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इन्सान की ये फितरत है अच्छी खराब भी,
दिल भी है दर्द भी है दाँत भी दिमाग भी ।
खुद को पहचानने की फुर्सत नहीं मगर,
दुनिया समझाने की  रखता है ख्वाब भी।

शहर को भटकता तन्हाई ना मिटती ,
रात के  सन्नाटों में रखता है आग भी।
पढ़ के हीं सीख ले ये चीज नहीं आदमी,
ठोकर के जिम्मे नसीहतों की किताब भी।

दिल की जज्बातों को रखना ना मुमकिन,
लफ्जों में  भर के पहुँचाता आवाज भी।
अँधेरों में छुपता है आदमी ये जान कर,
चाँदनी है अच्छी पर दिखते हैं दाग भी।

खुद से अकड़ता  है खुद से हीं लड़ता,
जाने जिद कैसी है  कैसा रुआब भी।
शौक भी तो पाले हैं दारू शराब क्या,
जीने की जिद पे मरने को बेताब भी।
युवराज हे क्या कारण, क्यों खोये निज विश्वास?
मुखमंडल पे श्यामल बादल ,क्यूँ तुम हुए निराश?
चुप चाप  खोये  से रहते ,ये  कैसा कौतुक  है?
इस राष्ट्र के भावी शासक,पे आया क्या दुःख है?

आप  मंत्री वर  बुद्धि ज्ञानी ,मैं ज्ञान आयु में आधा ,
ना निराश हूँ लेकिन दिल में,सिंचित है छोटी एक बाधा.
पर आपसे कह दूँ ऐसे ,कैसे थोड़ा सा घबड़ाऊँ
पितातुल्य हैं श्रेयकर मेरे,इसीलिए थोड़ा सकुचाऊँ .     

अहो कुँवर मुझसे कहने में, आन पड़ी ये कैसी बाधा?
जो भी विपदा तेरी राजन, हर लूँगा है मेरा वादा .
तब जाकर थोड़ा सकुचा के, कहता है युव राज,
मेरे  दिल पे एक तरुणी  का, चलने लगा है राज .

वो तरुणी  मेरे मन पर ,हर दम यूँ छाई रहती है ,
पर उसको ना पाऊँ मैं,किंचित परछाई लगती है.
हे मंत्री वर उस तरुणी का, कैसे भी पहचान करें,
उसी प्रेम का राही मैं हूँ, इसका एक निदान करें .

नाम देश ना ज्ञात कुँवर को , पर तदवीर बताया,
आठ साल की कन्या का,उनको तस्वीर दिखाया.
उस तरुणी के मृदु चित्र , का मंत्री ने संज्ञान लिया ,
विस्मित होकर बोले फिर, ये कैसा अभियान दिया .

अहो कुँवर तेरा भी कैसा,अद्भुत है  ये काम
ये तस्वीर तुम्हारी हीं,क्या वांछित है परिणाम?
तेरी माता को पुत्र था, पुत्री की भी चाहत थी ,
एक कुँवर से तुष्ट नहीं न, मात्र पुत्र से राहत थी .

चाहत जो थी पुत्री की , माता ने यूँ साकार किया,
नथुनी लहंगे सजा सजा तुझे ,पुत्री का आकार दिया.
छिपा कहीं रखा था जिसको, उस पुत्री का चित्र यही है,
तुम प्रेम में पड़ गये खुद के , उलझन ये विचित्र यही है .

उस कन्या को कहो कहाँ, कैसे तुझको ले आऊं मैं ?
अद्भुत माया ईश्वर की , तुझको कैसे समझाऊँ मैं ?
तुम्हीं कहो ये चित्र सही पर , ये चित्र तो सही नहीं ,
मन का प्रेम तो सच्चा तेरा , पर प्रेम वो कहीं नहीं .

कुँवर  प्रेम  ये  तेरा वैसा  , जैसा मैं जग से करता हूँ ,
खुद हीं से मैं निर्मित करता खुद हीं में विस्मित रहता हूँ .        
मनोभाव तुम्हारा हीं ठगता ,इससे  हीं व्याप्त रहा जग तो ,  
हाँ ये अपना पर सपना है,पर सपना  प्राप्त हुआ किसको?
ये कविता एक बुजुर्ग , बुद्धिमान मंत्री और उसके एक अविवाहित राजकुमार के बीच वार्तालाप पर आधारित है. राजकुमार हताशा की स्थिती में महल के प्राचीर पर बैठा है . मंत्री जब राजकुमार से हताशा का कारण पूछते हैं , तब राजकुमार उनको कारण बताता है. फिर उत्तर देते हुए मंत्री राजकुमार की हताशा और इस जग के मिथ्यापन के बीच समानता को कैसे उजागर करते हैं, आइये देखते हैं इस कविता में .
Hrithik Hiran May 2020
Kabhi chale ** un raahon pe
Jinse jude ** qisse kaafi tumhaare
Jin raahon pe hasi mazaak ki thi doston ke sang
Unnhi raahon mein tumne bhare the woh yaadon ke rang

Kabhi socha na tha ki
Akele bhi chalna padega kabhi
Goonjti hai woh awaaz tumhaari
Jab bhi chalta hu un raahon parr
Peeche mudke dekh bhi leta hu kabhi
Ke mehez dikh jaaye parchayi tumhari
Parr dikhte toh woh adhoore waadein he hein
Bebas karr rakhe hein mujhe jinhone

Woh baarish..woh dhoop
Sabka kiya tha saamna
Jab haath tha tumne mera thaama
Kya Yaad hai woh fool
Jo tod laayi thi tum uss ped se
Mere yaadon ke Gulshan mein
Khila hai woh fool kabse
Hasrat toh dekhiye
Woh ped bhi na sambhal paaya
Mujhe akela dekhkar
Woh bhi murjhaaya

Yahin chalte waqt kaha tha na
Ki chodogi nahi yeh haath kabhi
Chaahe fariyad ** jaaye humse harr koi
Tumhaare usi saath ki khoj mein hu
Jise laga liya tha apne rooh se kabhi
Sahi kaha tha uss shaks ne ki
Manzil nahi raahon mein junoon pao
Kyunki manzil toh pahuche he nahi the ke
Bewafa karr gayi mujhe uss raah pe akele
Kabhi Chalke dekhna
Inhi raahon pe akele
Yaad karna woh beetein hue qisse
Aur ** sake toh mudke dekhna
Dikhunga mein usi mod parr
Jaahan chod gayi thi mujhe..karke inkar
Kyunki badal liye tumne apne raahein
Jo kabhi samajh na paayi
meri yeh fitoor nigaahein
Some roads remind you of that special someone... This is about one such road... (Hindi)
Hrithik Hiran May 2020
Chehre pe gira jo woh boond uske
Jhalak ke aayi meri muskan aise
Ke Bikhri hui zindagi mein baras baithe
Khoyi hui aashaon ki baarish jaise

Bhul na paunga woh din
Pehli baarish jo bitayi thi saath mein
Chaatha tha mere paas bhi
Par ghus gaya tumhaare sang mein

Ek choti chathri aur hum do uske neeche
Bheeg rahe the hum aadhe aadhe
Par aise bheegne ka mazaa he hai kuch aur
Jab Aaghosh ke woh pal mile na kabhi aur

Chalte rahe hum aahista apne bus ki or
Kya batau kaise bitaye woh 5 minute
Unke Bheege zulfein jo karr rahe the shor
Chodke use apne bus mein
Bheegta raha uss pal ki yaadon mein

Aaj bhi Barsat jab bhi kare
Chaatha lene ko majboor
Yaad tumhari he karta hu Ke kaash tum hoti
Ghus jaata tumhare he chatri ki chaav mein
Pehli baarish ki un boondon ko chakhne
Ke kya swad aaj bhi wahi hai
Jo uss din chakha tha saath mein humne
This is about that special rain we all have had in our life in HINDI.
Hope you all like it!
Dharmendra Kumar Mar 2020
Kya manjar hai ki
Band sabhi bajar Raha,

Kab nikale apne Ghar se
Apna hi khwab Raha,

Naitikata ne bandh diya pairo ko
Jaise Sahar kabristan Raha

Naya subera kab niklega
Bas man ko yahi malal Raha

Kya manjar hai ki
Band sabhi bajar Raha
Riddhi N Hirawat Nov 2019
Ek metro, saanp si guzar rahi hai kuch duur
Ek nabh faila hai uske upar - Neela sa kaala
Ek chaand chamak raha hai uss nabh mein
Kuch baadal sarak rahe hain paas mein uske
Usi metro ki tarah par dheere zara
Thandi hawayei hain.
Usme goonjta mera aaj khada
Kuch thandak hai inn hawaon mein
Aur bohot sara sukoon bhara

Aisi hi hoti hai wo chaand ki thandak?
Jinhen sunte, apna bachpan beet gaya
Kya sheetalta swarg ki aisi hai kahin?
Jisey suna kayion ka jeevan guzar gaya
Kya raambaan sukh yahi toh nahi
Kya kamdhenu vriksha aisa tha kabhi
Kya Ramcharitmanas mein hanumat
Ka Rambhakti amrit lagta tha yun hi?

Aisa hi amritmay bachpan mein,
yaad hai mujhko lagta tha
Zameen se shuru uss lambi khidki
Se yahi chaand chamakta dikhta tha
Mama sa ban chup shant bhav se
Kuch baatein meri sunta tha

Kyunki khud bhumi par bistar pe so
Holi mujhe khilayi thi
Khud bhookhe reh uss ke paiso
Se mere bhai ko idli chakhayi thi
Bohot pasand thi usko uski idli
Aur rangbhari mujhe holi meri

Kya kabhi unhen main unka wapas
Ye rinn chukta kar paungi
Kya kabhi unnsi balwaan main ban kar
Unke liye itna kar paungi?
Kya usi chaand ki thandak si khushiyan
Unki jholi mein bhar paungi?

Kya bhool maaf karne ki hadd
Ko paar kar kar ke thake nahi wo?
Kya raat bhar bhi jagkar subah
Hans dawa banna bhoole nahi wo
Kya insaani roop mein hain
Bhagwan, "maa baap" kehlate jo?
Riddhi N Hirawat Jan 2019
Kabhi apne aap ko bhoolti ***
Kabhi apne aap ko chunti ***
Bas dhundhti *** khud ko

Kabhi inn bikhre panno mein
Kabhi inme likhe lafzon mein
Padhti *** khud ko

Kabhi dhokha kha jane mein
Fir khud ko saza de jane mein
Maarti *** khud ko

Kabhi baarish ki awaz mein
Kabhi hawaon ki aahat mein
Dekhti *** khud ko

Kabhi bajte huwe piano mein
Kabhi gaano ke taraano mein
Sunti *** khud ko

Kabhi uski aankhon ke paani mein
Kabhi uski di hui zubani mein
Paati *** khud ko

Bas dhundhti *** khud ko
Bas dhundhti *** khud ko
जाके कोई क्या पुछे भी,
आदमियत के रास्ते।
क्या पता किन किन हालातों,
से गुजरता आदमी।

चुने किसको हसरतों ,
जरूरतों के दरमियाँ।
एक को कसता है तो,
दुजे से पिसता आदमी।

जोर नहीं चल रहा है,
आदतों पे आदमी का।
बाँधने की घोर कोशिश
और उलझता आदमी।

गलतियाँ करना है फितरत,
कर रहा है आदतन ।
और सबक ये सीखना कि,
दुहराता है आदमी।

वक्त को मुठ्ठी में कसकर,
चल रहा था वो यकीनन,
पर न जाने रेत थी वो,
और फिसलता आदमी।

मानता है ख्वाब दुनिया,
जानता है ख्वाब दुनिया।
और अधूरी ख्वाहिशों का,
ख्वाब  रखता आदमी।

आया हीं क्यों जहान में,
इस बात की खबर नहीं,
इल्ज़ाम तो संगीन है,
और बिखरता आदमी।

"अमिताभ"इसकी हसरतों का,
क्या बताऊं दास्ताँ।
आग में जल खाक बनकर,
राख रखता आदमी।
कवि यूँ हीं नहीं विहँसता है,
है ज्ञात तू सबमें बसता है,
चरणों में शीश झुकाऊँ मैं,
और क्षमा तुझी से चाहूँ मैं।

दुविधा पर मन में आती है,
मुझको विचलित कर जाती है ,
यदि परमेश्वर सबमें  होते,
तो कुछ नर  क्यूँ ऐसे होते?

जिन्हें स्वार्थ साधने आता है,
कोई कार्य न दूजा भाता है,
न औरों का सम्मान करें ,
कमजोरों का अपमान करें।

उल्लू नजरें है जिनकी औ,
गीदड़ के जैसा है आचार,
छली प्रपंची लोमड़ जैसे,
बगुले जैसा इनका प्यार।

कौए सी है इनकी वाणी,
करनी है खुद की मनमानी,
डर जाते चंडाल कुटिल भी ,
मांगे शकुनी इनसे पानी।

संचित करते रहते ये धन,
होते मन के फिर भी निर्धन,
तन रुग्ण  है संगी साथी ,
पर  परपीड़ा के अभिलाषी।

जोर किसी पे ना चलता,
निज-स्वार्थ निष्फलित है होता,
कुक्कुर सम दुम हिलाते हैं,
गिरगिट जैसे हो जाते हैं।

कद में तो छोटे होते हैं ,
पर साये पे हीं होते है,
अंतस्तल में जलते रहते,
प्रलयानिल रखकर सोते हैं।

गर्दभ जैसे अज्ञानी  है,
हाँ महामुर्ख अभिमानी हैं।
पर होता मुझको विस्मय,
करते रहते नित दिन अभिनय।

प्रभु कहने से ये डरता हूँ,
तुझको अपमानित करता हूँ ,
इनके भीतर तू हीं रहता,
फिर जोर तेरा क्यूँ ना चलता?

क्या गुढ़ गहन कोई थाती ये?
ईश्वर की नई प्रजाति ये?
जिनको न प्रीत न मन भाये,
डर की भाषा हीं पतियाये।
  
अति वैभव के हैं जो भिक्षुक,
परमार्थ फलित ना हो ईक्छुक,
जब भी बोले कर्कश वाणी,
तम अंतर्मन है मुख दुर्मुख।

कहते प्रभु जब वर देते हैं ,
तब जाके हम नर होते हैं,
पर है अभिशाप नहीं ये वर,
इनको कैसे सोचुं ईश्वर?
  
ये बात समझ ना आती है,
किंचित विस्मित कर जाती है,
क्यों कुछ नर ऐसे होते हैं,
प्रभु क्यों नर ऐसे होते हैं?

अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
कवि को ज्ञात है कि ईश्वर हर जगह बसता है. फिर भी वह कुछ ऐसे लोगों के संपर्क में आता है , जो काफी नकारात्मक हैं . कवि चाह कर भी इन तरह के लोगों में प्रभु के दर्शन नहीं कर पाता . इन्हीं परिस्थियों में कवि के मन में कुछ प्रश्न उठते हैं , जिन्हें वो इस कविता के माध्यम से ईश्वर से पूछता है .
कह रहे हो तुम ये  ,
मैं भी करूँ ईशारा,
सारे  जहां  से अच्छा ,
हिन्दुस्तां हमारा।


ये ठीक भी बहुत  है,
एथलिट सारे जागे ,
क्रिकेट में जीतते हैं,
हर गेम में  है आगे।


अंतरिक्ष  में उपग्रह
प्रति मान फल  रहें है,
अरिदल पे नित दिन हीं
वाण चल रहें हैं,


विद्यालयों में बच्चे
मिड मील भी पा  रहें है,
साइकिल भी मिलती है
सब गुनगुना रहे हैं।


हाँ ठीक कह रहे हो,
कि फौजें हमारी,
बेशक  जीतती हैं,
हैं दुश्मनों  पे भारी।


अब नेट मिल रहा है,
बड़ा सस्ता बाजार में,
फ्री है वाई-फाई ,
फ्री-सिम भी व्यवहार में।


पर  होने से नेट भी
गरीबी मिटती कहीं?
बीमारों से समाने फ्री
सिम टिकती नहीं।


खेत में  सूखा है और
  तेज बहुत धूप है,
गाँव में मुसीबत अभी,
रोटी है , भूख है।


सरकारी हॉस्पिटलों में,
दौड़ के हीं ऐसे,
आधे तो मर रहें  हैं,
इनको बचाए कैसे?


बढ़ रही है कीमत और
बढ़ रहे बीमार हैं,
बीमार करें  छुट्टी  तो
कट रही पगार हैं।


राशन हुआ है महंगा,
कंट्रोल घट रहा है,
बिजली हुई न सस्ती,
पेट्रोल चढ़ रहा है।


ट्यूशन  फी है हाई,
उसको चुकाए कैसे?
इतनी सी नौकरी में,
रहिमन पढ़ाए कैसे?


दहेज़ के अगन में ,
महिलाएं मिट रही है ,
बाज़ार में सजी हैं ,
अबलाएँ बिक रहीं हैं।


क्या यही लिखा है ,
मेरे देश के करम में,
सिसकती रहे बेटी ,
शैतानों के हरम में ?


मैं वो ही तो चाहूँ ,
तेरे दिल ने जो पुकारा,
सारे  जहाँ  से अच्छा ,
हिन्दुस्तां   हमारा।


पर अभी भी बेटी का
बाप है बेचारा ,
कैसे कहूँ है बेहतर ,
है देश ये हमारा?


अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
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