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यह सच है कि
घड़ी की टिक टिक के साथ
कभी ना दौड़  सका,
बीच रास्ते हांफने लगा।

सच है यह भी कि
अपनी सफलता को लेकर
रहा सदा मैं
आशंकित,
अब केवल बचा रह गया है भीतर मेरे
लोभ ,लालच, मद और अहंकार ।
हर पल रहता हूं
छल कपट करने को आतुर ।
किस विधि करूं मैं अंकित ,
मन के भीतर व्यापे भावों के समुद्र को
कागज़,या फिर कैनवास पर?
फिलहाल मेरे
दिल और दिमाग में
धुंध सा छाया हुआ है डर ,
यह बना हुआ
आजकल
मेरे सम्मुख आतंक ।
मन के भीतर व्यापे अंधेरे ने
मुझे एक धुंधलके में  ला खड़ा किया है।
यह मुझे मतवातर करता है
भटकने को हरदम विवश !
फल स्वरूप
हूं जीवन पथ पर
क़दम दर कदम
हैरान और परेशान !!

कैसे, कब और कहां मिलेगी मुझे मंजिल ?

कभी-कभी
थक हारकर
मैं सोचता हूं कि
मेरा घर से बेघर होना ,
ख़ानाबदोश सा भटकना ही
क्या मेरा सच है?
आखिर कब मिलेगा मुझे
आत्मविश्वास से भरपूर ,एक सुरक्षा कवच ,
जो बने कभी
मुक्तिपथ का साथी
इसे खोजने में मैंने
अपनी उम्र बिता दी।
मुझे अपने जीवन के अनुरूप
मुक्तिपथ चाहिए
और चाहिए जीवन में परमात्मा का आशीर्वाद ,
ताकि और अधिक जीवन की भटकन में
ना मिले
अब पश्चाताप और संताप।
मैं खोज लूं जीवन पथ पर आगे बढ़ते हुए ,
सुख और सुकून के दो पल,
संवार सकूं अपना वर्तमान और कल।
मिलती रहे मुझे जीवन में
आगे बढ़ने की शक्ति और आंतरिक बल।
०६/०१/२००९.
वो पति परमेश्वर
क्रोधाग्नि से चालित होकर,
अपना विवेक खोकर
अपनी अर्धांगिनी को  
छोटी छोटी बातों पर
प्रताड़ित करता है।

कभी कभी वह
शांति ढूंढने के लिए
जंगल,पहाड़,शहर, गांव,
जहां मन किया,उधर के लिए
घर से निकल पड़ता है
और भटक कर घर वापिस आ जाता है।

कल अचानक वह
क्रोध में अंधा हुआ
अनियंत्रित होकर
अपनी गर्भवती पत्नी पर
हमला कर बैठा,
उससे मारपीट कर,
अपशब्दों से अपमानित
करने की भूल कर बैठा।

वह अब पछता रहा है।
रूठी हुई धर्म पत्नी को
मना रहा है,साथ ही
माफ़ी भी माँग रहा है।
क्या वह आतंकी नहीं ?
वह घरेलू आतंक को समझे सही।
इस आतंक को समय रहते रोके भी।
०१/१२/२००८.
उम्मीद है
इस बार तुम
हंगामा नहीं करोगे,
सरे राह
अपने और गैरों को नंगा नहीं करोगे।


उम्मीद है
इस बार तुम
नई रोशनी का
दिल से स्वागत करोगे,
अपनों और गैरों को
नूतनता के रू-ब-रू कराकर
नाउम्मीदी से
मुरझाए चेहरों में
ताजगी भरोगे!
उनमें प्रसन्नता भरी चमक लाओगे!!


उम्मीद है
इस बार तुम
बेवजह ड्रामा नहीं करोगे,
बल्कि एक नया मील पत्थर
सदैव की भांति
परिश्रम करते हुए खड़ा करोगे!


उम्मीद है
इस बार तुम
सच से नहीं डरोगे,
बल्कि
असफलता को भी मात दे सकोगे !
कामयाबी के लिए झूठ बोलने से बचोगे !

२४/११/२००८.
'खुद को क्या संज्ञा दूं ?
खुद को क्या सजा दूं ?'
कभी-कभी यह सब सोचता हूं ,
रह जाता हूं भीतर तक गुमसुम ।
स्वत: स्व  से पूछता  हूं,
"मैं?... गुमशुदा या ग़म जुदा?"


ज़िंदगी मुखातिब हो कहती तब
कम दर कदम मंजिल को वर ,
निरंतर आगे अपने पथ पर बढ़ ।
अब ना रहना कभी गुमसुम ।
ऐसे रहे तो रह जाएंगी  राहें थम।
ऐसा क्या था पास तुम्हारे ?
जिसके छिटकने से फिरते मारे मारे ।
जिसके  खो जाने के डर से तुम चुप हो ।
भूल क्यों गए अपने भीतर की अंतर्धुन ?


जिंदगी करने लगेगी मुझे कई सवाल।
यह कभी सोचा तक न था ।
यह धीरे-धीरे भर देगी मेरे भीतर बवाल ।
इस बाबत तो बिल्कुल ही न सोचा था।
और संजीदा होकर सोचता हूं ,
तो होता हूं हतप्रभ और भौंचक्का।


खुद को क्या संज्ञा दू ?
क्या सजा दूं बेखबर रहने की ?
अब मतवातर  सुन पड़ती है ,
बेचैन करती अपनी गुमशुदगी की सदा ।
जिसे महसूस कर , छोड़ देता हूं और ज्यादा भटकना।
चुपचाप स्वयं की बाबत सोचता हुआ घर लौट आता हूं ।
जीवन संघर्षों में खुद को
बहादुर बनाने का साहस जुटाऊंगा।
मन ही मन यह वायदा स्वयं से करता हूं ‌।

०२/०१/२००९.
"चट चट चटखारे ले,
न! न!!     नज़ारे ले।
जिन्दगी चाट सरीखी चटपटी,
मत कर हड़बड़ी गड़बड़ी।
बस जीना इसे,प्यारे ,
सीख ले।"
यह सब योगी मन ने
भोगी मन से कहा।
इससे पहले कि मन में
कोहराम मचे,
योगी मन
समाधि और ध्यान अवस्था
में चला गया ।
भोगी मन हक्का बक्का ,
भौंचक्का रह गया।
जाने अनजाने
जिंदगी में
एक कड़वा मज़ाक सह गया।
  ०२/०१/२००९.
अब बेईमान बेनकाब कैसे होगा ?
इस बाबत हमें सोचना होगा।

लोग बस पैसा चाहते हैं,
इस भेड़ चाल को रोकना होगा।

देखा देखी खर्च बढ़ाए लोगों ने ,
इस आदत को अब छोड़ना होगा।

चालबाज आदर्श बना घूमता है ,
उसके मंसूबों को अब तोड़ना होगा।

झूठा अब तोहमतें  लगा रहा ,
उसे सच्चाई से जोड़ना होगा।

आतंक सैलाब में बदल गया ,
इसका बहाव अब मोड़ना होगा।

लोभ लालच अब हमें डरा रहा,
हमें सतयुग की ओर लौटना होगा।

सब मिल कर करें कुछ अनूठा,
हमें टूटे हुओं को जोड़ना होगा।
" काटने दौड़ा घर
अचानक मेरे पीछे,
जब जिन्दगी बितानी पड़ी,
तुम्हारी अम्मा के हरि चरणों में
जा विराजने के बाद,उस भाग्यवान के बगैर।"


"यह सब अक्सर
बाबू जी दोहराया करते थे,
हमें देर तक समझाया करते थे,
वे रह रह कर के कहते थे,
"मिल जुल कर रहा करो।
छोटी छोटी बातों पर
कुत्ते बिल्ली सा न लड़ा करो ।"


एक दिन अचानक
बाबूजी भी अम्मा की राह चले गए।
अनजाने ही एकदम हमें बड़ा कर गए।
पर अफ़सोस...
हम आपस में लड़ते रहे,
घर के अंदर भी गुंडागर्दी करते रहे।
परस्पर एक दूसरे के अंदर
वहशत और हुड़दंग भरते रहे।


आप ही बताइए।
हम सभी कभी बड़े होंगे भी कि नहीं?
या बस जीवन भर मूर्ख बने रहेंगे!
बंदर बाँट के कारण लड़ते रहेंगे।
जीवन भर दुःख देते और दुखी करते रहेंगे।
ताउम्र दुःख, पीड़ा, तकलीफ़ सहेंगे!!
मगर समझौता नहीं करेंगे!
अहंकारी बने रहेंगे।

बस आप हमें समझाते रहें जी।
हमें अम्मा बापू की याद आती रहे।
हम उनके बगैर अधूरे हैं जी।
२०/०३/२००९.
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