चल पड़ा हूँ रस्तों पे मैं, कहीं तो मेरा घर होगा,
ना ईंटों से, ना दीवारों से — बस वो जहाँ सुकून होगा।
हर मुसाफ़िर कुछ ढूँढता है, मैं भी अपनी तलाश में,
दिल कहे बस एक ठिकाना, जो हो मेरी ही आस में।
ढूंढूं मैं अपना सा वो एक जहाँ,
जहाँ होगा मेरे सपनों का वो एक कारवाँ।
ढूंढूं मैं अपना सा वो एक कारवाँ,
ढूंढूं मैं अपना सा वो एक कारवाँ।
कभी किसी चेहरे में ढूँढा, कभी किसी ख़्वाब के गाँव में,
वो सुकून, वो रौशनी जो छुपा है मेरी ही आवाज़ में।
कोई रास्ता पूछे मुझसे, मैं खुद सफ़र में खोया हूँ,
ना मंज़िल का नाम पता है, ना जाने क्या खोया हूँ।
चाहत उसकी मेरे दिल में कुछ ऐसी है,
खड़े आसमानों में उड़ते परिंदे जैसी है।
चाहते हैं...
चाहते हैं...
चाहते हैं...
हर साया मुझे उसका लगे, हर राह पे उसका नाम लिखूं,
जिसे कभी देखा नहीं, फिर भी मैं हर साँस में ज़िक्र करूं।
ये दिल भी अजनबी सा है, ये जहाँ भी अधूरा सा,
कहीं तो होगी वो ज़मीन, जो लगे मुझे पूरा सा।
वो घर मेरा कुछ अपना सा घर तो नहीं,
लेकिन एक सुनहरे सपना सा।
शायद वो घर कोई चेहरा है, या कोई ठंडी शाम कहीं,
जो थाम ले मेरा हाथ यूँ, जैसे मैं कोई खोया नाम कहीं।
जब मिल जाएगा वो ठिकाना, साँसों में बह जाएगी धुन,
घर मिल जाएगा उस दिन, जब लगेगा — मैं हूँ मैं, पूरा पूर्ण।
(एक गीत उस घर की तलाश में जो दीवारों से नहीं, एहसासों से बना हो)