Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
 
अंधकार  का  जो साया था, 
तिमिर घनेरा जो छाया था,
निज निलयों में बंद पड़े  थे,
रोशन दीपक  मंद पड़े थे।

निज  श्वांस   पे पहरा  जारी,  
अंदर   हीं   रहना  लाचारी ,
साल  विगत था अत्याचारी,
दुख के हीं तो थे अधिकारी।

निराशा के बादल फल कर,
रखते  सबको घर के अंदर,
जाने  कौन लोक  से  आए,
घन घोर घटा अंधियारे साए।

कहते   राह  जरुरी  चलना ,
पर नर  हौले  हौले  चलना ,
वृथा नहीं हो जाए वसुधा  ,
अवनि पे हीं तुझको फलना।

जीवन की नूतन परिभाषा ,
जग  जीवन की नूतन भाषा  ,
नर में जग में पूर्ण समन्वय ,
पूर्ण जगत हो ये अभिलाषा।    

नए  साल  का नए  जोश से,
स्वागत करता नए होश से,
हौले  मानव  बदल  रहा है,
विश्व  हमारा संभल  रहा है।

अजय अमिताभ सुमन
जीवन  के   मधु प्यास  हमारे,
छिपे किधर  प्रभु  पास हमारे?
सब कहते तुम व्याप्त मही हो,
पर मुझको क्यों प्राप्त नहीं हो?

नाना शोध करता रहता  हूँ,
फिर भी  विस्मय  में रहता हूँ,
इस जीवन को तुम धरते हो,
इस सृष्टि  को  तुम रचते हो।

कहते कण कण में बसते हो,
फिर क्यों मन बुद्धि हरते हो ?
सक्त हुआ मन निरासक्त पे,
अभिव्यक्ति  तो हो भक्त पे ।

मन के प्यास के कारण तुम हो,
क्यों अज्ञात अकारण तुम हो?
न  तन  मन में त्रास बढाओ,
मेघ तुम्हीं हो प्यास बुझाओ।

इस चित्त के विश्वास  हमारे,
दूर   बड़े   हो   पास  हमारे।
जीवन   के  मधु  प्यास मारे,
किधर छिपे प्रभु पास हमारे?

अजय अमिताभ सुमन
गेहूँ       के   दाने    क्या   होते,
हल   हलधर  के परिचय देते,
देते    परिचय  रक्त   बहा  है ,
क्या हलधर का वक्त रहा है।

मौसम   कितना  सख्त रहा है ,
और हलधर कब पस्त रहा है,
स्वेदों के  कितने मोती बिखरे,
धार    कुदालों   के  हैं निखरे।

खेतों    ने  कई   वार  सहें  हैं,
छप्पड़  कितनी  बार ढ़हें  हैं,
धुंध   थपेड़ों   से   लड़   जाते ,
ढ़ह ढ़ह कर पर ये गढ़ जाते।

हार   नहीं   जीवन  से  माने ,
रार   यहीं   मरण   से   ठाने,
नहीं अपेक्षण भिक्षण का है,
हर डग पग पे रण हीं माँगे।

हलधर  दाने   सब  लड़ते हैं,
मौसम  पे  डटकर अढ़ते हैं,
जीर्ण  देह दाने भी क्षीण पर,
मिट्टी   में   जीवन   गढ़तें हैं।

बिखर  धरा पर जब उग  जाते ,
दाने     दुःख    सारे     हर जाते,
जब    दानों    से   उगते   मोती,
हलधर   के  सीने   की ज्योति।

शुष्क होठ की प्यास  बुझाते ,
हलधर    में    विश्वास  जगाते,
मरु   भूमि   के  तरुवर  जैसे,
गेहूँ       के     दाने    हैं   होते।

अजय अमिताभ सुमन
जमीर मेरा कहता जो करता रहा था तबतक ,
मिल रहा था मुझ को  क्या  बन के खुद्दार में।

बिकना जरूरी था  देख कर बदल गया,
बिक रहे थे कितने जब देखा अख़बार में।

हौले सीखता गया जो ना थी किताब में ,
दिल पे भारी हो चला दिमाग कारोबार में ।

सच की बातें ठीक है  पर रास्ते थोड़े अलग ,
तुम कह गए हम सह गए थोड़े से व्यापार में।

हाँ नहीं हूँ आजकल मैं जो कभी था कलतलक,
सच में सच पे टिकना ना था मेरे ईख्तियार में।

जमीर से डिग जाने का फ़न भी कुछ कम नहीं,
वक्त क्या है क़ीमत क्या मिल रही बाजार में।

तुम कहो कि जो भी है सच पे हीं कुर्बान हो ,
क्या जरुरी सच जो तेरा सच हीं हों संसार में।

वक्त  से जो लड़ पड़े पर क्या मिला है आपको,
हम तो चुप थे आ गए हैं देख अब सरकार में।
समाज  स्वयं से लड़ने वालों को नहीं बल्कि तटस्थ और चुप रहने वालों को  प्रोत्साहित करता है। या यूँ कहें कि जो अपनी जमीर से समझौता करके समाज में होने वाले अन्याय के प्रति तटस्थ और मूक रहते हैं , वो हीं ऊँचे पदों पे प्रतिष्ठित रहते हैं। यही हकीकत है समाज और तंत्र का।
रे मेरे अनुरागी चित्त मन,
सुन तो ले ठहरो तो ईक क्षण।
क्या है तेरी काम पिपासा,
थोड़ा सा कर ले तू मंथन।

कर मंथन चंचल हर क्षण में,
अहम भाव क्यों है कण कण में,
क्यों पीड़ा मन निज चित वन में,
तुष्ट नहीं फिर भी जीवन में।

सुन पीड़ा का कारण है भय,
इसीलिए करते नित संचय ,
निज पूजन परपीड़न अतिशय,
फिर भी क्या होते निःसंशय?

तो फिर मन तू स्वप्न सजा के,
भांति भांति के कर्म रचा के।
नाम प्राप्त हेतु करते जो,
निज बंधन वर निज छलते हो।

ये जो कति पय बनते  बंधन ,
निज बंधन बंध करते क्रंदन।
अहम भाव आज्ञान है मानो,
बंधन का परिणाम है जानो।

मृग तृष्णा सी नाम पिपासा,
वृथा प्यास की रखते आशा।
जग से ना अनुराग रचाओ ,
अहम त्यज्य वैराग सजाओ।

अभिमान जगे ना मंडित करना,
अज्ञान फले तो दंडित करना।
मृग तृष्णा की मात्र दवा है,
मन से मन को खंडित करना।

जो गुजर गया सो गुजर गया,
ना आने वाले कल का चिंतन।
रे मेरे अनुरागी चित्त मन,
सुन तो ले ठहरो तो ईक क्षण।
ये कविता आत्मा और मन से बीच संवाद पर आधारित है। इस कविता में आत्मा मन को मन के स्वरुप से अवगत कराते हुए मन के पार जाने का मार्ग सुझाती है ।
धुप में  छाँव में , गली हर ठांव में ,
थकते कहाँ थे कदम , मिटटी में गाँव में।

बासों की झुरमुट से , गौरैया लुक  छिप के ,
चुर्र चूर्र के फुर्र फुर्र के, डालों पे रुक रुक के।
कोयल की कु कु और , कौए के काँव में ,  
थकते कहाँ थे कदम , मिटटी में गाँव में।

फूलों की कलियाँ झुक , कहती  थी मुझसे कुछ ,
अड़हुल वल्लरियाँ सुन , भौरें की रुन झुन गुन।
उड़ने  को आतुर  पर , रहते थे  पांव में ,
थकते कहाँ थे कदम , मिटटी में गाँव में।

वो सत्तू की लिट्टी और चोखे का स्वाद   ,
आती है भुन्जे की चटनी की जब याद ।
तब दायें ना सूझे कुछ , भाए ना बाँव में ,
थकते कहाँ थे कदम  मिटटी में गाँव में।

बारिश में अईठां और गरई पकड़ना ,
टेंगडा  के काटे  पे  झट से  उछलना ।
कि हड्डा से बिरनी से पड़ते गिराँव में ,
थकते कहाँ थे कदम  मिटटी में गाँव में।

साईकिल को लंगड़ा कर कैंची चलाते ,
जामुन पर दोल्हा और पाती लगाते।
थक कर सुस्ताते फिर बरगद की छाँव में,
थकते कहाँ थे कदम  मिटटी में गाँव में।

गर्मी में मकई की ऊँची मचाने थी,
जाड़े  में घुर को तपती दलाने  थीं।
चीका की कुश्ती , कबड्डी  की दांव में,
थकते कहाँ थे कदम  मिटटी में गाँव में।

सीसम के छाले से तरकुल मिलाकर ,
लाल होठ करते थे पान  सा चबाकर ,
मस्ती क्या छाती थी कागज के नाँव में
थकते कहाँ थे कदम  मिटटी में गाँव में।

रातों को तारों सा जुगनू की टीम टीम वो,
मेढक की टर्र टर्र जब बारिश की रिमझिम हो।
रुन झुन आवाजें क्या झींगुर के झाव में,
थकते कहाँ थे कदम  मिटटी में गाँव में।

धुप में  छाँव में , गली हर ठांव में ,
थकते कहाँ थे कदम , मिटटी में गाँव में।
My heart is yours alone Lord,
to do with  what You will;
I only know with You Lord,
it's peaceful and it's still.
Free from a worried mind Lord,
free from a damaged life;
beating just for You Lord,
absent from all strife.
My heart is yours alone Lord,
to keep Your truth in hand;
to keep the narrow path Lord,
in the place that I now stand.
My soul is with You always,
I've turned my back on sin;
keeping Your commandments,
aware of where I've been.
My heart is yours alone Lord,
to sing You songs of praise;
humble and obedient,
until my final days.
Next page