह है इस जीवन में,स्वर्णिम भोर उजाले  की,
उन  राहों पे स्वागत करते,घटा टोप अन्धियारे भी।
इन घटाटोप अंधियारों का,संज्ञान अति आवश्यक है,
गर तम से मन में घन व्याप्त हो,सारे श्रम निरर्थक है।
आड़ी तिरछी सी गलियों में, लुकछिप रहना त्राण नहीं,
भय के मन में फल जाने से ,भला लुप्त निज ज्ञान कहीं?

इस जीवन में आये हो तो,अरिदल के भी वाण चलेंगे,
जिह्वा से अग्नि  की वर्षा , वाणि  से अपमान फलेंगे।
आंखों में चिंगारी तो क्या, मन मे उनके विष गरल हो,
उनके जैसा ना बन जाना,भाव जगे वो देख सरल हो।
वक्त पड़े तो झुक  जाने में, खोता  क्या सम्मान कहीं?
निज-ह्रदय प्रेम से रहे आप्त,इससे बेहतर उत्थान नहीं।

अजय अमिताभ सुमन
एक व्यक्ति के जीवन में उसकी ईक्क्षानुसार घटनाएँ प्रतिफलित नहीं होती , बल्कि घटनाओं को  प्रतिफलित करने के लिए प्रयास करने पड़ते हैं। समयानुसार झुकना पड़ता है । परिस्थिति के अनुसार  ढ़लना पड़ता है । उपाय के रास्ते अक्सर दृष्टिकोण के परिवर्तित होने पर दृष्टिगोचित होने लगते हैं। बस स्वयं को हर तरह के उपाय के लिए खुला रखना पड़ता है। प्रकृति का यही रहस्य है , अवसान के बाद उदय और श्रम के बाद विश्राम।
जाके कोई क्या पुछे भी,
आदमियत के रास्ते।
क्या पता किन किन हालातों,
से गुजरता आदमी।

चुने किसको हसरतों ,
जरूरतों के दरमियाँ।
एक को कसता है तो,
दुजे से पिसता आदमी।

जोर नहीं चल रहा है,
आदतों पे आदमी का।
बाँधने की घोर कोशिश
और उलझता आदमी।

गलतियाँ करना है फितरत,
कर रहा है आदतन ।
और सबक ये सीखना कि,
दुहराता है आदमी।

वक्त को मुठ्ठी में कसकर,
चल रहा था वो यकीनन,
पर न जाने रेत थी वो,
और फिसलता आदमी।

मानता है ख्वाब दुनिया,
जानता है ख्वाब दुनिया।
और अधूरी ख्वाहिशों का,
ख्वाब  रखता आदमी।

आया हीं क्यों जहान में,
इस बात की खबर नहीं,
इल्ज़ाम तो संगीन है,
और बिखरता आदमी।

"अमिताभ"इसकी हसरतों का,
क्या बताऊं दास्ताँ।
आग में जल खाक बनकर,
राख रखता आदमी।
रे मेरे अनुरागी चित्त मन,
सुन तो ले ठहरो तो ईक क्षण।
क्या है तेरी काम पिपासा,
थोड़ा सा कर ले तू मंथन।

कर मंथन चंचल हर क्षण में,
अहम भाव क्यों है कण कण में,
क्यों पीड़ा मन निज चित वन में,
तुष्ट नहीं फिर भी जीवन में।

सुन पीड़ा का कारण है भय,
इसीलिए करते नित संचय ,
निज पूजन परपीड़न अतिशय,
फिर भी क्या होते निःसंशय?

तो फिर मन तू स्वप्न सजा के,
भांति भांति के कर्म रचा के।
नाम प्राप्त हेतु करते जो,
निज बंधन वर निज छलते हो।

ये जो कति पय बनते  बंधन ,
निज बंधन बंध करते क्रंदन।
अहम भाव आज्ञान है मानो,
बंधन का परिणाम है जानो।

मृग तृष्णा सी नाम पिपासा,
वृथा प्यास की रखते आशा।
जग से ना अनुराग रचाओ ,
अहम त्यज्य वैराग सजाओ।

अभिमान जगे ना मंडित करना,
अज्ञान फले तो दंडित करना।
मृग तृष्णा की मात्र दवा है,
मन से मन को खंडित करना।

जो गुजर गया सो गुजर गया,
ना आने वाले कल का चिंतन।
रे मेरे अनुरागी चित्त मन,
सुन तो ले ठहरो तो ईक क्षण।
ये कविता आत्मा और मन से बीच संवाद पर आधारित है। इस कविता में आत्मा मन को मन के स्वरुप से अवगत कराते हुए मन के पार जाने का मार्ग सुझाती है ।
क्या रखा है वक्त गँवाने,
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।

पुरावृत्त के पृष्ठों में
अंकित कैसे व्यवहार हुए?
तेरे जो पूर्वज थे जाने
कितने अत्याचार सहे?

बीत गई काली रातें अब
क्या रखना निज ध्यान में?
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।

इतिहास का ध्येय मात्र
इतना त्रुटि से बच पाओ,
चूक हुई जो पुरखों से
तुम भी करके ना पछताओ।

इतिवृत्त इस निमित्त नहीं कि
गरल भरो निज प्राण में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।

भूतकाल से वर्तमान की
देखो कितनी राह बड़ी है ,
त्यागो ईर्ष्या अग्नि जानो
क्षमा दया की चाह बड़ी है।

प्रेम राग का मार्ग बनाओ
क्या मत्सर विष पान में?  
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।

क्या रखा है वक्त गँवाने
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।

अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
इतिहास गवाह है , हमारे देशवासियों ने गुलामी की जंजीरों को लंबे अरसे तक सहा है। लेकिन इतिहास के इन काले अध्यायों को पढ़कर हृदय में नफरत की अग्नि को प्रजवल्लित करते रहने से क्या फायदा? बदलते हुए समय के साथ क्षमा का भाव जगाना हीं श्रेयकर है।  हमारे पूर्वजों द्वारा की गई गलतियों के प्रति सावधान होना श्रेयकर है ना कि हृदय को प्रतिशोध की ज्वाला में झुलसाते रहना । प्रस्तुत है मेरी कविता "वर्तमान से वक्त बचा लो तुम निज के निर्माण में" का चतुर्थ भाग।
=======
क्या रखा है वक्त गँवाने
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=======
स्व संशय पर आत्म प्रशंसा
अति अपेक्षित  होती है,
तभी आवश्यक श्लाघा की
प्रज्ञा अनपेक्षित सोती है।
=======
दुर्बलता हीं तो परिलक्षित
निज का निज से गान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=======
जो कहते हो वो करते हो
जो करते हो वो बनते हो,
तेरे वाक्य जो तुझसे बनते
वैसा हीं जीवन गढ़ते हो।
========
सोचो प्राप्त हुआ क्या तुझको
औरों के अपमान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=========
तेरी जिह्वा, तेरी बुद्धि ,
तेरी प्रज्ञा और  विचार,
जैसा भी तुम धारण करते
वैसा हीं रचते संसार।
=========
क्या गर्भित करते हो क्या
धारण करते निज प्राण में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=========
क्या रखा है वक्त गँवाने
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=========
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
प्रतिकूल परिस्थितियों के लिए संसार को कोसना सर्वथा व्यर्थ है। संसार ना तो किसी का दुश्मन है और ना हीं किसी का मित्र। संसार का आपके प्रति अनुकूल या प्रतिकूल बने रहना बिल्कुल आप पर निर्भर करता है। महत्वपूर्ण बात ये है कि आप स्वयं के लिए किस तरह के संसार का चुनाव  करते हैं। प्रस्तुत है मेरी कविता "वर्तमान से वक्त बचा लो तुम निज के निर्माण में" का तृतीय भाग।
=====
क्या रखा है वक्त गँवाने
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=====
धर्मग्रंथ के अंकित अक्षर
परम सत्य है परम तथ्य है,
पर क्या तुम वैसा कर लेते
निर्देशित जो धरम कथ्य है?
=====
अक्षर के वाचन में क्या है
तोते जैसे गान में?
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=====
दिनकर का पूजन करने से
तेज नहीं संचित होता ,
धर्म ग्रन्थ अर्चन करने से
अक्ल नहीं अर्जित होता।
=====
मात्र बुद्धि की बात नहीं
विवर्द्धन कर निज ज्ञान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=====
जिस ईश्वर की करते बातें
देखो सृष्टि रचने में,
पुरुषार्थ कितना लगता है
इस जीवन को गढ़ने में।
=====
कुछ तो गरिमा लाओ निज में
क्या बाहर गुणगान में?
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=====
क्या रखा है वक्त गँवाने
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
=====
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
धर्म ग्रंथों के प्रति श्रद्धा का भाव रखना सराहनीय  हैं। लेकिन इन धार्मिक ग्रंथों के प्रति वैसी श्रद्धा का क्या महत्व जब आपके व्यवहार इनके द्वारा सुझाए गए रास्तों के अनुरूप नहीं हो? आपके धार्मिक ग्रंथ मात्र पूजन करने के निमित्त नहीं हैं? क्या हीं अच्छा हो कि इन ग्रंथों द्वारा सुझाए गए मार्ग का अनुपालन कर आप स्वयं हीं श्रद्धा के पात्र बन जाएं। प्रस्तुत है मेरी कविता "वर्तमान से वक्त बचा लो तुम निज के निर्माण में" का द्वितीय भाग।
==========
क्या रखा है वक्त गँवाने
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
==========
पूर्व अतीत की चर्चा कर
क्या रखा गर्वित होने में?
पुरखों के खड्गाघात जता
क्या रखा हर्षित होने में?
भुजा क्षीण तो फिर क्या रखा
पुरावृत्त अभिमान में?
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
==========
कुछ परिजन के सुरमा होने
से कुछ पल हीं बल मिलता,
निज हाथों से उद्यम रचने
पर अभिलाषित फल मिलता।
करो कर्म या कल्प गवां
उन परिजन के व्याख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
==========
दूजों से निज ध्यान हटा
निज पे थोड़ा श्रम कर लेते,
दूजे कर पाये जो कुछ भी
क्या तुम वो ना वर लेते ?
शक्ति, बुद्धि, मेधा, ऊर्जा
ना कुछ कम परिमाण में।
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
==========
क्या रखा है वक्त गँवाने
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
==========
अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
अपनी समृद्ध ऐतिहासिक विरासत पर नाज करना किसको अच्छा नहीं लगता? परंतु इसका क्या औचित्य जब आपका व्यक्तित्व आपके पुरखों के विरासत से मेल नहीं खाता हो। आपके सांस्कृतिक विरासत आपकी कमियों को छुपाने के लिए तो नहीं बने हैं। अपनी सांस्कृतिक विरासत का महिमा मंडन करने से तो बेहतर ये हैं कि आप स्वयं पर थोड़ा श्रम कर उन चारित्रिक ऊंचाइयों को छू लेने का प्रयास करें जो कभी आपके पुरखों ने अपने पुरुषार्थ से छुआ था। प्रस्तुत है मेरी कविता "वर्तमान से वक्त बचा लो तुम निज के निर्माण में" का प्रथम भाग।
==============
क्या रखा है वक्त गँवाने
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
==============
अर्धसत्य पर कथ्य क्या हो
वाद और प्रतिवाद कैसा?
तथ्य का अनुमान क्या हो
ज्ञान क्या संवाद कैसा?
==============
प्राप्त क्या बिन शोध के
बिन बोध के अज्ञान में ?
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
==============
जीवन है तो प्रेम मिलेगा
नफरत के भी हाले होंगे ,
अमृत का भी पान मिलेगा
जहर उगलते प्याले होंगे ,
==============
समता का तू भाव जगा
क्या हार मिले सम्मान में?
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
==============
जो बिता वो भूले नहीं
भय है उससे जो आएगा ,
कर्म रचाता मानव जैसा
वैसा हीं फल पायेगा।
==============
यही एक है अटल सत्य
कि रचा बसा लो प्राण में ,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
==============
क्या रखा है वक्त गँवाने
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
==============
अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
विवाद अक्सर वहीं होता है, जहां ज्ञान नहीं अपितु अज्ञान का वास होता है। जहाँ ज्ञान की प्रत्यक्ष अनुभूति  होती है, वहाँ  वाद, विवाद या प्रतिवाद क्या स्थान ?  आदमी के हाथों में  वर्तमान समय के अलावा कुछ भी नहीं होता। बेहतर तो ये है कि इस अनमोल पूंजी को  वाद, प्रतिवाद और विवाद में बर्बाद करने के बजाय अर्थयुक्त संवाद में लगाया जाए, ताकि किसी अर्थपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके।
मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर,
फ़िज़ा में बढ़ता धुँआ है ,
और थोड़ा सा जहर।
--------
मचा हुआ है सड़कों  पे ,
वाहनों का शोर,
बुलडोजरों की गड़गड़ से,
भरी हुई भोर।
--------
अब माटी की सड़कों पे ,
कंक्रीट की नई लहर ,
मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर।
---------
मुर्गे के बांग से होती ,
दिन की शुरुआत थी,
तब घर घर में भूसा था ,
भैसों की नाद थी।
--------
अब गाएँ भी बछड़े भी ,
दिखते ना एक प्रहर,
मेरे गाँव में होने लगा है ,
शामिल थोड़ा शहर।
--------
तब बैलों के गर्दन में ,
घंटी गीत गाती थी ,
बागों में कोयल तब कैसा ,
कुक सुनाती थी।
--------
अब बगिया में कोयल ना ,
महुआ ना कटहर,  
मेरे गाँव में होने लगा है ,
शामिल थोड़ा शहर।
--------
पहले सरसों के दाने सब ,
खेतों में छाते थे,
मटर की छीमी पौधों में ,
भर भर कर आते थे।
--------
अब खोया है पत्थरों में ,
मक्का और अरहर,
मेरे गाँव में होने लगा है  ,
शामिल थोड़ा शहर।
--------
महुआ के दानों  की  ,
खुशबू  की बात  क्या,
आमों के मंजर वो ,
झूमते दिन रात क्या।
--------
अब सरसों की कलियों में ,
गायन ना वो लहर,
मेरे गाँव में होने लगा है  ,
शामिल थोड़ा शहर।
--------
वो पानी में छप छप ,
कर  गरई पकड़ना ,
खेतों के जोतनी में,
हेंगी  पर   चलना।
--------
अब खेतों के रोपनी में ,
मोटर और  ट्रेक्टर,
मेरे गाँव में होने लगा है ,
शामिल थोड़ा शहर।
--------
फ़िज़ा में बढ़ता धुँआ है ,
और थोड़ा सा जहर।
मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर।
--------
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
इस सृष्टि में कोई भी वस्तु  बिना कीमत के नहीं आती, विकास भी नहीं। अभी कुछ दिन पहले एक पारिवारिक उत्सव में शरीक होने के लिए गाँव गया था। सोचा था शहर की दौड़ धूप वाली जिंदगी से दूर एक शांति भरे माहौल में जा रहा हूँ। सोचा था गाँव के खेतों में हरियाली के दर्शन होंगे। सोचा था सुबह सुबह मुर्गे की बाँग सुनाई देगी, कोयल की कुक और चिड़ियों की चहचहाहट  सुनाई पड़ेगी। आम, महुए, अमरूद और कटहल के पेड़ों पर उनके फल दिखाई पड़ेंगे। परंतु अनुभूति इसके ठीक विपरीत हुई। शहरों की प्रगति का असर शायद गाँवों पर पड़ना शुरू हो गया है। इस कविता के माध्यम से मैं अपनी इन्हीं अनुभूतियों को साझा कर रहा हूँ।
सत्य भाष पर जब भी मानव,
देता रहता अतुलित जोर।
समझो मिथ्या हुई है हावी,
और हुआ है सत कमजोर।

अजय अमिताभ सुमन
युवराज हे क्या कारण, क्यों खोये निज विश्वास?
मुखमंडल पे श्यामल बादल ,क्यूँ तुम हुए निराश?
चुप चाप  खोये  से रहते ,ये  कैसा कौतुक  है?
इस राष्ट्र के भावी शासक,पे आया क्या दुःख है?

आप  मंत्री वर  बुद्धि ज्ञानी ,मैं ज्ञान आयु में आधा ,
ना निराश हूँ लेकिन दिल में,सिंचित है छोटी एक बाधा.
पर आपसे कह दूँ ऐसे ,कैसे थोड़ा सा घबड़ाऊँ
पितातुल्य हैं श्रेयकर मेरे,इसीलिए थोड़ा सकुचाऊँ .     

अहो कुँवर मुझसे कहने में, आन पड़ी ये कैसी बाधा?
जो भी विपदा तेरी राजन, हर लूँगा है मेरा वादा .
तब जाकर थोड़ा सकुचा के, कहता है युव राज,
मेरे  दिल पे एक तरुणी  का, चलने लगा है राज .

वो तरुणी  मेरे मन पर ,हर दम यूँ छाई रहती है ,
पर उसको ना पाऊँ मैं,किंचित परछाई लगती है.
हे मंत्री वर उस तरुणी का, कैसे भी पहचान करें,
उसी प्रेम का राही मैं हूँ, इसका एक निदान करें .

नाम देश ना ज्ञात कुँवर को , पर तदवीर बताया,
आठ साल की कन्या का,उनको तस्वीर दिखाया.
उस तरुणी के मृदु चित्र , का मंत्री ने संज्ञान लिया ,
विस्मित होकर बोले फिर, ये कैसा अभियान दिया .

अहो कुँवर तेरा भी कैसा,अद्भुत है  ये काम
ये तस्वीर तुम्हारी हीं,क्या वांछित है परिणाम?
तेरी माता को पुत्र था, पुत्री की भी चाहत थी ,
एक कुँवर से तुष्ट नहीं न, मात्र पुत्र से राहत थी .

चाहत जो थी पुत्री की , माता ने यूँ साकार किया,
नथुनी लहंगे सजा सजा तुझे ,पुत्री का आकार दिया.
छिपा कहीं रखा था जिसको, उस पुत्री का चित्र यही है,
तुम प्रेम में पड़ गये खुद के , उलझन ये विचित्र यही है .

उस कन्या को कहो कहाँ, कैसे तुझको ले आऊं मैं ?
अद्भुत माया ईश्वर की , तुझको कैसे समझाऊँ मैं ?
तुम्हीं कहो ये चित्र सही पर , ये चित्र तो सही नहीं ,
मन का प्रेम तो सच्चा तेरा , पर प्रेम वो कहीं नहीं .

कुँवर  प्रेम  ये  तेरा वैसा  , जैसा मैं जग से करता हूँ ,
खुद हीं से मैं निर्मित करता खुद हीं में विस्मित रहता हूँ .        
मनोभाव तुम्हारा हीं ठगता ,इससे  हीं व्याप्त रहा जग तो ,  
हाँ ये अपना पर सपना है,पर सपना  प्राप्त हुआ किसको?
ये कविता एक बुजुर्ग , बुद्धिमान मंत्री और उसके एक अविवाहित राजकुमार के बीच वार्तालाप पर आधारित है. राजकुमार हताशा की स्थिती में महल के प्राचीर पर बैठा है . मंत्री जब राजकुमार से हताशा का कारण पूछते हैं , तब राजकुमार उनको कारण बताता है. फिर उत्तर देते हुए मंत्री राजकुमार की हताशा और इस जग के मिथ्यापन के बीच समानता को कैसे उजागर करते हैं, आइये देखते हैं इस कविता में .
राशन   भाषण  का  आश्वासन 
देकर कर  बेगार  खा गई।
रोजी रोटी लक्कड़ झक्कड़ खप्पड़
सब सरकार खा गई।
 
देश   हमारा   है    खतरे   में,  
कह    जंजीर    लगाती   है।
बचे   हुए   थे  अब तक जितने,
हौले से अधिकार खा गई।

खो खो  के घर  बार जब अपना ,
जनता  जोर  लगाती है।
सब्ज बाग से  सपने देकर ,
सबके  घर  परिवार  खा गई।

सब्ज  बाग  के  सपने    की   भी, 
बात  नहीं  पूछो   भैया।
कहती  बारिश बहुत हुई है,
सेतु, सड़क, किवाड़  खा  गई।

खबर उसी की शहर उसी के ,
दवा उसी की  जहर उसी  के,
जफ़र उसी की असर बसर भी
करके सब लाचार खा गई।

कौन  झूठ से  लेवे   पंगा ,
हक    वाले   सब   मुश्किल में।
सच में झोल बहुत हैं प्यारे ,
नुक्कड़ और बाजार खा गई।

देखो  धुल  बहुत शासन   में ,
हड्डी लक्कड़  भी ना छोड़े।
फाईलों   में  दीमक  छाई  ,
सब  के सब  मक्कार खा गई। 

जाए थाने  कौन सी साहब,
जनता रपट लिखाए तो क्या?
सच की कीमत बहुत बड़ी है,
सच खबर अखबार खा गई।

हाकिम जो कुछ भी कहता है,
तूम तो पूँछ हिलाओ भाई,
हश्र  हुआ क्या खुद्दारों का ,
कैसे  सब  सरकार  खा  गई।

रोजी  रोटी  लक्कड़  झक्कड़ ,
खप्पड़ सब सरकार खा गई।
सचमुच सब सरकार खा गईं,
सचमुच सब सरकार खा गईं।

अजय अमिताभ सुमन
क्या क्या काम बताओगे तुम,
राम नाम पे राम नाम पे?
अपना काम चलाओगे तुम,
राम नाम पे राम नाम पे?
---------
डीजल का भी दाम बढ़ा है,
धनिया ,भिंडी भाव चढ़ा है।
कुछ तो राशन सस्ता कर दो ,
राम नाम पे, राम नाम पे।
----------
कहने को तो छोटी रोटी,
पर खुद पर जब आ जाये।
सिंहासन ना चल पाता फिर ,
राम नाम पे राम नाम पे।
----------
पूजा भक्ति बहुत भली पर,
रोजी रोटी काम दिखाओ।
क्या क्या  चुप कराओगे तुम ,
राम नाम पे राम नाम पे।
-----------
माना जनता बहली जाती,
कुछ दिन काम चलाते जाओ।
पर कब तक तुम फुसलाओगे,
राम नाम पे राम नाम पे?
-----------
अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
मर्यादा पालन करने की शिक्षा लेनी हो तो प्रभु श्रीराम से बेहतर कोई उदाहरण नहीं हो सकता। कौन सी ऐसी मर्यादा थी जिसका पालन उन्होंने नहीं किया ? जनहित को उन्होंने  हमेशा निज हित सर्वदा उपर रखा। परंतु कुछ संस्थाएं उनके नाम का उपयोग निजस्वार्थ सिद्धि हेतू कर रही हैं। निजहित को जनहित के उपर रखना उनके द्वारा अपनाये गए आदर्शो के विपरीत है। राम नाम का उपयोग निजस्वार्थ सिद्धि हेतु करने की प्रवृत्ति  के विरुद्ध प्रस्तुत है मेरी कविता "क्या क्या काम बताओगे तुम"।
-------
साँप की हँसी होती कैसी,
शोक मुदित पिशाच के जैसी।
जब देश पे दाग लगा हो,
रक्त पिपासु काग लगा हो।
--------
जब अपने हीं भाग रहे हो,
नर अंतर यम जाग रहे हो।
नारी के तन करते टुकड़े,
बच्चे भय से रहते अकड़े।
--------
जब अपने घर छोड़ के भागे,
बंजारे बन फिरे अभागे।
और इनकी बात चली तब,
बंजारों की बात चली जब।
--------
तब कोई जो हँस सकता हो,
विषदंतों से डंस सकता हो।
जिनके उर में दया नहीं हो,
ममता करुणा हया नहीं हो।
--------
जो नफरत की समझे भाषा,
पीड़ा में वोटों की आशा।
चंड प्रचंड अभिशाप के जैसी,
ऐसे नरपशु आप के जैसी।
--------
अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
जब देश के किसी हिस्से में हिंसा की आग भड़की हो , अपने हीं देश के वासी अपना घर छोड़ने को मजबूर हो गए हो  और जब अपने हीं देश मे पराये बन गए इन बंजारों की बात की जाए तो क्या किसी व्यक्ति के लिए ये हँसने या आलोचना करने का अवसर हो सकता है? ऐसे व्यक्ति को जो इन परिस्थितियों में भी विष वमन करने से नहीं चूकते  क्या इन्हें  सर्प की उपाधि देना अनुचित है ? ऐसे हीं महान विभूतियों के चरण कमलों में सादर नमन करती हुई प्रस्तुत है मेरी व्ययंगात्मक कविता "साँप की हँसी होती कैसी"?
फिल्म वास्ते एक दिन मैंने,
किया जो टेलीफोन।
बजने घंटी ट्रिंग ट्रिंग औ,
पूछा है भई कौन ?

पूछा है भई कौन कि,
तीन सीट क्या खाली है?
मैं हूँ ये मेरी बीबी है और,
साथ में मेरे साली है ।

उसने कहा सिर्फ तीन की,
क्यूं करते हो बात ?
पुरी जगह ही खाली है,
घर बार लाओ जनाब।

परिवार लाओ साथ कि,
सुनके खड़े हो गए कान।
एक बात है ईक्छित मुझको,
  क्षमा करे श्रीमान।

क्षमा करे श्रीमान कि सुना,
होती अतुलित भीड़।
निश्चिन्त हो श्रीमान तुम कैसे,
इतने धीर गंभीर?

होती अतुलित भीड़ है बेशक,
तुम मेरे मेहमान।
आ जाओ मैं प्रेत अकेला,
घर मेरा शमशान।

अजय अमिताभ सुमन: सर्वाधिकार सुरक्षित
पुराने जमाने में टेलीफोन लगाओ कहीं और थे , और टेलीफोन कहीं और लग जाता था . इसी बात को हल्के फुल्के ढंग से मैंने इस कविता में दिखाया है.

— The End —