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दृढ़ निश्चयी अनिरुद्ध अड़ा है ना कोई  विरुद्ध खड़ा है।   
जग की नज़रों में काबिल पर चेतन अंतर रूद्ध डरा है।
घन तम गहन नियुद्ध पड़ा है चित्त किंचित अवरुद्ध बड़ा है।
अभिलाषा के श्यामल बादल  काटे क्या अनुरुद्ध पड़ा है।
स्वयं जाल ही निर्मित करता और स्वयं ही क्रुद्ध खड़ा है।
अजब द्वंद्व है दुविधा तेरी  मन चितवन निरुद्ध बड़ा है।
तबतक जगतक दौड़ लगाते जबतक मन सन्निरुद्ध पड़ा है।
किस कीमत पे जग हासिल है चेतन मन अबुद्ध अधरा है।
अरि दल होता किंचित हरते निज निज से उपरुद्ध अड़ा है।
किस शिकार का भक्षण श्रेयकर तू तूझसे प्रतिरुद्ध पड़ा है।
निज निश्चय पर संशय अतिशय मन से मन संरुद्ध  लड़ा है।
मन चेतन संयोजन क्या  जब खुद से तेरा युद्ध पड़ा है।

अजय अमिताभ सुमन
जीवन यापन के लिए बहुधा व्यक्ति को वो सब कुछ करना पड़ता है , जिसे उसकी आत्मा सही नहीं समझती, सही नहीं मानती । फिर भी भौतिक प्रगति की दौड़ में स्वयं के विरुद्ध अनैतिक कार्य करते हुए आर्थिक प्रगति प्राप्त करने हेतु अनेक प्रयत्न करता है और भौतिक समृद्धि प्राप्त भी कर लेता है , परन्तु उसकी आत्मा अशांत हो जाती है। इसका परिणाम स्वयं का स्वयम से विरोध , निज से निज का द्वंद्व।  विरोध यदि बाहर से हो तो व्यक्ति लड़ भी ले , परन्तु व्यक्ति का सामना उसकी आत्मा और अंतर्मन से हो तो कैसे शांति स्थापित हो ? मानव के मन और चेतना के अंतर्विरोध को रेखांकित करती हुई रचना ।
रोज उठकर सबेरे पेट के जुगाड़ में, 
क्या न क्या करता रहा है आदमी बाजार में।
सच का दमन पकड़ के घर से निकलता है जो,
झूठ की परिभाषाओं से गश खा जाता है वो।

औरों की बातें है झूठी औरों की बातों में खोट,
और मिलने पे सड़क पे छोड़े ना दस का भी नोट।
तो डोलते हुए जगत में डोलता इंसान है,
डिग रहा है आदमी कि डिग रहा ईमान हैं।

झूठ के बाज़ार में हैं  खुद हीं ललचाए हुए,
रूह में चाहत बड़ी है आग लहकाए हुए।
तो तन बदन में आग लेके चल रहा है आदमी,
आरजू की ख़ाक में भी जल रहा है आदमी।

टूटती हैं हसरतें जब रुठतें जब ख्वाब हैं,
आदमी में कुछ बचा जो  लुटती अज़ाब हैं।
इन दिक्कतों मुसीबतों में आदमी बन चाख हैं,
तिस पे ऐसी वैसी कैसी आदतें गुस्ताख़ है।

उलझनों में खुद उलझती ऐसी वैसी आदतें,
आदतों पे खुद हैं रोती कैसी कैसी आदतें।
जाने कैसी आदतों से अक्सर हीं लाचार है,
आदमी का आदमी होना बड़ा दुश्वार है।

अजय अमिताभ सुमन
सत्य का पालन करना श्रेयकर है। घमंडी होना, गुस्सा करना, दूसरे को नीचा दिखाना , ईर्ष्या करना आदि को निंदनीय माना  गया है। जबकि चापलूसी करना , आत्मप्रशंसा में मुग्ध रहना आदि को घृणित कहा जाता है। लेकिन जीवन में इन आदर्शों का पालन कितने लोग कर पाते हैं? कितने लोग ईमानदार, शांत, मृदुभाषी और विनम्र रह पाते हैं।  कितने लोग इंसान रह पाते हैं? बड़ा मुश्किल होता है , आदमी का आदमी बने रहना।
इस सृष्टि में हर व्यक्ति को, आजादी अभिव्यक्ति की,
व्यक्ति का निजस्वार्थ फलित हो,नही चाह ये सृष्टि की।
जिस नदिया की नौका जाके,नदिया के हीं धार बहे ,
उस नौका को किधर फ़िक्र कि,कोई ना पतवार रहे?
लहरों से लड़ने भिड़ने में , उस नौका का सम्मान नहीं,
विजय मार्ग के टल जाने से, मंजिल का अवसान नहीं।

जिन्हें चाह है इस जीवन में,स्वर्णिम भोर उजाले  की,
उन  राहों पे स्वागत करते,घटा टोप अन्धियारे भी।
इन घटाटोप अंधियारों का,संज्ञान अति आवश्यक है,
गर तम से मन में घन व्याप्त हो,सारे श्रम निरर्थक है।
आड़ी तिरछी सी गलियों में, लुकछिप रहना त्राण नहीं,
भय के मन में फल जाने से ,भला लुप्त निज ज्ञान कहीं?

इस जीवन में आये हो तो,अरिदल के भी वाण चलेंगे,
जिह्वा से अग्नि  की वर्षा , वाणि  से अपमान फलेंगे।
आंखों में चिंगारी तो क्या, मन मे उनके विष गरल हो,
उनके जैसा ना बन जाना,भाव जगे वो देख सरल हो।
वक्त पड़े तो झुक  जाने में, खोता  क्या सम्मान कहीं?
निज-ह्रदय प्रेम से रहे आप्त,इससे बेहतर उत्थान नहीं।

अजय अमिताभ सुमन
एक व्यक्ति के जीवन में उसकी ईक्क्षानुसार घटनाएँ प्रतिफलित नहीं होती , बल्कि घटनाओं को  प्रतिफलित करने के लिए प्रयास करने पड़ते हैं। समयानुसार झुकना पड़ता है । परिस्थिति के अनुसार  ढ़लना पड़ता है । उपाय के रास्ते अक्सर दृष्टिकोण के परिवर्तित होने पर दृष्टिगोचित होने लगते हैं। बस स्वयं को हर तरह के उपाय के लिए खुला रखना पड़ता है। प्रकृति का यही रहस्य है , अवसान के बाद उदय और श्रम के बाद विश्राम।
Howsoever it may look,
it may sound,
But no other way till date,
I have  found.

For tasting the heaven,
the God's domain,
Give up the counting ,
what loss or Gain.

For God is not  loss and
  benifit you count,
Nor he can be bought
what be the  amount.

You hear the sound  ,
the whistle of train,
But never you find,
the whistle of train.

If candle will try,
for catching  the heat ,
And music will try for,
catching drum beat.

Can cloud get success,
in catching the rain?
And can a bird find,
sky the empty terrain.?

Like fish never fathom,
what water what sea,
And fruit  seldom find,
  the bud and the tree.

For  a Fish  is in  water,
and a bird in  sky,
Sea cannot be found  ,
whatever fish   try.

As breathing not separate
from body from life,
And  family  just dependent
on  part of a  wife.

God' business is different,
and different his way,
He is closest  of the  closest,
and still far away.

A man is not separate,
nor different from God,
No question disecting ,
the source with a sword.

The Proof  of heaven is ,
within you my friend,
Just venture your search,
in your heart's terrain.

Ajay Amitabh Suman
A man keeps on looking for God in whole of the world, but seldom succeed in his effort. His effort is  just like a fish looking to find the sea and a bird try to find out the sky. It is very difficult for them to find the sea and sky. In fact fish and bird are imseparable part of the sea and the sky. The only path is to took within themselves. Similar is the situation with Man. Man and God are not separate. When a man starts looking within, it will find the proof of heaven, ultimate abode of the God.
अनुभव  के अतिरिक्त कोई आधार नहीं ,
परमेश्वर   का   पथ   कोई  व्यापार  नहीं।
प्रभु में हीं जीवन कोई संज्ञान  क्या लेगा?
सागर में हीं मीन भला  प्रमाण क्या  देगा?

खग   जाने   कैसे  कोई आकाश  भला?
दीपक   जाने  क्या  है  ये  प्रकाश भला?
जहाँ  स्वांस   है  प्राणों  का  संचार  वहीं,
जहाँ  प्राण  है  जीवन  का आधार  वहीं।

ईश्वर   का   क्या  दोष  भला   प्रमाण में?
अभिमान सजा के तुम हीं हो अज्ञान में।
परमेश्वर   ना  छद्म   तथ्य  तेरे  हीं  प्राणी,
भ्रम का   है  आचार  पथ्य  तेरे अज्ञानी ।

कभी  कानों से सुनकर  ज्ञात नहीं  ईश्वर ,
कितना भी  पढ़  लो  प्राप्त ना  परमेश्वर।
कह कर प्रेम  की बात भला  बताए कैसे?
हुआ  नहीं  हो  ईश्क उसे समझाए कैसे?

परमेश्वर में  तू  तुझी   में  परमेश्वर ,
पर  तू  हीं  ना  तत्तपर  नहीं कोई अवसर।
दिल  में  है  ना    प्रीत   कोई उदगार  कहीं,
अनुभव  के अतिरिक्त  कोई  आधार नहीं।

अजय अमिताभ सुमन
मानव ईश्वर को पूरी दुनिया में ढूँढता फिरता है । ईश्वर का प्रमाण चाहता है, पर प्रमाण मिल नहीं पाता। ये ठीक वैसे हीं है जैसे कि मछली सागर का प्रमाण मांगे, पंछी आकाश का और दिया रोशनी का प्रकाश का। दरअसल मछली के लिए सागर का प्रमाण पाना बड़ा मुश्किल है।  मछली सागर से भिन्न नहीं है । पंछी  और आकाश एक हीं है । आकाश में हीं है पंछी । जहाँ दिया है वहाँ प्रकाश है। एक दुसरे के अभिन्न अंग हैं ये। ठीक वैसे हीं जीव ईश्वर का हीं अंग है। जब जीव खुद को जान जाएगा, ईश्वर को पहचान जाएगा। इसी वास्तविकता का उद्घाटन करती है ये कविता "प्रमाण"।
आसाँ  नहीं  समझना हर बात आदमी के,
कि हँसने पे हो जाते वारदात आदमी के।
सीने  में जल रहे है अगन दफ़न दफ़न से ,
बुझे  हैं ना  कफ़न से अलात आदमी  के?

ईमां  नहीं  है जग  पे ना खुद पे है भरोसा,
रुके कहाँ  रुके हैं सवालात  आदमी के?
दिन  में  हैं  बेचैनी और रातों को उलझन,
संभले   नहीं   संभलते  हयात आदमी के।

दो  गज   जमीं   तक  के छोड़े ना अवसर,
ख्वाहिशें   बहुत   हैं दिन रात आदमी के।
बना  रहा था कुछ भी जो काम कुछ न आते,  
जब मौत आती मुश्किल हालात आदमी के।

खुदा  भी  इससे हारा इसे चाहिए जग सारा,
अजीब  सी है फितरत खयालात आदमी के।
वक्त  बदलने पे  वक़्त भी तो  बदलता है,
पर एक  नहीं  बदलता ये जात आदमी के।

अजय अमिताभ सुमन
आदमी का जीवन द्वंद्व से भरा हुआ है। एक व्यक्ति अपना जीवन ऐसे जीता है जैसे कि पूरे वक्त की बादशाहत इसी के पास हो। जबकि हकीकत में एक आदमी की औकात वक्त की बिसात पे एक टिमटिमाते हुए चिराग से ज्यादा कुछ नहीं। एक व्यक्ति का पूरा जीवन इसी तरह की द्वन्द्वात्मक परिस्थियों का सामना करने में हीं गुजर जाता है और वक्त रेत के ढेर की तरह मुठ्ठी  से फिसलता हीं चला जाता है। अंत में निराशा के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगता । व्यक्ति के इसी द्वंद्व को रेखांकित करती है ये कविता"जात आदमी के"।
राशन   भाषण  का  आश्वासन 
देकर कर  बेगार  खा गई।
रोजी रोटी लक्कड़ झक्कड़ खप्पड़
सब सरकार खा गई।
 
देश   हमारा   है    खतरे   में,  
कह    जंजीर    लगाती   है।
बचे   हुए   थे  अब तक जितने,
हौले से अधिकार खा गई।

खो खो  के घर  बार जब अपना ,
जनता  जोर  लगाती है।
सब्ज बाग से  सपने देकर ,
सबके  घर  परिवार  खा गई।

सब्ज  बाग  के  सपने    की   भी, 
बात  नहीं  पूछो   भैया।
कहती  बारिश बहुत हुई है,
सेतु, सड़क, किवाड़  खा  गई।

खबर उसी की शहर उसी के ,
दवा उसी की  जहर उसी  के,
जफ़र उसी की असर बसर भी
करके सब लाचार खा गई।

कौन  झूठ से  लेवे   पंगा ,
हक    वाले   सब   मुश्किल में।
सच में झोल बहुत हैं प्यारे ,
नुक्कड़ और बाजार खा गई।

देखो  धुल  बहुत शासन   में ,
हड्डी लक्कड़  भी ना छोड़े।
फाईलों   में  दीमक  छाई  ,
सब  के सब  मक्कार खा गई। 

जाए थाने  कौन सी साहब,
जनता रपट लिखाए तो क्या?
सच की कीमत बहुत बड़ी है,
सच खबर अखबार खा गई।

हाकिम जो कुछ भी कहता है,
तूम तो पूँछ हिलाओ भाई,
हश्र  हुआ क्या खुद्दारों का ,
कैसे  सब  सरकार  खा  गई।

रोजी  रोटी  लक्कड़  झक्कड़ ,
खप्पड़ सब सरकार खा गई।
सचमुच सब सरकार खा गईं,
सचमुच सब सरकार खा गईं।

अजय अमिताभ सुमन
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