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मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर,
फ़िज़ा में बढ़ता धुँआ है ,
और थोड़ा सा जहर।
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मचा हुआ है सड़कों  पे ,
वाहनों का शोर,
बुलडोजरों की गड़गड़ से,
भरी हुई भोर।
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अब माटी की सड़कों पे ,
कंक्रीट की नई लहर ,
मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर।
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मुर्गे के बांग से होती ,
दिन की शुरुआत थी,
तब घर घर में भूसा था ,
भैसों की नाद थी।
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अब गाएँ भी बछड़े भी ,
दिखते ना एक प्रहर,
मेरे गाँव में होने लगा है ,
शामिल थोड़ा शहर।
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तब बैलों के गर्दन में ,
घंटी गीत गाती थी ,
बागों में कोयल तब कैसा ,
कुक सुनाती थी।
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अब बगिया में कोयल ना ,
महुआ ना कटहर,  
मेरे गाँव में होने लगा है ,
शामिल थोड़ा शहर।
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पहले सरसों के दाने सब ,
खेतों में छाते थे,
मटर की छीमी पौधों में ,
भर भर कर आते थे।
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अब खोया है पत्थरों में ,
मक्का और अरहर,
मेरे गाँव में होने लगा है  ,
शामिल थोड़ा शहर।
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महुआ के दानों  की  ,
खुशबू  की बात  क्या,
आमों के मंजर वो ,
झूमते दिन रात क्या।
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अब सरसों की कलियों में ,
गायन ना वो लहर,
मेरे गाँव में होने लगा है  ,
शामिल थोड़ा शहर।
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वो पानी में छप छप ,
कर  गरई पकड़ना ,
खेतों के जोतनी में,
हेंगी  पर   चलना।
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अब खेतों के रोपनी में ,
मोटर और  ट्रेक्टर,
मेरे गाँव में होने लगा है ,
शामिल थोड़ा शहर।
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फ़िज़ा में बढ़ता धुँआ है ,
और थोड़ा सा जहर।
मेरे गाँव में होने लगा है,
शामिल थोड़ा शहर।
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
इस सृष्टि में कोई भी वस्तु  बिना कीमत के नहीं आती, विकास भी नहीं। अभी कुछ दिन पहले एक पारिवारिक उत्सव में शरीक होने के लिए गाँव गया था। सोचा था शहर की दौड़ धूप वाली जिंदगी से दूर एक शांति भरे माहौल में जा रहा हूँ। सोचा था गाँव के खेतों में हरियाली के दर्शन होंगे। सोचा था सुबह सुबह मुर्गे की बाँग सुनाई देगी, कोयल की कुक और चिड़ियों की चहचहाहट  सुनाई पड़ेगी। आम, महुए, अमरूद और कटहल के पेड़ों पर उनके फल दिखाई पड़ेंगे। परंतु अनुभूति इसके ठीक विपरीत हुई। शहरों की प्रगति का असर शायद गाँवों पर पड़ना शुरू हो गया है। इस कविता के माध्यम से मैं अपनी इन्हीं अनुभूतियों को साझा कर रहा हूँ।
my world is large
Monsters thrive on all grounds
across the whole globe

erasing the trace of my past
erasing the path to my future
Monsters thrive

i may be small
but i require vastness to thrive
i don't get the chance to thrive

these Monsters are Humans
They destroy my home
and destroy my hopes of living

i'm just a tiny insignificant butterfly
i have no ability to fight
but the battle has already been lost

i'll die along with the rest of nature
as hope which developed in a cocoon
flies away like a butterfly - myself
Alec Jul 2017
Red hot glory
Is what I see in the morning
Inner halo of angelic light
Or perhaps a phoenix in flight
Feathers ablaze
Leaving a trail of grass covered in a fiery glaze.
Dimly lit fingers beckoning out
Reaching toward those filled with self-doubt.
A shooting star
A landed wish to end the universal war?
Surrounded by its family
An asteroid belt that impacted softly in the soil upon landing?
A family of blazing light
And morning's glory
That's meant for soaring
The very inspiration for what the Sun's got
Looks so out of place in this parking lot.
Erica Tang May 2017
I forgot the name
of my old town
and the familiar
dialogues
spoken by the
tooth-missing
oldtimers,
whose skin
was leathered
by the Sun.
Stories written
on their faces
got lost somewhere
on the alleys,
where peddlers
used to
trick kids
into buying
colorful cotton candy.
Grandma’s cat
had gobbled its
last can of sardine
long ago, yet
its languid yarn
still faintly lingers
in my memory.
I see old phantoms
wander between
gleaming skyscrapers
and highways,
where their
homes were
buried
underneath.
Hey readers,
This poem is inspired by urbanization and the gradual loss of indigenous culture.

— The End —