जो तुम चिर प्रतीक्षित सहचर मैं ये ज्ञात कराता हूँ,
हर्ष तुम्हे होगा निश्चय ही प्रियकर बात बताता हूँ।
तुमसे पहले तेरे शत्रु का शीश विच्छेदन कर धड़ से,
कटे मुंड अर्पित करता हूँ अधम शत्रु का निज कर से।
सुन मित्र की बातें दुर्योधन के मुख पे मुस्कान फली,
मनोवांछित सुनने को हीं किंचित उसमें थी जान बची।
कैसी भी थी काया उसकी कैसी भी वो जीर्ण बची ,
पर मन के अंतरतम में तो थोड़ी आशा क्षीण बची।
क्या कर सकता अश्वत्थामा कुरु कुंवर को ज्ञात रहा,
कैसे कैसे अस्त्र शस्त्र में द्रोण पुत्र निष्णात रहा।
स्मृति में याद आ रहा जब गुरु द्रोण का शीश कटा ,
धृष्टदयुम्न के हाथों ने था कैसा वो दुष्कर्म रचा।
जब शल्य के उर में छाई थी शंका भय और निराशा,
और कर्ण भी भाग चला था त्याग वीरता और आशा।
जब सूर्यपुत्र कृतवर्मा के समर क्षेत्र ना टिकते पाँव,
सेना सारी भाग चली ना दुर्योधन को दिखता ठांव।
द्रोणाचार्य के मर जाने पर कैसा वो नैराश्य मचा था,
कृपाचार्य भी भाग चले थे दुर्योधन भी भाग चला था।
जब कौरवों में मचा हुआ था घोर निराशा हाहाकार,
अश्वत्थामा पर लगा हुआ था शत्रु का करने संहार।
अति शक्ति संचय कर उसने तब निज हाथ बढ़ाया,
पाँच कटे हुए नर मस्तक थे निज हाथ दबाया।
पीपल के पत्तों जैसे थे सर सब फुट पड़े थे वो,
वो पांडव के सर ना हो सकते ऐसे टूट पड़े थे जो ।
दुर्योधन के मन में क्षण को जो भी थोड़ी आस जगी,
मरने मरने को हतभागी पर किंचित थी श्वांस फली।
धुल धूसरित होने को थे स्वप्न दृश ज्यो दृश्य जगे ,
शंका के अंधियारे बादल आ आके थे फले फुले।
माना भीम नहीं था ऐसा कि मेरे मन को वो भाये ,
और नहीं खुद पे मैं उसके पड़ने देता था साए।
माना उसकी मात्र उपस्थिति मन को मेरे जलाती थी,
देख देख ना सो पाता था दर्पोंन्नत जो छाती थी।
पर उसके तन के बल को भी मै जो थोड़ा सा जानू ,
इतनी बार लड़ा हूँ उससे कुछ तो मैं भी पहचानू ।
क्या भीम का सर भी ऐसे हो सकता इतना कोमल?
और पार्थ की शक्ति कैसे हो सकती ऐसे ओझल?
अश्वत्थामा मित्र तुम्हारी शक्ति अजय का ज्ञान मुझे,
जो कुछ तुम कर सकते हो उसका है अभिमान मुझे।
पर युद्धिष्ठिर और नकुल है वासुदेव के रक्षण में,
किस भांति तुम जीत गए जीवन के उनके भक्षण में?
तिमिर घोर अंधेरा छाया निश्चित कोई भूल हुई है,
निश्चित हीं किस्मत में मेरे धँसी हुई सी शूल हुई है।
फिर दीर्घ स्वांस लेकर दुर्योधन हौले से ये बोला,
है चूक नहीं तेरी किंचित पर ये कैसा कर डाला?
इतने कोमल नर मुंड ना पांडव के हो सकते हैं?
पांडव पुत्रों के कपाल ऐसे कच्चे हो सकते हैं।
ये कपाल ना पांडव के जो आ जाए यूँ तेरे हाथ,
आसां ना संधान लक्ष्य का ना आये वो तेरे हाथ।
थे दुर्योधन के मन के शंका बादल न यूँ निराधार,
अनुभव जनित तथ्य घटित ना कोई वहम विचार।
दुर्योधन के इस वाक्य से सत्य हुआ ये उद्घाटित,
पांडव पुत्रों का हनन हुआ यही तथ्य था सत्यापित।
ये जान कर अश्वत्थामा उछल पड़ा था भूपर ऐसे ,
जैसे आन पड़ी बिजली उसके हीं मस्तक पर जैसे।
क्षण को पैरों के नीचे की धरती हिलती जान पड़ी ,
जो समक्ष था आँखों के उड़ती उड़ती सी भान पड़ी।
शायद पांडव के जीवन में कुछ क्षण और बचे होंगे,
या उसके हीं कर्मों ने दुर्भाग्य दोष रचे होंगे।
या उसकी प्रज्ञा को घेरे प्रतिशोध की ज्वाला थी,
लक्ष्य भेद ना कर पाया किस्मत में विष प्याला थी।
ऐसी भूल हुई उससे थी क्षण को ना विश्वास हुआ,
लक्ष्य चूक सी लगती थी गलती का एहसास हुआ।
पल को तो हताश हुआ था पर संभला था एक पल में ,
जिसकी आस नहीं थी उसको प्राप्त हुआ था फल में।
जिस कृत्य से धर्म राज ने गुरु द्रोण संहार किया ,
सही हुआ सब जिन्दे हैं ना सरल मृत्यु स्वीकार हुआ ।
दुर्योधन हे मित्र कहें क्या पांडव को था ज्ञात नहीं,
मैं अबतक हीं तो जिंदा था इससे पांडव अज्ञात नहीं।
बड़े धर्म की भाषा कहते नाहक गौरव गाथा कहते,
किस प्रज्ञा से अर्द्ध सत्य को जिह्वा पे धारण करते।
जो गुरु खुद से ज्यादा भरोसा धर्म राज पे करते थे,
पिता तुल्य गुरु द्रोण से कैसे धर्मराज छल रचते थे।
और धृष्टद्युम्न वो पापी कैसा योद्धा पे संहार किया,
पिता द्रोण निःशस्त्र हुए थे और सर पे प्रहार किया?
हे मित्र दुर्योधन इस बात की ना पीड़ा किंचित मुझको,
पिता युद्ध में योद्धा थे योद्धा की गति मिली उनको।
पर जिस छल से धर्म राज ने गुरु द्रोण संहार किया,
अब भी कहलाते धर्मराज पर दानव सा आचार किया।
मैंने क्या अधर्म किया और पांडव नें क्या धर्म किया,
जो भी किया था धर्मराज ने किंचित पशुवत धर्म किया।
भीष्म पितामह गुरु द्रोण के ऐसे वध करने के बाद,
सो सकते थे पांडव कैसे हो सकते थे क्यों आबाद।
कैसा धर्म विवेचन उनका उल्लेखित वो न्याय विधान,
जो दुष्कर्म रचे जयद्रथ ने पिता कर रहे थे भुगतान।
गर दुष्कृत्य रचाकर कोई खुद को कह पाता हो वीर ,
न्याय विवेचन में निश्चित हीं बाधा पड़ी हुई गंभीर।
अब जिस पीड़ा को हृदय लिए अश्वत्थामा चलता है ,
ये देख तुष्टि हो जाएगी वो पांडव में भी फलता है ।
पितृ घात के पितृ ऋण से कुछ तो पीड़ा कम होगी ,
धर्म राज से अश्रु नयन से हृदय अग्नि कुछ नम होगी।
अति पीड़ा होती थी उसको पर मन में हर्षाता था,
हार गया था पांडव से पर दुर्योधन मुस्काता था।
हे अश्वत्थामा मेरे उर को भी कुछ ठंडक आती है ,
टूट गया है तन मन मेरा पर दर्पोंनत्त छाती है।
तुमने जो पुरुषार्थ किया निश्चित गर्वित होता हूँ,
पर जिस कारण तू होता न उस कारण होता हूँ।
तू हँसता तेरे कारण से मेरे निज पर कारण हैं ,
जैसे हर नर भिन्न भिन्न जैसे अक्षर उच्चारण है।
कदा कदा हीं पूण्य भाव किंचित जो मन में आते थे,
सोच पितृ संग अन्याय हुए ना सिंचित हीं हो पाते थे।
जब माता के नेत्र दृष्टि गोचित उर में ईर्षा होती,
तन में मन में तपन घोर अंगारों की वर्षा होती।
बचपन से मैंने पांडव को कभी नहीं भ्राता माना,
शकुनि मामा से अक्सर हीं सहता रहता था ताना।
जिसको हठधर्मी कह कहकर आजीवन अपमान दिया,
उर में भर इर्ष्या की ज्वाला और मन में अभिमान दिया।
जो जीवन भर भीष्म ताप से दग्ध आग को सहता था,
पाप पुण्य की बात भला बालक में कैसे फलता था?
तन मन में लगी हुई थी प्रतिशोध की जो ज्वाला ,
पांडव सारे झुलस गए पीकर मेरे विष की हाला।
ये तथ्य सत्य है दुर्योधन ने अनगिनत अनाचार सहे,
धर्म पूण्य की बात वृथा कैसे उससे धर्माचार फले ?
हाँ पिता रहे आजन्म अंध ना न्याय युक्त फल पाते थे ,
कहने को आतुर सकल रहे पर ना कुछ भी कह पाते थे।
ना कुछ सहना ना कुछ कहना ये कैसी लाचारी थी ,
वो विदुर नीति आड़े आती अक्सर वो विपदा भारी थी।
वो जरासंध जिससे डरकर कान्हा मथुरा रण छोड़ चले,
वो कर्ण सम्मुख था नतमस्तक सोचो कैसा वो वीर अहे।
ऐसे वीर से जीवन भर जाति का ज्ञान बताते थे,
ना कर्म क्षत्रिय का करते नाहक़ अभिमान सजाते थे।
जो जीवन भर हाय हाय जाति से ही पछताता था,
उस कर्ण मित्र के साये में पूण्य कहाँ फल पाता था।
पास एक था कर्ण मित्र भी न्याय नहीं मिल पाता था?
पिता दृश थी विवशता ना सह पाता कह पाता था ।
ऐसों के बीच रहा जो भी उससे क्या धर्म विजय होगा,
जो आग के साए में जीता तो न्याय पूण्य का क्षय होगा।
दुर्बुधि दुर्मुख कहके जिसका सबने उपहास किया ,
अग्न आप्त हो जाए किंचित बस थोड़ा प्रयास किया।
अग्न प्रज्वल्लित तबसे हीं जबसे निजघर पांडव आये,
भीष्म पितामह तात विदुर के प्राणों के बन के साये।
जब बन बेचारे महल पधारे थे सारे वनवासी पांडव ,
अंदेश तब फलित हुआ था आगे होने वाला तांडव।
जभी पिता हो प्रेमासक्त अर्जुन को गले लगाते थे,
मेरे तन में मन मे क्षण अंगार फलित हो जाते थे।
जब न्याय नाम पे मेरे पिता से जैसे पुरा राज लिए ,
वो राज्य के थे अधिकारी पर ना सर पे ताज दिए।
अन्याय हुआ था मेरे तात से डर था वैसा न हो जाए,
विदुर नीति के मुझपे भी किंचित न पड़ जाए साए।
डर तो था पहले हीं मन में और फलित हो जाता था,
भीम दुष्ट के कुकर्मों से और त्वरित हो जाता था।
अन्याय त्रस्त था तभी भीम को मैंने भीषण तरल दिया ,
मुश्किल से बहला फुसला था महाचंड को गरल दिया।
पर बच निकला भीम भाग्य से तो छल से अघात दिया,
लक्षागृह की रचना की थी फिर भीषण प्रतिघात किया।
बल से ना पा सकता था छल से हीं बेशक काम किया ,
जो मेरे तात का सपना था कबसे बेशक सकाम किया।
दुर्योधन मनमानी करता था अभिमानी माना मैंने ,
पर दूध धुले भी पांडव ना थे सच में हीं पहचाना मैंने।
क्या जीवन रचनेवाला कभी सोच के जीवन रचता है,
कोई पुण्य प्रतापी कोई पाप अगन ले हीं फलता है।
कौरव पांडव सब कटे मरे क्या यही मात्र था प्रयोजन ,
रचने वाले ने क्या सोच के किया युद्ध का आयोजन ?
क्या पांडव सारे धर्मनिष्ठ और हम पापी थे बचपन से ?
सारे कुकर्म फला करते क्या कौरव से लड़कपन से ?
जिस खेल को खेल खेल में पांडव खेला करते थे ,
आग जलाकर बादल बनकर अग्नि वर्षा करते थे।
हे मित्र कदापि ज्ञात तुम्हे भी माता के हम भी प्यारे।
माता मेरी धर्मनिष्ठ फिर क्यों हम आँखों के तारे ?
धर्म शेष कुछ मुझमे भी जो साथ रहा था मित्र कर्ण ,
पांडव के मामा शल्य कहो क्यों साथ रहे थे दुर्योधन?
अश्वत्थामा मित्र सुनो हे बात तुझे सच बतलाता हूँ ,
चित्त में पुण्य जगे थे किंचित फले नहीं मैं पछताता हूँ।
हे मित्र जरा तुम याद करो जब चित्रसेन से हारा था,
जब अर्जुन का धनुष बाण हीं मेरा बना सहारा था।
तब मेरे भी मन मे भी क्षण को धर्म पूण्य का ज्ञान हुआ,
अज्ञान हुआ था तिरोहित क्षय मेरा भी अभिमान हुआ।
उस दिन मन में निज कुकर्मों का थोड़ा एहसास हुआ ,
तज दूँ इस दुनिया को क्षण में क्षणभर को प्रयास हुआ।
आत्म ग्लानि का ताप लिए अब विष हीं पीता रहता हूँ ,
हे अश्वत्थामा ज्ञात नहीं तुमको पर सच है कहता हूँ।
ऐसा ना था बचपन से हीं कोई कसम उठाई थी ,
भीम ढीठ से ना जलता था उसने आग लगाई थी।
मेरे अनुजों संग जाने कैसे कुचक्र रचाता था ,
बालोचित ना क्रीड़ा थी भुजबल से इन्हें डराता था।
प्रिय अनुजों की पीड़ा मुझसे यूँ ना देखी जाती थी ,
भीम ढींठ के कटु हास्य वो दर्प से उन्नत छाती थी।
ऐसे हीं ना भीम सेन को मैंने विष का पान दिया ,
उसने मेरे भ्राताओं को किंचित हीं अपमान दिया।
और पार्थ बालक मे भी थी कौन पुण्य की अभिलाषा ,
चित्त में निहित निज स्वार्थ ना कोई धर्म की पिपासा।
डर का चित्त में भाग लिए वो दिनभर कम्पित रहता था ,
बाहर से तो वो शांत दिखा पर भीतर शंकित रहता था।
ये डर हीं तो था उसका जब हम सारे सो जाते थे,
छुप छुपकर संधान लगाता जब तारे खो जाते थे।
छल में कपटी अर्जुन का भी ऐसा कम है नाम नहीं।
गुरु द्रोण का कृपा पात्र बनना था उसका काम वहीं।
मन में उसके क्या था उसके ये दुर्योधन तो जाने ना,
पर इतना भी मूर्ख नहीं चित्त के अंतर पहचाने ना।
हे मित्र कहो ये न्याय कहाँ उस अर्जुन के कारण हीं,
एक्लव्य अंगूठा बलि चढ़ा ना कोई अकारण हीं।
सोंचो गुरुवर ने पाप किया क्यों खुद को बदनाम किया ,
जो सूरज जैसा उज्ज्वल हो फिर क्यों ऐसा अंजाम लिया?
ये अर्जुन का था किया धरा उसके मन में था जो संशय,
गुरु ने खुद पे लिया दाग ताकि अर्जुन चित्त रहे अभय।
फिर निज महल में बुला बुला अंधे का बेटा कहती थी ,
जो क्रोध अगन में जला बढ़ा उसपे घी वर्षा करती थी।
मैं चिर अग्नि में जला बढ़ा क्या श्यामा को ज्ञान नहीं ,
छोड़ो ऐसे भी कोई भाभी करती क्या अपमान कहीं?
श्यामा का जो चिर हरण था वो कारण जग जाहिर है,
मृदु हास्य का खेल नहीं अपमान फलित डग बाहिर है।
वो अंधापन हीं कारण था ना पिता मेरे महाराज बने,
तात अति थे बलशाली फिर भी पांडू अधिराज बने।
दुर्योधन बस नाम नहीं ये दग्ध आग का शोला था ,
वर्षों से सिंचित ज्वाला थी कि अति भयंकर गोला था।
उसी लाचारी को कहकर क्या ज्ञात कराना था उसको ?
तृण जलने को तो ईक्षुक हीं क्यों आग लगाना था उसको?
कि वो चौसर के खेल नही न मात्र खेल के पासे थे,
शकुनि ने अपमान सहे थे एक अवसर के प्यासे थे।
उस अवसर का कारण मैं ना धर्मराज हीं कारण थे ,
सुयोधन को समझे कच्चा जीत लिए मन धारण थे।
कैसे कोई कह सकता है दुर्योधन को व्याभिचारी ,
जुए का व्यसनी धर्मराज चौसर उनकी हीं लाचारी।
जब शकुनि मामा को खुद के बदले मैंने खेलाया था,
खुद हीं पासे चलने को उनको किसने उकसाया था।
ये धर्मराज का व्यसनी मन उनकी बुद्धि पर हावी था,
चौसर खेले में धर्म नहीं उनका बस अहम प्रभावी था।
वरना जैसे कि चौसर में मामा शकुनी का ज्ञान लिया।
वो नहीं कृष्ण को ले आये बस अपना अभिमान लिया।
उसी मान के चलते हीं तो हुआ श्यामा का चिर हरण,
अग्नि मेरी जलने को आतुर उर में बसती रही अगन।
श्यामा का सारा वस्त्र हरण वो द्रोण भीष्म की लाचारी,
चिनगारी कब की सुलग रही थी मात्र आग की तैयारी।
कर्ण मित्र की आंखों ने अब तक जितने अपमान सहे,
प्रथम खेल के स्थल ने जाने कितने अवमान कहे।
उसी भीम की नजरों में जब वो अपमान फला देखा ,
पांडव की नीची नजरों में वो ही प्रतिघात सजा देखा ।
जब चिरहरण में श्यामा ने कातर होकर चीत्कार किया,
ये जान रहा था दुर्योधन है समर शेष स्वीकार किया।
दुर्योधन तो मतवाला था कि ज्ञात रहा विष का हाला,
ये उसको खुद भी मरेगा कि चिरहरण का वो प्याला।
कुछ नही समझने वाला था ज्ञात श्याम थे अविनाशी,
वो हीं श्यामा के रक्षक थे पांचाली हित अभिलाषी।
फिर भी जुए के उसी खेल में मैंने जाल बिछाया था,
उस खेल में मामा ने तरकस से वाण चलाया था।
अंधा कह कर श्यामा ने जो भी मेरा अवमान किया,
वो प्रतिशोध की चिंगारी मेरे उर में अज्ञान दिया।
हम जीत गए थे चौसर में पर युद्ध अभी अवशेष रहा,
जब तक दुर्योधन जीता था वो समर कदापि शेष रहा।
हाँ तुष्ट हुआ था दुर्योधन उस प्रतिशोध की ज्वाला में,
जले भीम , पार्थ, धर्म राज पांचाली विष हाला में।
और जुए में धर्म राज ने खुद ही दाँव लगाया था,
चौसर हेतू पांडव तत्तपर मैंने तो मात्र बुलाया था।
गर किट कोई आ आकर दीपक में जल जाता है,
दोष मात्र कोई किंचित क्या दीपक पे फल पाता है।
दुर्योधन तो मतवाला था राज शक्ति का अभिलाषी,
शक्ति संपूज्य रहा जीवन ना धर्म ज्ञान का विश्वासी ।
भीष्म अति थे बलशाली जो कुछ उन्होंने ज्ञान दिया ,
थे पिता मेरे लाचार बड़े मजबूरी में सम्मान दिया।
जो एकलव्य से अंगूठे का गुरु द्रोण ने दान लिया ,
जो शक्तिपुंज है पूज्य वही बस ये ही तो प्रमाण दिया।
भीष्म पितामह किंचित जब कोई स्त्री हर लाते हैं ,
ना उन्हें विधर्मी कोई कहता मात्र पुण्य फल पाते हैं।
दुर्योधन भी जाने क्या क्या पाप पुण्य क्या अभिचारी,
जीत गया जो शक्ति पुंज वो मात्र न्याय का अधिकारी।
दुर्योधन ने धर्म मात्र का मर्म यही इतना बस जाना ,
निज बाहू पे जो जीता जिसने निज गौरव पहचाना।
उसके आगे ईश झुके तो नर की क्या औकात भला ?
रजनी चरणों को धोती है आ झुकता प्रभात चला।
इसीलिए तो जीवन पर पांडव संग बस अन्याय किया,
पर धर्म युद्ध में धर्मराज ने भी कौन सा न्याय किया?
धर्मराज हित कृष्ण कन्हैया महावीर पूण्य रक्षक थे,
कर्ण का वध हुआ कैसे पांडव भी धर्म के भक्षक थे?
सब कहते हैं अभिमन्यु का कैसा वो संहार हुआ?
भूरिश्रवा के प्राण हरण में कैसा धर्मा चार हुआ ?
भीष्म तात निज हाथों से गर धनुष नहीं हटाते तो,
भीष्म हरण था असंभव पांडव किंचित पछताते तो।
द्रोण युद्ध में शस्त्र हीन होकर बैठे असहाय भला,
शस्त्रहीन का जीवन लेने में कैसे कोई पूण्य फला?
जिस भाव को मन में रखकर हम सबका संहार किया,
क्यों गलत हुआ जो भाव वोही ले मैंने नर संहार किया।
क्या कान्हा भी बिना दाग के हीं ऐसे रह पाएंगे?
ना अनुचित कोई कर्म फला उंनसे कैसे कह पाएंगे?
पार्थ धर्म के अभिलाषी व पूण्य लाभ के हितकारी,
दुर्योधन तो था हठधर्मी नर अधम पाप का अधिकारी।
न्याय पूण्य के नाम लिये दुर्योधन को हरने धर्म चला,
क्या दुर्योधन को हरने में हित हुआ धर्म का कर्म भला?
धर्म राज तो चौसर के थे व्यसनी फिर वो काम किया,
युद्ध जीत कर हरने का फिर से हीं वो इंजेजाम किया।
अति जीत के विश्वासी कि खुद पे यूँ अभिमान किया,
चुन लूँ चाहे जिसको भी किंचित अवसर प्रदान किया।
पर दुर्योधन ने धर्मराज से धर्म युद्ध व्यापार किया ,
चुन सकता था धर्मराज ना अर्जुन पे प्रहार किया।
हे मित्र कहो ले गदा मेरे सम्मुख होते सहदेव नकुल,
क्या इहलोक पे बच जाते क्या मिट न जाता उनका मुल?
पर मैंने तो न्याय उचित ही चारों को जीवन दान दिया ,
चुना भीम को गदा युद्ध में निज कौशल प्रमाण दिया ।
गर भीम अति बलशाली था तो निज बाहू मर्दन करता ,
जिस गदा शक्ति का मान बड़ा था बाँहों से गर्दन धरता।
यदुनंदन को ज्ञात रहा था माता का उपाय भला,
करके रखा दुर्योधन को दिग्भ्रमित असहाय छला।
पर जान गए जब गदा युद्ध में दुर्योधन हीं भारी था ,
छल से जंधा तोड़ दिए अब कौन धर्म अधिकारी था ?
रक्त सींच निज हाथों से अपने केशों को दान दिया ,
क्या श्यामा सो पाएगी कि बड़ा पुण्य का काम किया?
दुर्योधन अधर्म ,विधर्म , अन्याय, पाप का रहा पर्याय,
तो पांडव किस मुख से धर्मी न्याय पुरुष फिर रहे हाय।
बड़ा धर्म का नाम लिए कि पुण्य कर्म अभिज्ञान लिए ,
बड़ा कुरुक्षेत्र आये थे सच का सच्चा अभिमान लिए।
सच तो दुर्योधन हरने में पांडव दुर्योधन वरण चले,
अन्याय पाप का जय होता धर्म न्याय का क्षरण चले।
गर दुर्योधन ने जीवन भर पांडव संग अभिचार किया,
तो धर्म युद्ध में धर्म पूण्य का किसने है व्यापार किया?
जहाँ पुण्य का क्षय होता है शक्ति पुंज का जय होता है ,
सत्य कहाँ होता राजी है कहाँ धर्म का जय होता है ?
पाप पुण्य की बात नहीं जहाँ शक्ति का होता व्यापार,
वहाँ मुझी को पाओगे तुम दुर्योधन का हीं संचार।
दिख नहीं पड़ता तूमको कब सत्य यहाँ इतराता है?,
यहाँ हार गया है दुर्योधन पर पूण्य कर्म पछताता है ।
पांडव के भी तन में मन में सब पाप कर्म फलित होंगे,
दुर्योधन सब कुछ झेल चुका उनपे भी अवतरित होंगे।
कि धर्म युद्ध में धर्म हरण बस धर्म हरण हीं हो पाया,
जो कुरुक्षेत्र को देखेगा बस न्याय क्षरण हीं हो पाया।
जीत गए किंचित पांडव जब अवलोकन कर पाएंगे?
जब भी अंतर को झांकेंगे दुर्योधन को हीं पाएंगे।
ये बात बता के दुर्योधन तब ईह्लोक को त्याग चला,
कहते सारे पांडव की जय धर्म पुण्य का भाग्य फला।
कर्ण पुत्र की लाचारी थी जीवित जो बचा रहा बच के ,
वृषकेतु आ मिला पार्थ कहते सब साथ मिला सच से।
हाँ अर्जुन को भी कर्ण वध का मन में था संताप फला ,
वृष केतु को प्रेम दान कर करके पश्चाताप फला ।
वृष केतु के गुरु पार्थ और बालक पुण्य प्रणेता था ,
सब सीख लिया था अर्जुन से वो योद्धा था विजेता थे।
कोई भी ऐसा वीर नहीं ठहरे जो भी उसके समक्ष ,
पांडव सारे खुश होते थे देख कर्ण पुत्र कर्ण समक्ष ।
जब स्वर्गारोहण करने को तैयार हो चले पांडव वीर ,
विकट चुनौती आन पड़ी थी धर्मराज हो चले अधीर ।
वृषकेतु था प्रबल युवक अभिमन्यु पुत्र पर बालक था ,
परीक्षित था नया नया वृषकेतु राज्य संचालक था।
वृषकेतु और परीक्षित में कौन राज्य का अधिकारी ,
धर्मराज थे उलझन में की आई फिर विपदा भारी ।
न्याय यही तो कहता था कि वृषकेतु को मिले प्रभार ,
वो ही राज्य का अधिकारी वोही योग्य राज्याधिकार।
पर पुत्र के प्रेम में अंधे अर्जुन ने वो व्यवहार किया ,
कभी धृतराष्ट्र ने दुर्योधन से जैसा था प्यार किया।
अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को देके राज्याधिकार ,
न्याय धर्म पे कर डाला था आखिर पांडव ने प्रहार।
यदि योग्यता हीं राज्य की होती कोई परिभाषा ,
वृषकेतु हीं श्रेयकर था वो ही धर्म की अंतिम आशा।
धृतराष्ट्र तो अंधे थे अपने कारण कह सकते थे,
युद्धिष्ठिर और पार्थ के क्या कारण हो सकते थे ?
पुत्र मोह में अंधे राजा का सबने उपहास किया ,
अन्याय त्रस्त था दुर्योधन ना सबने विश्वास किया।
अब किस मुख से पार्थ धर्म की गाथा कहते रहते ?
कर्म तो हैं विधर्मी जैसे पाप कर्म हीं गढ़ते रहते ।
अस्वत्थामा देख के सारी हरकत अर्जुन पांडव के ,
ना अफ़सोस कोई होता था उसको अपने तांडव पे।
अतिशय पीड़ा तन में मन में लिए पहाड़ों के नीचे,
केशव श्राप लगा हुआ अब भी अस्वत्थामा के पीछे।
बीत गए हैं युग कितने अब उसको है ज्ञान नहीं,
फलित हुई हरि की वाणी बचा रहा बस भान नहीं।
तन में पड़े हुए हैं फोड़े छिन्न भिन्न सी काया है ,
जल से जलते हैं अंगारे आँखों समक्ष अँधियारा है ।
पर कष्ट पीड़ा झेल के सारे अब भी वो ना रोता है ,
मन में कोई पाप भाव ना अस्वत्थामा सोता है।
एक वाणी जो यदुनंदन की फलित हुई थी होनी थी,
पर एक वाणी फलित हुई ना ये कैसी अनहोनी थी ?
केशव ने तो ज्ञान दिया था जब धर्म का क्षय होगा,
पाप धरा पर छाएगा दुष्कर्मों का जय होगा।
तब तब पुण्य के जय हेतु गिरिधर धरती पर आएंगे,
धर्म पताका पुनर्स्थापित धरती पर कर पाएंगे ।
पर किंचित केशव की वाणी नहीं सत्य है होने को ,
नहीं सत्य की जीत हैं संभव धर्म खड़ा है रोने को।
मंदिर मस्जिद नाम पर जाने होते कितने पापाचार,
दु:शासन करते वस्त्र हरण अबला हैं कितनी लाचार।
सीताओं का अपहरण भी रावण हाथों होता हैं ,
अग्नि परीक्षा में जलती है राम आज भी रोता है।
मुद्रा की चिंता में मानव भगता रहता पल पल पल,
रातों को ना आती निद्रा बेचैनी चित्त में इस उस पल।
जाने कितने हिटलर आतें सद्दाम जाने छा जाते हैं ,
गाँधी की बातें हुई बेमानी सच छलनी हो जाते हैं।
विश्व युद्ध भी देखा उसने देखा मानव का वो संहार,
तैमुर लंग के कृत्यों से दिग्भ्रमित हुआ वो नर लाचार।
सम सामयिक होना भी एक व्यक्ति को आवश्यक है
पर जिस ज्ञान से उन्नति हो बौद्धिक मात्र निरर्थक है ।
नित अध्ययन रत होकर भी है अवनति संस्कार में
काम एक है नाम अलग बस बदलाहट किरदार में।
ईख पेर कर रस चूसने जैसे व्यापारी करें व्यापार ,
देह अगन को जला जलाकर महिलाओं से चले बाजार।
आज एक नहीं लाखों सीताएँ घुट घुट कर मरा करती,
कैसी दुनिया कृष्ण की वाणी और धर्म की ये धरती?
अब अधर्म धर्म पे हावी नर का हो भीषण संहार,
मंदिर मस्जिद हिंसा निमित्त बहे रक्त की धार।
इस धरती पे नर भूले मानवता की परिभाषा,
इस युग में मानव से नहीं मानवता की आशा।
हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई जैन बौद्ध की कौम,
अति विकट ये प्रश्न है भाई धर्म राह पर कौन?
एक निर्भया छली गई जाने कितनी छल जाएँगी ,
और दहेज़ की ज्वाला में जाने कितनी जल जाएंगी ?
आखिर कितनों के प्राण जलेंगे तब हरि धरा पर आयेंगे,
धरती पर धर्म प्रतिष्ठा होगी जो वो कहते कर पाएंगे ।
मृग मरीचिका सी लगती है केशव की वो अद्भुत वाणी,
हर जगह प्रतिष्ठित होने को है दुर्योधन की वही कहानी।
जो जीत गया संसार युद्ध में धर्मी वो कहलाता है ,
और विजित जो भी होता विधर्मी सा फल पाता है ।
ना कोई है धर्म प्रणेता ना कोई है पुण्य संहारक ,
जीत गया जो जीवन रण में वो पुण्य का प्रचारक।
जीत मिली जिसको उसके हर कर्म पुण्य हो जायेंगे ,
और हार मिलती जिसको हर कर्म पाप हो जायेंगे ।
सच ना इतिहास बताता है सच जो है उसे छिपाता है,
विजेता हाथों त्रस्त या तुष्ट जो चाहे वही दिखाता है ।
दुर्योधन को हरने में जो पांडव ने दुष्कर्म रचे ,
उन्हें नजर ना आयेंगी क्या कान्हा ने कुकर्म रचे।
शकुनी मामा ने पासा फेंका बात बताई जाएगी ,
धर्मराज थे कितनी व्यसनी बात भुलाई जाएगी।
कलमकार को दुर्योधन में पाप नजर हीं आयेंगे ,
जो भी पांडव में फलित हुए सब धर्म हो जायेंगे ।
धर्म पुण्य की बात नहीं थी सत्ता हेतु युद्ध हुआ था,
दुर्योधन के मरने में हीं न्याय धर्म ना पुण्य फला था।
सत्ता के हित जो लड़ते हैं धर्म हेतु ना लड़ते हैं ,
निज स्वार्थ की सिद्धि हेतु हीं तो योद्धा मरते हैं।
ताकत शक्ति के निमित्त युद्ध सत्ता को पाने को तत्पर,
कौरव पांडव आयेंगे पर ना होंगे केशव हर अवसर ।
हर युग में पांडव भी होते हर युग में दुर्योधन होते ,
जो जीत गया वो धर्म प्रणेता हारे सब दुर्योधन होते।
अब वो हंसता देख देख के दुर्योधन की सच्ची वाणी ,
तब भी सच्ची अब भी सच्ची दुर्योधन की कथा कहानी।
हिम शैल के तुंग शिखर पर बैठे बैठे वो घायल नर,
मंद मंद उद्घाटित चित्त पे उसके होता था ये स्वर ।
धुंध पड़ी थी अबतक जिसपे तथ्य वही दिख पाता है,
दुर्योधन तो मर जाता कब दुर्योधन मिट पाता है?
द्रोणपुत्र ओ द्रोणपुत्र ये कैसा सत्य प्रकाशन है ?
ये कौन तर्क देता तुझको है कैसा तथ्य प्रकाशन है?
कैसा अज्ञान का ज्ञापन ये अबुद्धि का कैसा व्यापार?
कैसे ये चिन्हित होता तुझसे अविवेक का यूँ प्रचार?
द्रोण पुत्र ओ द्रोणपुत्र ये कैसा जग का दृष्टिकोण,
नयनों से प्रज्ञा लुप्त हुई चित्त पट पे तेरे बुद्धि मौन।
ये कौन बताता है तुझको ना दुर्योधन मिट पाता है ,
ज्ञान चक्षु से देख जरा क्या दुर्योधन टिक पाता है?
ये कैसा अनुभव तेरा कैसे तुझमे निष्कर्ष फला ,
समझ नहीं तू पाता क्यों तेरे चित्त में अपकर्ष फला।
क्या तेरे अंतर मन में भी बनने की चाहत दुर्योधन ,
द्रोणपुत्र ओ द्रोणपुत्र कुछ तो अंतर हो अवबोधन।
मात्र अग्नि का बुझ जाना हीं शीतलता का नाम नहीं,
और प्रतीति जल का होना पयोनिधि का प्रमाण नहीं।
आंखों से जो भी दिखता है नहीं ज्ञान का मात्र पर्याय,
मृगमरीचिका में गोचित जो छद्म मात्र हीं तो जलकाय।
जो कुछ तेरा अवलोकन क्या समय क्षेत्र से आप्त नहीं,
कैसे कह सकते हो जो तेरा सत्य जगत में व्याप्त वहीं।
अश्वत्थामा तथ्य प्रक्षेपण क्या ना तेरा कलुषित है?
क्या तेरा जो सत्य अन्वेषण ना माया मलदुषित है?
इतना सब दुख सहते रहते फिर भी कैसा दोष विकार,
मिथ्या ज्ञान अर्जन करते हो और सजाते अहम विचार।
अगर मान भी ले गर किंचित कुछ तो तथ्य बताते हो,
तुम्ही बताओ इस सत्य से क्या कुछ बेहतर कर पाते हो?
जिस तथ्य प्रकाशन से गर नहीं किसी का हित होता,
वो भी क्या है सत्य प्रकाशन नहीं कोई हलुषित होता।
दुर्योधन अभिमानी जैसों का जो मिथ्या मंडन करते,
क्या नहीं लगता तुमको तुम निज आमोद मर्दन करते।
चौंक इधर को कभी उधर को देख रहा था द्रोणपुत्र,
ये कौन बुलाता निर्जन में संबोधन करता द्रोणपुत्र?
मैं तो हिम में पड़ा हुआ हिमसागर घन में जलता हूँ,
ये बिना निमंत्रण स्वर कैसा ध्वनि कौन सा सुनता हूँ?
हिम शेष ही बचा हुआ है अंदर भी और बाहर भी,
ना विशेष है बचा हुआ कोई तथ्य नया उजागर भी।
इतने लंबे जीवन में जो कुछ देखा वो कहता था,
ना कोई है सत्य प्रकाशन जग सीखा हीं कहता था।
बात बड़ी है नई नई जो कुछ देखा खुद को बोला,
ना कोई दृष्टिगोचित फिर राज यहाँ किसने खोला।
ये मेरे मन की सारी बाते कैसे कोई जान रहा,
मन मेरे क्या चलता है कोई कैसे हैं पहचान रहा।
अतिदुविधा में हिमशिखर पर द्रोणपुत्र था पड़ा हुआ,
उस स्वर से कुछ था चिंतित और कुछ था डरा हुआ।
गुरु पुत्र ओ गुरु पुत्र ओ चिर लिए तन अविनाशी,
निज प्रज्ञा पर संशय कैसा क्यूँ हुए निज अविश्वासी।
ये ढूंढ रहे किसको जग में शामिल तो हूँ तेरे रग में,
तेरा हीं तो चेतन मन हूँ क्यों ढूंढे पदचिन्हों में डग में।
नहीं कोई बाहर से तुझको ये आवाज लगाता है,
अब तक भूल हुई तुझसे कैसे अल्फाज बताता है ।
है फर्क यही इतना बस कि जो दीपक अंधियारे में,
तुझको इक्छित मिला नही दोष कभी उजियारे में।
सूरज तो पूरब में उगकर रोज रोज हीं आता है,
जो भी घर के बाहर आए उजियारा हीं पाता है।
ये क्या बात हुई कोई गर छिपा रहे घर के अंदर ,
प्रज्ञा पे पर्दा चढ़ा रहे दिन रात महीने निरंतर।
बड़े गर्व से कहते हो ये सूरज कहाँ निकलता है,
पर तेरे कहने से केवल सत्य कहाँ पिघलता है?
सूरज भी है तथ्य सही पर तेरा भी सत्य सही,
दोष तेरेअवलोकन में अर्द्धमात्र हीं कथ्य सही।
आँख मूंदकर बैठे हो सत्य तेरा अँधियारा है ,
जरा खोलकर बाहर देखो आया नया सबेरा है।
इस सृष्टि में मिलता तुमको जैसा दृष्टिकोण तुम्हारा,
तुम हीं तेरा जीवन चुनते जैसा भी संसार तुम्हारा।
बुरे सही अच्छे भी जग में पर चुनते कैसा तुम जग में,
तेरे कर्म पर हीं निर्भर है क्या तुमको मिलता है डग में।
बात सही तो लगती धीरे धीरे ग्रंथि सुलझ रही थी ,
गाँठ बड़ी अंतर में पर किंचित ना वो उलझ रही थी।
पर उत्सुक हो रहा द्रोणपुत्र देख रहा आगे पीछे ,
कौन अनायास बुला रहा उस वाणी से हमको खींचे?
ना पेड़ पौधा खग पशु कोई ना दृष्टिगोचित कोई नर,
बार बार फिर बुला रहा कैसे मुझको अगोचित स्वर।
गंध नहीं है रूप नहीं है रंग नहीं है देह आकार,
फिर भी कर्णों में आंदोलन किस भाँति कंपन प्रकार।
क्या एक अकेले रहते चित्त में भ्रम का कोई जाल पला,
जो भी सुनता हूँ निज चित का कोई माया जाल फला।
या उम्र का हीं ये फल है लुप्त पड़े थे जो विकार,
जाग रहें हैं हौले हौले सुप्त पड़े सब लुप्त विचार।
नहीं मित्र ओ नहीं मित्र नहीं ये तेरा कोई छद्म भान,
अंतर में झांको तुम निज के अंतर में हीं कर लो ध्यान।
ये स्वर तेरे अंतर हीं का कृष्ण कहो या तुम भगवान,
वो जो जगत बनाते है वो हीं जगत मिटाते जान।
देखो तो मैं हीं दुर्योधन तुझको समझाने आया हूँ,
मित्र धर्म का कुछ ऋण बाकी उसे चुकाने आया हूँ।
मेरे हित हीं निज तन पे जो कष्ट उठाते आये हो,
निज मन पे जो भ्रम पला निज से हीं छुपाते आये हो।
जरा आंख तो कुछ हीं पल को बंद करो बतलाता हूँ,
कुछ हीं पल को शांत करो सत्य को कि तुझे दिखता हूँ।
चलो दिखाऊँ द्रोण पुत्र नयनों के पीछे का संसार,
कितने हीं संसार छुपे है तेरे इन नयनों के पार।
आओ अश्वत्थामा आओ ना मुझपे यूँ तुम पछताओ,
ना खुद पे भी दुख का कोई कारण सुख अब तुम पाओ।
कृष्ण तत्व मुझपे है तुमने इतना जो उपकार किया,
बात सही है द्रोण पुत्र ने भी सबका अपकार किया।
पर दुष्कर्म किये जो इसने अब तक मूल्य चुकाता है,
सत्य तथ्य ना ज्ञात मित्र को नाहक हीं पछताता है।
जैसे मेरे मन ने चित पर भ्रम का जाल बिछाया था,
सत्य कथ्य दिखला कर तूने माया जाल हटाया था।
है गिरिधर अब आगे आएं द्रोण पुत्र को भी समझाएँ,
जो कुछ अबतक समझ रहा भ्रम है कैसे भी बतलाएं।
नाहक हीं क्यों समझ रहा है दुर्योधन ना मिट पाया।
कृष्ण बताएं कुछ तो इसको दुर्योधन ना टिक पाया।
कान खड़े हुए विस्मित था ये कैसा दुर्योधन है,
धर्मराज जो कहते आए थे वैसा सुयोधन है।
कैसे दिल की तपन आग को दुर्योधन सब भूल गया,
अब ऐसा दृष्टिगोचित होता द्वेष क्रोध निर्मूल गया।
जिससे जलता लड़ता था उसको हीं आज बुलाता है,
ये कैसा दुर्योधन है जो खुद को आग लगाता है?
जिस कृष्ण के कारण हीं तो ऐसा दुष्फल पाता हूँ,
जाने खुद को कैसे कैसे कारण दे पछताता हूँ।
अश्वत्थामा द्रोण पुत्र आओ तो आओ मेरे साथ,
मैं हीं तो हूँ मित्र तुम्हारा और कृष्ण भी मेरे साथ।
आँख बंद करो इक क्षण को देखों तो कैसा संसार,
क्या जग का परम तत्व क्या है इस जग का सार।
सुन बात मित्र की मन मे अतिशय थे संशय आये,
पर सोचा द्रोण पुत्र ने और कोई ना रहा उपाय।
चलो दुर्योधन के हित मैंने इतना पापाचार किया,
जो खुद भी ना सोचा मैंने कैसा था व्यापार किया।
बात मानकर इसकी क्षण को देखे अब होता है क्या,
आँख मूंदकर बैठा था वो देखें अब होता है क्या?
कुछ हीं क्षण में नयनों के आगे दो ज्योति निकट हूई,
तन से टूट गया था रिश्ता मन की द्योति प्रकट हुई।
इस धरती के पार चला था देह छोड़ चंदा तारे,
अति गहन असीमित गहराई जैसे लगते अंधियारे।
सांस नहीं ले पाता था क्या जिंदा था या सपना था,
ज्योति रूप थे कृष्ण साथ साथ मित्र भी अपना था।
मुक्त हो गया अश्वत्थामा मुक्त हो गई उसकी देह ,
कृष्ण संग भी साथ चले थे और दुर्योधन साथ विदेह।
द्रोण पुत्र को हुआ ज्ञात कि धर्म पाप सब रहते हैं ,
ये खुद पे निर्भर करता क्या ज्ञान प्राप्त वो करते हैं ?
फुल भी होते हैं धरती है और शूल भी होते हैं ,
चित्त पे फुल खिले वैसे जैसे धरती पर बोते हैं ।
जिसकी जैसी रही अपेक्षा वैसा फल टिक पाता है
दुर्योधन ना टिक पाता ना दुर्योधन मिट पाता है ।
अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित