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Once husband & wife ,
decided to toss,
You are my boss or
Am I your boss?

Husband was certain that
he was, with a grin,
But little did he know,
What was the spin?

Wife thought over and
over for that fight,
Not getting solution
She chose to strike.

What could be effect,
You can just guess,
That Wife relaxing and
husband in a mess.

He tried to do laundry
but burnt his T-Shirt,
The house looked clumsy
scrambled one just.

Made an effort to clean
But it all looks crude,
Attempted in kitchen too,
but burn the food,

Begging or pleading
In vain she wouldn't budge.
He noticed her value,  
not need to fudge.

With an empty stomach ,
in hunger at loss,
He came to conclusion ,
That She was the boss.

Ajay Amitabh Suman
All Rights Reserved
=====
As the new year
approaches with glee,
We must remember
one thing, you see.
=====
Let's ring in the year
ahead with cheer,
But not to forget the
threat that's here.
=====
The COVID not gone,
still here to stay,
We have to take
precaution every day.
=====
Washing one's hands
wearing the mask,
Social distancing
should be one's task.
=====
Avoiding the crowds
staying at home,
This is only way left
not to be alone.
=====
The vaccine of COVID
brings hope to heart,
But everyone has to
take vaccine take part.
=====
By following instructions,
all duty assigned,
We can help each other
and ease our mind.
=====
I wish you all happy
and healthy new year,
May it  bring you bliss
and joy minus  fear.
=====
Ajay Amitabh Suman:
All Rights Reserved
=====
ना माथे पर शिकन कोई,
ना रूह में कोई भय है,
ना दहशत हीं फैली ,
ना हिंसा परलय है
हादसा हुआ तो है,
लहू भी बहा मगर,
खबर भी बन जाए,
अभी ना तय है,
माहौल भी नरम है,
अफवाह ना गरम है,
आवाम में अमन है,
कोई रोष ना भरम है,
बिखरा नहीं चमन है ,
अभी आंख तो नरम है
थोड़ी बात तो बढ़ जाए,
थोड़ी आग तो लग जाए,
रहने दो खबर बाकी,
रहने दो असर बाकी,
लोहा जो कुछ गरम हो,
असर तभी चरम हो,
ठहरो कि कुछ पतन हो ,
कुछ राख में वतन हो,
अभी खाक क्या मिलेगा,
खबर में कुछ भी दम हो,
अखबार में आ जाए,
अभी ना समय है,
सही ना समय है,
सही ना समय है।

अजय अमिताभ सुमन
=====
क्षुधा प्यास में रत मानव को ,
हम भगवान बताएं कैसे?
परम तत्व बसते सब नर में ,
ये पहचान कराएं कैसे?
=====
ईश प्रेम नीर गागर है वो,
स्नेह प्रणय रतनागर है वो,
वही ब्रह्मा में विष्णु शिव में ,
सुप्त मगर प्रतिजागर है वो।
पंचभूत चल जग का कारण ,
धरणी को करता जो धारण,
पल पल प्रति क्षण क्षण निष्कारण,
कण कण को जनता दिग्वारण ,
नर इक्षु पर चल जग इच्छुक,
ये अभिज्ञान कराएं कैसे?
परम तत्व बसते सब नर में ,
ये पहचान कराएं कैसे?
=====
कहते मिथ्या है जग सारा ,
परम सत्व जग अंतर्धारा,
नर किंतु पोषित मिथ्या में ,
कभी छद्म जग जीता हारा,
सपन असल में ये जग है सब ,
परम सत्य है व्यापे हर पग ,
शुष्क अधर पर काँटों में डग ,
राह कठिन अति चोटिल है पग,  
और मानव को क्षुधा सताए ,
फिर ये भान कराएं कैसे?
परम तत्व बसते सब नर में ,
ये पहचान कराएं कैसे?
=====
क्षुधा प्यास में रत मानव को ,
हम भगवान बताएं कैसे?
परम तत्व बसते सब नर में ,
ये पहचान कराएं कैसे?
=====
अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
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कहते हैं कि ईश्वर ,जो कि त्रिगुणातित है, अपने मूलस्व रूप में आनंद हीं है, इसीलिए तो उसे सदचित्तानंद के नाम से भी जाना जाता है। इस परम तत्व की एक और विशेषता इसकी सर्वव्यापकता है यानि कि चर, अचर, गोचर , अगोचर, पशु, पंछी, पेड़, पौधे, नदी , पहाड़, मानव, स्त्री आदि ये सबमें व्याप्त है। यही परम तत्व इस अस्तित्व के अस्तित्व का कारण है और परम आनंद की अनुभूति केवल इसी से संभव है। परंतु देखने वाली बात ये है कि आदमी अपना जीवन कैसे व्यतित करता है? इस अस्तित्व में अस्तित्वमान क्षणिक सांसारिक वस्तुओं से आनंद की आकांक्षा लिए हुए निराशा के समंदर में गोते लगाता रहता है। अपनी अतृप्त वासनाओं से विकल हो आनंद रहित जीवन गुजारने वाले मानव को अपने सदचित्तानंद रूप का भान आखिर हो तो कैसे? प्रस्तुत है मेरी कविता "भगवान बताएं कैसे :भाग-1"?
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क्या रखा है वक्त गँवाने
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
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अर्धसत्य पर कथ्य क्या हो
वाद और प्रतिवाद कैसा?
तथ्य का अनुमान क्या हो
ज्ञान क्या संवाद कैसा?
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प्राप्त क्या बिन शोध के
बिन बोध के अज्ञान में ?
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
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जीवन है तो प्रेम मिलेगा
नफरत के भी हाले होंगे ,
अमृत का भी पान मिलेगा
जहर उगलते प्याले होंगे ,
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समता का तू भाव जगा
क्या हार मिले सम्मान में?
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
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जो बिता वो भूले नहीं
भय है उससे जो आएगा ,
कर्म रचाता मानव जैसा
वैसा हीं फल पायेगा।
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यही एक है अटल सत्य
कि रचा बसा लो प्राण में ,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
==============
क्या रखा है वक्त गँवाने
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।
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अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
विवाद अक्सर वहीं होता है, जहां ज्ञान नहीं अपितु अज्ञान का वास होता है। जहाँ ज्ञान की प्रत्यक्ष अनुभूति  होती है, वहाँ  वाद, विवाद या प्रतिवाद क्या स्थान ?  आदमी के हाथों में  वर्तमान समय के अलावा कुछ भी नहीं होता। बेहतर तो ये है कि इस अनमोल पूंजी को  वाद, प्रतिवाद और विवाद में बर्बाद करने के बजाय अर्थयुक्त संवाद में लगाया जाए, ताकि किसी अर्थपूर्ण निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके।
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तेरी पर चलती रहे दुकान,
मान गए भई पलटू राम।
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कभी भतीजा अच्छा लगता,
कभी भतीजा कच्चा लगता,
वोहीं जाने क्या सच्चा लगता,
ताऊ का कब  नया पैगाम ,
अदलू, बदलू, डबलू  राम,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
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जहर उगलते अपने चाचा,
जहर निगलते अपने चाचा,
नीलकंठ बन छलते चाचा,
अजब गजब है तेरे काम ,
ताऊ चाचा रे तुझे  प्रणाम,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
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केवल चाचा हीं ना कम है,
भतीजा भी एटम बम है,
कल गरम था आज नरम है,
ये भी कम ना सलटू राम,
भतीजे को भी हो सलाम,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
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मौसम बदले चाचा बदले,
भतीजे भी कम ना बदले,
पकड़े गर्दन गले भी पड़ले।
क्या बच्चा क्या चाचा जान,
ये भी वो भी पलटू राम,
इनकी चलती रहे दुकान।
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कभी ईधर को प्यार जताए,
कभी उधर पर कुतर कर खाए,
कब किसपे ये दिल आ जाए,
कभी ईश्क कभी लड़े धड़ाम,
रिश्ते नाते सब कुर्बान,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
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थूक चाट के बात बना ले,
जो  मित्र था घात लगा ले,
कुर्सी को हीं जात बना ले,
कुर्सी से हीं दुआ सलाम,
मान गए भई पलटू राम,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
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अहम गरम है भरम यही है,
ना आंखों में शरम कहीं है,
सबकुछ सत्ता धरम यही है,
क्या वादे कैसी है जुबान ,
कुर्सी चिपकू बदलू राम,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
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चाचा भतीजा की जोड़ी कैसी,
बुआ और बबुआ के जैसी,
लपट कपट कर झटक हो वैसी,
ताक पे रख कर सब सम्मान,
धरम करम इज्जत  ईमान,
तेरी पर चलती रहे दुकान।
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अदलू, बदलू ,झबलू राम,
मान  गए भई पलटू राम।
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
इस सृष्टि में बदलाहटपन स्वाभाविक है। लेकिन इस बदलाहटपन में भी एक नियमितता है। एक नियत समय पर हीं दिन आता है, रात होती है। एक नियत समय पर हीं मौसम बदलते हैं। क्या हो अगर दिन रात में बदलने लगे? समुद्र सारे नियमों को ताक पर रखकर धरती पर उमड़ने को उतारू हो जाए? सीधी सी बात है , अनिश्चितता का माहौल बन जायेगा l भारतीय राजनीति में कुछ इसी तरह की अनिश्चितता का माहौल बनने लगा है। माना कि राजनीति में स्थाई मित्र और स्थाई शत्रु नहीं होते , परंतु इस अनिश्चितता के माहौल में कुछ तो निश्चितता हो। इस दल बदलू, सत्ता चिपकू और पलटूगिरी से जनता का भला कैसे हो सकता है? प्रस्तुत है मेरी व्ययंगात्मक कविता "मान गए भई पलटू राम"।
क्या रखा है वक्त गँवाने,
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।

पुरावृत्त के पृष्ठों में
अंकित कैसे व्यवहार हुए?
तेरे जो पूर्वज थे जाने
कितने अत्याचार सहे?

बीत गई काली रातें अब
क्या रखना निज ध्यान में?
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।

इतिहास का ध्येय मात्र
इतना त्रुटि से बच पाओ,
चूक हुई जो पुरखों से
तुम भी करके ना पछताओ।

इतिवृत्त इस निमित्त नहीं कि
गरल भरो निज प्राण में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।

भूतकाल से वर्तमान की
देखो कितनी राह बड़ी है ,
त्यागो ईर्ष्या अग्नि जानो
क्षमा दया की चाह बड़ी है।

प्रेम राग का मार्ग बनाओ
क्या मत्सर विष पान में?  
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।

क्या रखा है वक्त गँवाने
औरों के आख्यान में,
वर्तमान से वक्त बचा लो
तुम निज के निर्माण में।

अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
इतिहास गवाह है , हमारे देशवासियों ने गुलामी की जंजीरों को लंबे अरसे तक सहा है। लेकिन इतिहास के इन काले अध्यायों को पढ़कर हृदय में नफरत की अग्नि को प्रजवल्लित करते रहने से क्या फायदा? बदलते हुए समय के साथ क्षमा का भाव जगाना हीं श्रेयकर है।  हमारे पूर्वजों द्वारा की गई गलतियों के प्रति सावधान होना श्रेयकर है ना कि हृदय को प्रतिशोध की ज्वाला में झुलसाते रहना । प्रस्तुत है मेरी कविता "वर्तमान से वक्त बचा लो तुम निज के निर्माण में" का चतुर्थ भाग।
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