Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
 
dead poet Nov 2024
उस जज़्बात का क्या ज़िक्र करू, जो कभी तुझसे कहा ही नहीं!
तू वो था, जो कभी था ही नहीं।
dead poet Nov 2024
i'm still running, running fast;
i'm running fast... i'm running fast -
this was never meant to last!
dead poet Nov 2024
आंसुओं से नमकीन तकिये पर वो ख्यालों का समंदर साध रहा है
निराशा की लहरों के बीच वो अपनी कमर कसकर बाँध रहा है
व्याकुलता पर नियंत्रण कर, वो धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है
गौर से देखो, वो कुछ कर रहा है!

बे-बात ही न जाने क्यों ही दुनिया से वो लड़ रहा है -
शायद अपनी बात रखने की ही तैयारी कर रहा है
महानों के इतिहास में झांक कर वो
अपने भविष्य के पन्ने भर रहा है!
उसे कुछ देर अकेला छोड़ दो,
वो कुछ कर रहा है!

कुछ सोच रहा है, कुछ समझ रहा है!
बंद होठों के पीछे उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से गरज रहा है।
भले ही आज अपने ही लिखे पर हस्ताक्षर करने को डर रहा है -
पर उसे कमज़ोर मत समझना,
वो ज़रूर कुछ कर रहा है!

परिश्रम का फल सदा से अमर रहा है,
पर करने वालों पर सदा से अमंगल का क़हर रहा है।
इसके बावजूद, वो कोयले सा तपकर हीरे सा निखर रहा है -
गौर से देखो, वो कुछ कर रहा है!
dead poet Nov 2024
ऐ ज़िंदगी... थोड़ा हौले!
जिस ओर भी देखूं, तेरी रफ़्तार मानो पल भर में दुगनी हो जाती है।
तू चाहे तो इंद्र के वज्र को भी मात दे दे,
मेरी ये छोटी सी इमरजेंसी लाइट तेरे सामने क्या?

माना कि तेरा कमान थोड़ा भारी है,
पर मेरी कोशिश जारी है।
ना जाने कितने ही साँपों ने काटा मुझे अब तक,
अब सीढ़ियों पर चढ़ने की मेरी बारी है।

मैं कह रहा, ऐ ज़िंदगी, थोड़ा हौले!
मुझे भी तो संभलने का एक मौका दे दे।
छक्का नहीं लग रहा, तो दो-चार चौके ही दे दे।
शायद मेरी आवाज़ तुझ तक पहुँची नहीं।
और पहुँचेगी भी कैसे?
फिज़िक्स बुक में नहीं पढ़ा था?...
“Light travels at 3x10^8 m/s, whereas sound can only travel at 340 m/s…”

...वो देखो, मैं भी पागल!
ना जाने कहाँ से कहाँ चला गया...
इसी चंचल से मन को तो कायम करना था!
भूल गया कि साला राइम भी करना था।

माफ़ कीजिएगा,
शायद कुछ और ही कहना था मुझे,
पर मैं नादान किसी और ही दिशा में भाग रहा था।
भावनाओं में बहना था मुझे,
और मैं लॉजिक के गोते लगा रहा था।

कुछ ऐसा ही हर बार होता है।
बेताबी का मुझ पर हर पल वार होता है।
मन है मेरा, और इस पर मेरा ही काबू नहीं?
आख़िर ये कैसा समझौता है?

तो आइए, अब वापिस आते हैं।
इस अफ़साने को एक खूबसूरत अंजाम तक ले जाते हैं।
जाने देते हैं ज़िंदगी को अपनी रफ़्तार से आगे...
जहाँ कोई नहीं गया, आज वहाँ जाते हैं!

ज़िंदगी से जीतना कुछ और बात होती है।
पर ज़िंदगी को जीने में बात ही कुछ और होती है।
तो क्या हुआ,
अगर थोड़ी देर पुरानी यादों को चूम आया?
तो क्या हुआ,
अगर चलते-चलते एक नया मोड़ घूम आया?
प्यार से कह दूंगा ज़िंदगी को,
'मेरी जान, इस कमान का भार लेकर
बढ़ने में थोड़ी तो तकलीफ़ होगी।'
जैसे लेट होने पर बाबा माँ को फोन पर कहते,
'आ रहा हूँ, बस थोड़ी देर होगी।'
dead poet Nov 2024
i believe it was a tuesday morning!
i remember i had a reason to wake up -
to squeeze the last bit of toothpaste
from the tube.
to get right back in the ******* loop.

i believe i caught a glimpse of a child
through the foggy bathroom mirror,
laced with my minty breath.
it felt strange...
i took offense at his looks,
the way he eyed me down.
in his defense though,
i had caught him with his guards down.

he didn't say much,
not that he did anyway.
just nodded softly at me,
whispered almost,
'alright! guess i'll be going then...'
with a flicker of a smile
never to be seen again.

i believed at the time it was best for him
to not see the light on my face go dim
didn't realize then i'd pay such a solemn price;
as I let him go, not thinking twice.

i believe it came quite naturally to me -
finding good reasons not to be.
that day, i found yet another;
it was just enough to help me see -
the error of my ways...
like a rat in a maze, how i end up
reliving the worst of my days.

i still believe i could turn things around.
give the kid a reason to be proud.
i'd whisper softly into the foggy bathroom mirror,
'we're ok, little buddy...
everything's going to be ok!'
i believe i could get him to say,
'alright... i'll stay!'
dead poet Nov 2024
बड़े होते बस यही सुना था,
‘कुछ सोच बड़ा, कुछ कर बड़ा।’
काँटों भरी इस राह पर मैं नंगे पाँव ही निकल पड़ा।
बहुत निचोड़ा इन भावों को मैंने,
इस खोज में मैंने बहुत सहा।
पर जो दिल से चाहिए, साला आखिर वो मिलता कहाँ!

एक शैतान है मुझमें, जो रोज़ कहता है,
‘छोड़ दे पैशन, कमा ले पैसे।’
‘कला के इस महासागर में डूब मरे हैं तेरे जैसे।’
मानता कहाँ दिल फिर भी मेरा?
ये तो है उसके लिए साँस की तरह!
अब चाहे डूब कर मरे या हो जाए जल कर राख,
इससे दुनिया का क्या लेना-देना?
अपनी लड़ाई भी तो यारो, आखिर खुद से ही थी ना?

कलम की नोक पर ज़िंदगी का भार
उठाते कलाईयाँ रगड़ गईं।
ग़रीबी में आटा गीला था,
आँसुओं से बात और बिगड़ ही गई।
चलो कोई नहीं, मैं भी मान गया!
गिले-शिकवों को पेपरवेट के नीचे दबा गया।
स्याही की कड़वी स्वाद को होठों से लगा गया।
मूंगफली पड़ी थी, उसे रोटी के बीच डाल कर चबा गया।

खोज रहा हूँ आज भी मैं विचारों की वो वर्णमाला,
सहारे जिसके कह सकूँ जो इतने दिन मैंने टाला।

तितर-बितर करते, इधर-उधर भागते,
थोड़ा भटक सा गया हूँ…
बंद घड़ी की सुई की तरह मानो जैसे अटक सा गया हूँ।
वक्त के आगे अपनी क़िस्मत लिखने को जूझ रहा हूँ।
अल्फ़ाज़ों से सजे इस दर्पण को
मैं आपकी ओर रख कर पूछ रहा हूँ…

‘क्या आपको पता है गौरव का फूल किस चोटी पर खिलता है?’
‘ज़िंदगी में जो चाहिए, साला आखिर वो कहाँ मिलता है?’
dead poet Nov 2024
he lost his way, he knows not when.
chasing false idols he mistook for men.
he'd lose the child, if he only knew then -
he'd find a way to be a man again.
Next page