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इन्सान की ये फितरत है अच्छी खराब भी,
दिल भी है दर्द भी है दाँत भी दिमाग भी ।
खुद को पहचानने की फुर्सत नहीं मगर,
दुनिया समझाने की  रखता है ख्वाब भी।

शहर को भटकता तन्हाई ना मिटती ,
रात के  सन्नाटों में रखता है आग भी।
पढ़ के हीं सीख ले ये चीज नहीं आदमी,
ठोकर के जिम्मे नसीहतों की किताब भी।

दिल की जज्बातों को रखना ना मुमकिन,
लफ्जों में  भर के पहुँचाता आवाज भी।
अँधेरों में छुपता है आदमी ये जान कर,
चाँदनी है अच्छी पर दिखते हैं दाग भी।

खुद से अकड़ता  है खुद से हीं लड़ता,
जाने जिद कैसी है  कैसा रुआब भी।
शौक भी तो पाले हैं दारू शराब क्या,
जीने की जिद पे मरने को बेताब भी।
खुद को जब खंगाला मैंने,
क्या बोलूँ क्या पाया मैंने?
अति कठिन है मित्र तथ्य वो,
बा मुश्किल ही मैं कहता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

हृदय रुष्ट है कोलाहल में,
जीवन के इस हलाहल में,
अनजाने चेहरे रच रचकर,
खुद हीं से खुद को ठगता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

नेत्र ईश ने सरल दिया था,
प्रीति युक्त मन तरल दिया था,
पर जब जग ने गरल दिया था,
विष प्याले मैं भी रचता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

ज्ञात नहीं मुझे क्या पथ्य है?
इस जीवन का क्या तथ्य है?
कभी सबेरा हो चमकूँ तो ,
कभी साँझ हो मैं ढलता हूँ ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

सुनता हूँ माया है जग तो,
जो साया है छाया डग तो,
पर हो जीत कभी ईक पग तो,
विजय हर्ष को मैं चढ़ता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ ।

छद्म जीत पर तृष्णा जगती,
चिंगारी बन फलती रहती,
मरु स्वपन में हाथ नीर ले,
प्यासा हो हर क्षण गलता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

मन में जो मेरे चलता है ,
आईने में क्या दिखता है?
पर जब तम अंतस खिलता है ,
शब्दों से निज को ढंकता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

जिस पथ का राही था मैं तो,
प्यास रही थी जिसकी मूझको,
निज सत्य का उदघाटन करना,
मुश्किल होता मैं डरता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ ।

जाने राह कौन सी उत्तम,
करता रहता नित मन मंथन,
योग कठिन अति भोग छद्म है,
अक्सर संशय में रहता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ ।

कुछ कहते अंदर को जाओ,
तब जाकर तुम निज को पाओ,
पर मुझमे जग अंदर दिखता ,
इसीलिए बाहर पढ़ता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

अंदर बाहर के उलझन में ,
सुख के दुख के आव्रजन में,
किंचित आस जगे गरजन में,
रात घनेरी पर बढ़ता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।
युवराज हे क्या कारण, क्यों खोये निज विश्वास?
मुखमंडल पे श्यामल बादल ,क्यूँ तुम हुए निराश?
चुप चाप  खोये  से रहते ,ये  कैसा कौतुक  है?
इस राष्ट्र के भावी शासक,पे आया क्या दुःख है?

आप  मंत्री वर  बुद्धि ज्ञानी ,मैं ज्ञान आयु में आधा ,
ना निराश हूँ लेकिन दिल में,सिंचित है छोटी एक बाधा.
पर आपसे कह दूँ ऐसे ,कैसे थोड़ा सा घबड़ाऊँ
पितातुल्य हैं श्रेयकर मेरे,इसीलिए थोड़ा सकुचाऊँ .     

अहो कुँवर मुझसे कहने में, आन पड़ी ये कैसी बाधा?
जो भी विपदा तेरी राजन, हर लूँगा है मेरा वादा .
तब जाकर थोड़ा सकुचा के, कहता है युव राज,
मेरे  दिल पे एक तरुणी  का, चलने लगा है राज .

वो तरुणी  मेरे मन पर ,हर दम यूँ छाई रहती है ,
पर उसको ना पाऊँ मैं,किंचित परछाई लगती है.
हे मंत्री वर उस तरुणी का, कैसे भी पहचान करें,
उसी प्रेम का राही मैं हूँ, इसका एक निदान करें .

नाम देश ना ज्ञात कुँवर को , पर तदवीर बताया,
आठ साल की कन्या का,उनको तस्वीर दिखाया.
उस तरुणी के मृदु चित्र , का मंत्री ने संज्ञान लिया ,
विस्मित होकर बोले फिर, ये कैसा अभियान दिया .

अहो कुँवर तेरा भी कैसा,अद्भुत है  ये काम
ये तस्वीर तुम्हारी हीं,क्या वांछित है परिणाम?
तेरी माता को पुत्र था, पुत्री की भी चाहत थी ,
एक कुँवर से तुष्ट नहीं न, मात्र पुत्र से राहत थी .

चाहत जो थी पुत्री की , माता ने यूँ साकार किया,
नथुनी लहंगे सजा सजा तुझे ,पुत्री का आकार दिया.
छिपा कहीं रखा था जिसको, उस पुत्री का चित्र यही है,
तुम प्रेम में पड़ गये खुद के , उलझन ये विचित्र यही है .

उस कन्या को कहो कहाँ, कैसे तुझको ले आऊं मैं ?
अद्भुत माया ईश्वर की , तुझको कैसे समझाऊँ मैं ?
तुम्हीं कहो ये चित्र सही पर , ये चित्र तो सही नहीं ,
मन का प्रेम तो सच्चा तेरा , पर प्रेम वो कहीं नहीं .

कुँवर  प्रेम  ये  तेरा वैसा  , जैसा मैं जग से करता हूँ ,
खुद हीं से मैं निर्मित करता खुद हीं में विस्मित रहता हूँ .        
मनोभाव तुम्हारा हीं ठगता ,इससे  हीं व्याप्त रहा जग तो ,  
हाँ ये अपना पर सपना है,पर सपना  प्राप्त हुआ किसको?
ये कविता एक बुजुर्ग , बुद्धिमान मंत्री और उसके एक अविवाहित राजकुमार के बीच वार्तालाप पर आधारित है. राजकुमार हताशा की स्थिती में महल के प्राचीर पर बैठा है . मंत्री जब राजकुमार से हताशा का कारण पूछते हैं , तब राजकुमार उनको कारण बताता है. फिर उत्तर देते हुए मंत्री राजकुमार की हताशा और इस जग के मिथ्यापन के बीच समानता को कैसे उजागर करते हैं, आइये देखते हैं इस कविता में .
झूठ हीं फैलाना कि,सच हीं में यकीनन,
कैसी कैसी बारीकियाँ बाजार के साथ।
औकात पे नजर हैं जज्बात बेअसर हैं ,
शतरंजी चाल बाजियाँ करार के साथ।

दास्ताने क़ुसूर दिखा के क्या मिलेगा,
छिप जातें गुनाह हर अखबार के साथ।
नसीहत-ए-बाजार में आँसू बावक्त आज,
दाम हर दुआ की बीमार के साथ।

दाग जो हैं पैसे से होते बेदाग आज ,
आबरू बिकती दुकानदार के साथ।
सच्ची जुबाँ की है मोल क्या तोल क्या,
गिरवी न माँगे क्या क्या उधार के साथ।

आन में भी क्या है कि शान में भी क्या ,
ना जीत से है मतलब ना हार के साथ।
फायदा नुकसान की हीं बात जानता है,
यही कायदा कानून है बाजार के साथ।

सीख लो बारीकियाँ ,ये कायदा, ये फायदा,
हँसकर भी क्या मिलेगा लाचार के साथ।
बाज़ार में खड़े हो जमीर रख के आना,
चलते नहीं हैं सारे खरीददार के साथ।
शैतानियों के बल पे,दिखाओ बच्चों चल के,
ये देश जो हमारा, खा जाओ इसको तल के।

किताब की जो पाठे  तुझको पढ़ाई  जाती,
जीवन में सारी बातें कुछ काम हीं ना आती।

गिरोगे हर कदम तुम सीखोगे सच जो कहना,
मक्कारी सोना चांदी और झूठ हीं है गहना।

जो भी रहा है सीधा जीता है गल ही गल के,
चापलूस हीं चले हैं फैशन हैं आजकल के ।

इस राह जो चलोगे छा जाओगे तू फल के,
ये देश जो हमारा, खा जाओ इसको तल के।
जाके कोई क्या पुछे भी,
आदमियत के रास्ते।
क्या पता किन किन हालातों,
से गुजरता आदमी।

चुने किसको हसरतों ,
जरूरतों के दरमियाँ।
एक को कसता है तो,
दुजे से पिसता आदमी।

जोर नहीं चल रहा है,
आदतों पे आदमी का।
बाँधने की घोर कोशिश
और उलझता आदमी।

गलतियाँ करना है फितरत,
कर रहा है आदतन ।
और सबक ये सीखना कि,
दुहराता है आदमी।

वक्त को मुठ्ठी में कसकर,
चल रहा था वो यकीनन,
पर न जाने रेत थी वो,
और फिसलता आदमी।

मानता है ख्वाब दुनिया,
जानता है ख्वाब दुनिया।
और अधूरी ख्वाहिशों का,
ख्वाब  रखता आदमी।

आया हीं क्यों जहान में,
इस बात की खबर नहीं,
इल्ज़ाम तो संगीन है,
और बिखरता आदमी।

"अमिताभ"इसकी हसरतों का,
क्या बताऊं दास्ताँ।
आग में जल खाक बनकर,
राख रखता आदमी।
कवि यूँ हीं नहीं विहँसता है,
है ज्ञात तू सबमें बसता है,
चरणों में शीश झुकाऊँ मैं,
और क्षमा तुझी से चाहूँ मैं।

दुविधा पर मन में आती है,
मुझको विचलित कर जाती है ,
यदि परमेश्वर सबमें  होते,
तो कुछ नर  क्यूँ ऐसे होते?

जिन्हें स्वार्थ साधने आता है,
कोई कार्य न दूजा भाता है,
न औरों का सम्मान करें ,
कमजोरों का अपमान करें।

उल्लू नजरें है जिनकी औ,
गीदड़ के जैसा है आचार,
छली प्रपंची लोमड़ जैसे,
बगुले जैसा इनका प्यार।

कौए सी है इनकी वाणी,
करनी है खुद की मनमानी,
डर जाते चंडाल कुटिल भी ,
मांगे शकुनी इनसे पानी।

संचित करते रहते ये धन,
होते मन के फिर भी निर्धन,
तन रुग्ण  है संगी साथी ,
पर  परपीड़ा के अभिलाषी।

जोर किसी पे ना चलता,
निज-स्वार्थ निष्फलित है होता,
कुक्कुर सम दुम हिलाते हैं,
गिरगिट जैसे हो जाते हैं।

कद में तो छोटे होते हैं ,
पर साये पे हीं होते है,
अंतस्तल में जलते रहते,
प्रलयानिल रखकर सोते हैं।

गर्दभ जैसे अज्ञानी  है,
हाँ महामुर्ख अभिमानी हैं।
पर होता मुझको विस्मय,
करते रहते नित दिन अभिनय।

प्रभु कहने से ये डरता हूँ,
तुझको अपमानित करता हूँ ,
इनके भीतर तू हीं रहता,
फिर जोर तेरा क्यूँ ना चलता?

क्या गुढ़ गहन कोई थाती ये?
ईश्वर की नई प्रजाति ये?
जिनको न प्रीत न मन भाये,
डर की भाषा हीं पतियाये।
  
अति वैभव के हैं जो भिक्षुक,
परमार्थ फलित ना हो ईक्छुक,
जब भी बोले कर्कश वाणी,
तम अंतर्मन है मुख दुर्मुख।

कहते प्रभु जब वर देते हैं ,
तब जाके हम नर होते हैं,
पर है अभिशाप नहीं ये वर,
इनको कैसे सोचुं ईश्वर?
  
ये बात समझ ना आती है,
किंचित विस्मित कर जाती है,
क्यों कुछ नर ऐसे होते हैं,
प्रभु क्यों नर ऐसे होते हैं?

अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
कवि को ज्ञात है कि ईश्वर हर जगह बसता है. फिर भी वह कुछ ऐसे लोगों के संपर्क में आता है , जो काफी नकारात्मक हैं . कवि चाह कर भी इन तरह के लोगों में प्रभु के दर्शन नहीं कर पाता . इन्हीं परिस्थियों में कवि के मन में कुछ प्रश्न उठते हैं , जिन्हें वो इस कविता के माध्यम से ईश्वर से पूछता है .
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