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आसाँ  नहीं  समझना हर बात आदमी के,
कि हँसने पे हो जाते वारदात आदमी के।
सीने  में जल रहे है अगन दफ़न दफ़न से ,
बुझे  हैं ना  कफ़न से अलात आदमी  के?

ईमां  नहीं  है जग  पे ना खुद पे है भरोसा,
रुके कहाँ  रुके हैं सवालात  आदमी के?
दिन  में  हैं  बेचैनी और रातों को उलझन,
संभले   नहीं   संभलते  हयात आदमी के।

दो  गज   जमीं   तक  के छोड़े ना अवसर,
ख्वाहिशें   बहुत   हैं दिन रात आदमी के।
बना  रहा था कुछ भी जो काम कुछ न आते,  
जब मौत आती मुश्किल हालात आदमी के।

खुदा  भी  इससे हारा इसे चाहिए जग सारा,
अजीब  सी है फितरत खयालात आदमी के।
वक्त  बदलने पे  वक़्त भी तो  बदलता है,
पर एक  नहीं  बदलता ये जात आदमी के।

अजय अमिताभ सुमन
आदमी का जीवन द्वंद्व से भरा हुआ है। एक व्यक्ति अपना जीवन ऐसे जीता है जैसे कि पूरे वक्त की बादशाहत इसी के पास हो। जबकि हकीकत में एक आदमी की औकात वक्त की बिसात पे एक टिमटिमाते हुए चिराग से ज्यादा कुछ नहीं। एक व्यक्ति का पूरा जीवन इसी तरह की द्वन्द्वात्मक परिस्थियों का सामना करने में हीं गुजर जाता है और वक्त रेत के ढेर की तरह मुठ्ठी  से फिसलता हीं चला जाता है। अंत में निराशा के अलावा कुछ भी हाथ नहीं लगता । व्यक्ति के इसी द्वंद्व को रेखांकित करती है ये कविता"जात आदमी के"।

— The End —