क्या यही बनना था जो बन गए हैं हम, क्या जीत गई हैं पहेलियाँ और मनसूबे हो गए हैं ख़त्म,
इस उम्र को ओढ़ कर न जाने कहाँ निकल गए हैं हम..
पल-पल 'पल' ही होते जा रहे हैं कम, कहाँ पहुंचना है इतनी तेज़ी से चल कर, की रस्ते भी पड़ गए हैं नम,
इस उम्र को ओढ़ कर न जाने कहाँ निकल गए हैं हम..
हटाते रहते हैं की कहीं ख्वाबों पे न जाए धूल जम, फिलहाल एक हाथ से दूसरा हाथ थम लेते हैं, शायद थोड़े बिखरे हुए हैं हम,
इस उम्र को ओढ़ कर न जाने कहाँ निकल गए हैं हम..
कुछ तो बात थी तेरे साथ की, युहीं नहीं वक़्त जाता था थम, खुशी तो आज भी सस्ती है, जब वो हंसती है, महंगे होते जा रहें हैं गम,
इस उम्र को ओढ़ कर न जाने कहाँ निकल गए हैं हम..
काफी कुछ करना है अभी तो, यही चिंगारी रखती इस लौ को गरम, वरना क्या बताएं रूह तक को ठंडा कर दे ज़िन्दगी तो इतना लगा रही है दम,
इस उम्र को ओढ़ कर न जाने कहाँ निकल गए हैं हम..
रुके हैं, चले हैं, गिरे हैं, गिरकर उठे हैं, मगर हार गए हैं ये नही मानेंगे हम, लड़ना है उसके लिए जो 'लड़ रहा है मेरे लिए', शायद यही वजह है कि तमाम मुश्क़िलों के बावजूद बढ़ते जा रहे हैं कदम..