मैं भारतवर्ष की बेटी हूं
अपने फैसले खुद लेने के लिए
हमेशा से ही तरसती हूं ।
जमाने ने बहुत दिए सितम मुझे
कभी बना कर गांधारी
आजीवन लाद दी मुझ पर
मेरे पति की लाचारी
कभी बना कर द्रोपदी
जुए में दांव पर लगा दी
कभी मोरध्वज राजा की कहानी सुना
आजीवन अयोग्य संग बांध दी
सीता,सावित्री, अनुसूया के नाम पर
मैं कितनी ही बार मर मिटी हूं।
अपने फैसले खुद लेने के लिए
हमेशा से ही तरसती हूं ।
सामाजिक परम्पराओं के नाम पर
अनगिनत बार मैं छली गई
जमीन, जायदाद और बराबरी
के अधिकारों से वंचित रखी गई
मैं हूं नदी, न रुकने वाला सफर हूं
चाहे रास्ते कितने भी पथरिले हों
घिस - घिस कर अनुकूल बनाती गई
फिर भी दुनिया के पत्थर दिलों पर
मेरी बराबरी की बात जंचती ही नही
अब तो जमाने की रफ्तार समझो
बराबरी का अधिकार दे दो
बालिका दिवस के नाम पर ही सही
आज तो दिल से यह वचन दे दो
हिम्मत है तो संबल दो
झूठी दिलासाओं से तो पहले ही टूटी हूं
अपने फैसले खुद लेने के लिए
हमेशा से ही तरसती हूं।।