तुम्हारे जाने पे मैं रोया नहीं न मैंने किसी से कुछ भी कहा मैं बस कुछ दिन चुप रहा
पर देखा मैंने सब कुछ और उससे भी ज़्यादा मैंने सहा
वो नीली कमीज जो तुम अक्सर पहनते थे वो आज भी प्रेस कर के करीने से रखी है अलमारी में मैंने।
तुम्हारी ऐनक टी वी के ऊपर और छाता खूँटी पे टंगा है.. .
पिछली बारिश में हम भीगे बहुत पर तुम्हारा छाता नहीं छुआ.. याद है मुझको की तुमको नहीं पसंद तुम्हारी चीज़ें कोई इधर उधर रखे। .
तुम्हारा जूता मोची से सिल्वा कर ठिकाने पे रख दिया है घडी में भी सेल पड़वा दिए हैं। ।
बगल के टेलर को कुर्ते में अस्तर लगाने को और माँ को तुम्हारा बिस्तर लगाने को कह दिया है।
पापा .... पता है मुझको की तुम थक कर आओगे पर इस बार तुम कुछ ठहर जाना आराम करना मैं जूते उतार दूंगा और पाँव भी दबा दूंगा जो तुम कहोगे वो सब करूँगा मैं बस तुम ठहर जाना
पता है पापा … पिछली बार बड़े अचानक चले गए थे ।
अनन्य नागर पुणे
I wrote this poem for my dad recently. He was a singer and music director and passed away in early 2012 after fighting Prostate Cancer for an year.