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मेरे भुज बल की शक्ति क्या दुर्योधन ने ना देखा?
कृपाचार्य की शक्ति का कैसे कर सकते अनदेखा?
दुःख भी होता था हमको और किंचित इर्ष्या होती थी,
मानवोचित विष अग्नि उर में जलती थी बुझती थी।
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युद्ध लड़ा था जो दुर्योधन के हित में था प्रतिफल क्या?
बीज चने के भुने हुए थे क्षेत्र परिश्रम ऋतु फल क्या?
शायद मुझसे भूल हुई जो ऐसा कटु फल पाता था,
या विवेक में कमी रही थी कंटक दुख पल पाता था।
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या समय का रचा हुआ लगता था पूर्व निर्धारित खेल,
या मेरे प्रारब्ध कर्म का दुचित वक्त प्रवाहित मेल।
या स्वीकार करूँ दुर्योधन का मतिभ्रम था ये कहकर,
या दुर्भाग्य हुआ प्रस्फुटण आज देख स्वर्णिम अवसर।
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मन में शंका के बादल जो उमड़ घुमड़ कर आते थे,
शेष बची थी जो कुछ प्रज्ञा धुंध घने कर जाते थे ।
क्यों कर कान्हा ने मुझको दुर्योधन के साथ किया?
या नाहक का हीं था भ्रम ना केशव ने साथ दिया?
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या गिरिधर की कोई लीला थी शायद उपाय भला,
या अल्प बुद्धि अभिमानी पे माया का जाल फला।
अविवेक नयनों पे इतना सत्य दृष्टि ना फलता था,
या मैंने स्वकर्म रचे जो उसका हीं फल पलता था?
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या दुर्बुद्धि फलित हुई थी ना इतना सम्मान किया,
मृतशैया पर मित्र पड़ा था ना इतना भी ध्यान दिया।
क्या सोचकर मृतगामी दुर्योधन के विरुद्ध पड़ा ,
निज मन चितवन घने द्वंद्व में मैं मेरे प्रतिरुद्ध अड़ा।
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अजय अमिताभ सुमन : सर्वाधिकार सुरक्षित
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मन की प्रकृति बड़ी विचित्र है। किसी भी छोटी सी समस्या का समाधान न मिलने पर उसको बहुत बढ़ा चढ़ा कर देखने लगता है। यदि निदान नहीं मिलता है तो एक बिगड़ैल घोड़े की तरह मन ऐसी ऐसी दिशाओं में भटकने लगता है जिसका समस्या से कोई लेना देना नहीं होता। कृतवर्मा को भी सच्चाई नहीं दिख रही थी। वो कभी दुर्योधन को , कभी कृष्ण को दोष देते तो कभी प्रारब्ध कर्म और नियति का खेल समझकर अपने प्रश्नों के हल निकालने की कोशिश करते । जब समाधान न मिला तो दुर्योधन के प्रति सहज सहानुभूति का भाव जग गया और अंततोगत्वा स्वयं द्वारा दुर्योधन के प्रति उठाये गए संशयात्मक प्रश्नों पर पछताने भी लगे। प्रस्तुत है दीर्ध कविता “दुर्योधन कब मिट पाया का बाइसवाँ भाग।
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शत्रुदल के जीवन हरते जब निजबाहु खडग विशाल,
तब जाके कहीं किसी वीर के उन्नत होते गर्वित भाल।
निज मुख निज प्रशंसा करना है वीरों का काम नहीं,
कर्म मुख्य परिचय योद्धा का उससे होता नाम कहीं।
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मैं भी तो निज को उस कोटि का हीं योद्धा कहता हूँ,
निज शस्त्रों को अरि रक्त से अक्सर धोता रहता हूँ।
खुद के रचे पराक्रम पर तब निश्चित संशय होता है,
जब अपना पुरुषार्थ उपेक्षित संचय अपक्षय होता है।
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विस्मृत हुआ दुर्योधन को हों भीमसेन या युधिष्ठिर,
किसको घायल ना करते मेरे विष वामन करते तीर।
भीमसेन के ध्वजा चाप का फलित हुआ था अवखंडन ,
अपने सत्तर वाणों से किया अति दर्प का परिखंडन।
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लुप्त हुआ स्मृति पटल से कब चाप की वो टंकार,
धृष्टद्युम्न को दंडित करते मेरे तरकश के प्रहार।
द्रुपद घटोत्कच शिखंडी ना जीत सके समरांगण में,
पांडव सैनिक कोष्ठबद्ध आ टूट पड़े रण प्रांगण में।
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पर शत्रु को सबक सिखाता एक अकेला जो योद्धा,
प्रतिरोध का मतलब क्या उनको बतलाता प्रतिरोद्धा।
हरि कृष्ण का वचन मान जब धारित करता दुर्लेखा,
दुख तो अतिशय होता हीं जब रह जाता वो अनदेखा।
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अति पीड़ा मन में होती ना कुरु कुंवर को याद रहा,
सबके मरने पर जिंदा कृतवर्मा भी ना ज्ञात रहा।
क्या ऐसा भी पौरुष कतिपय नाकाफी दुर्योधन को?
एक कृतवर्मा का भीड़ जाना नाकाफी दुर्योधन को?
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अजय अमिताभ सुमन : सर्वाधिकार सुरक्षित
किसी व्यक्ति के चित्त में जब हीनता की भावना आती है तब उसका मन उसके द्वारा किये गए उत्तम कार्यों को याद दिलाकर उसमें वीरता की पुनर्स्थापना करने की कोशिश करता है। कुछ इसी तरह की स्थिति में कृपाचार्य पड़े हुए थे। तब उनको युद्ध स्वयं द्वारा किया गया वो पराक्रम याद आने लगा जब उन्होंने अकेले हीं पांडव महारथियों भीम , युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, द्रुपद, शिखंडी, धृष्टद्युम आदि से भिड़कर उन्हें आगे बढ़ने से रोक दिया था। इस तरह का पराक्रम प्रदर्शित करने के बाद भी वो अस्वत्थामा की तरह दुर्योधन का विश्वास जीत नहीं पाए थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था आखिर किस तरह का पराक्रम दुर्योधन के विश्वास को जीतने के लिए चाहिए था? प्रस्तुत है दीर्घ कविता “दुर्योधन कब मिट पाया” का इक्कीसवां भाग।
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क्षोभ युक्त बोले कृत वर्मा नासमझी थी बात भला ,
प्रश्न उठे थे क्या दुर्योधन मुझसे थे से अज्ञात भला?
नाहक हीं मैंने माना दुर्योधन ने परिहास किया,
मुझे उपेक्षित करके अश्वत्थामा पे विश्वास किया?
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सोच सोच के मन में संशय संचय हो कर आते थे,
दुर्योधन के प्रति निष्ठा में रंध्र क्षय कर जाते थे।
कभी मित्र अश्वत्थामा के प्रति प्रतिलक्षित द्वेष भाव,
कभी रोष चित्त में व्यापे कभी निज सम्मान अभाव।
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सत्यभाष पे जब भी मानव देता रहता अतुलित जोर,
समझो मिथ्या हुई है हावी और हुआ है सच कमजोर।
अपरभाव प्रगाढ़ित चित्त पर जग लक्षित अनन्य भाव,
निजप्रवृत्ति का अनुचर बनता स्वामी है मानव स्वभाव।
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और पुरुष के अंतर मन की जो करनी हो पहचान,
कर ज्ञापित उस नर कर्णों में कोई शक्ति महान।
संशय में हो प्राण मनुज के भयाकान्त हो वो अतिशय,
छद्म बल साहस का अक्सर देने लगता नर परिचय।
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उर में नर के गर स्थापित गहन वेदना गूढ़ व्यथा,
होठ प्रदर्शित करने लगते मिथ्या मुस्कानों की गाथा।
मैं भी तो एक मानव हीं था मृत्य लोक वासी व्यवहार,
शंकित होता था मन मेरा जग लक्षित विपरीतअचार।
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मुदित भाव का ज्ञान नहीं जो बेहतर था पद पाता था,
किंतु हीन चित्त मैं लेकर हीं अगन द्वेष फल पाता था।
किस भाँति भी मैं कर पाता अश्वत्थामा को स्वीकार,
अंतर में तो द्वंद्व फल रहे आंदोलित हो रहे विकार?
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अजय अमिताभ सुमन : सर्वाधिकार सुरक्षित
कृपाचार्य और कृतवर्मा के जीवित रहते हुए भी ,जब उन दोनों की उपेक्षा करके दुर्योधन ने अश्वत्थामा को सेनापतित्व का भार सौंपा , तब कृतवर्मा को लगा था कि कुरु कुंवर दुर्योधन उन दोनों का अपमान कर रहे हैं। फिर कृतवर्मा मानवोचित स्वभाव का प्रदर्शन करते हुए अपने चित्त में उठते हुए द्वंद्वात्मक तरंगों को दबाने के लिए विपरीत भाव का परिलक्षण करने लगते हैं। प्रस्तुत है दीर्घ कविता “दुर्योधन कब मिट पाया” का बीसवां भाग।
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विकट विघ्न जब भी आता ,
या तो संबल आ जाता है ,
या जो सुप्त रहा मानव में ,
ओज प्रबल हो आता है।
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भयाक्रांत संतप्त धूमिल ,
होने लगते मानव के स्वर ,
या थर्र थर्र थर्र कम्पित होते ,
डग कुछ ऐसे होते नर ।
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विकट विघ्न अनुताप जला हो ,
क्षुधाग्नि संताप फला हो ,
अति दरिद्रता का जो मारा ,
कितने हीं आवेग सहा हो ।
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जिसकी माता श्वेत रंग के ,
आंटे में भर देती पानी,
दूध समझकर जो पी जाता ,
कैसी करता था नादानी ।
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गुरु द्रोण का पुत्र वही ,
जिसका जीवन बिता कुछ ऐसे ,
दुर्दिन से भिड़कर रहना हीं ,
जीवन यापन लगता जैसे।
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पिता द्रोण और द्रुपद मित्र के ,
देख देखकर जीवन गाथा,
अश्वत्थामा जान गया था ,
कैसी कमती जीवन व्यथा।
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यही जानकर सुदर्शन हर ,
लेगा ये अपलक्षण रखता ,
सक्षम न था तन उसका ,
पर मन में आकर्षण रखता ।
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गुरु द्रोण का पुत्र वोही क्या ,
विघ्न बाधा से डर जाता ,
दुर्योधन वो मित्र तुम्हारा ,
क्या भय से फिर भर जाता ?
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थोड़े रूककर कृपाचार्य फिर ,
हौले दुर्योधन से बोले ,
अश्वत्थामा के नयनों में ,
दहक रहे अग्नि के शोले ।
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घोर विघ्न को किंचित हीं ,
पुरुषार्थ हेतु अवसर माने ,
अश्वत्थामा द्रोण पुत्र ,
ले चला शरासन तत्तपर ताने।
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अजय अमिताभ सुमन:
सर्वाधिकार सुरक्षित
कृपाचार्य दुर्योधन को बताते है कि हमारे पास दो विकल्प थे, या तो महाकाल से डरकर भाग जाते या उनसे लड़कर मृत्युवर के अधिकारी होते। कृपाचार्य अश्वत्थामा के मामा थे और उसके दु:साहसी प्रवृत्ति को बचपन से हीं जानते थे। अश्वत्थामा द्वारा पुरुषार्थ का मार्ग चुनना उसके दु:साहसी प्रवृत्ति के अनुकूल था, जो कि उसके सेनापतित्व को चरितार्थ हीं करता था। प्रस्तुत है दीर्घ कविता दुर्योधन कब मिट पाया का उन्नीसवां भाग।
कृपाचार्य कृतवर्मा सहचर
मुझको फिर क्या होता भय, 
जिसे प्राप्त हो वरदहस्त शिव का
उसकी हीं होती जय।
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त्रास नहीं था मन मे  किंचित
निज तन मन व प्राण का,
पर चिंता एक सता रही
पुरुषार्थ त्वरित अभियान का।
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धर्माधर्म  की  बात नहीं
न्यूनांश ना मुझको दिखता था,
रिपु मुंड के अतिरिक्त ना
ध्येय अक्षि में टिकता था।
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ना सिंह भांति निश्चित हीं 
किसी एक श्रृगाल की भाँति,
घात लगा हम किये प्रतीक्षा
रात्रिपहर व्याल की भाँति।  
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कटु  सत्य है दिन में लड़कर
ना इनको हर सकता था,
भला एक हीं  अश्वत्थामा 
युद्ध  कहाँ लड़ सकता  था?
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जब तन्द्रा में सारे थे छिप कर
निज अस्त्र उठाया मैंने ,
निहत्थों पर चुनचुन कर हीं
घातक शस्त्र चलाया मैंने।
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दुश्कर,दुर्लभ,दूभर,मुश्किल
कर्म रचा जो बतलाता हूँ , 
ना चित्त में अफ़सोस बचा
ना रहा ताप ना पछताता हूँ। 
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तन मन पे भारी रहा बोझ अब
हल्का  हल्का लगता है,
आप्त हुआ है व्रण चित्त का ना
आज ह्रदय में फलता है।  
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जो सैनिक  योद्धा  बचे हुए थे
उनके  प्राण प्रहारक  हूँ , 
शिखंडी  का  शीश  विक्षेपक  
धृष्टद्युम्न  संहारक  हूँ।
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जो पितृवध से दबा हुआ
जीता था कल तक रुष्ट हुआ,
गाजर मुली सादृश्य  काट आज
अश्वत्थामा तुष्ट  हुआ। 
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
अश्रेयकर लक्ष्य संधान हेतु क्रियाशील हुए व्यक्ति को अगर सहयोगियों का साथ मिल जाता है तब उचित या अनुचित का द्वंद्व क्षीण हो जाता है। अश्वत्थामा दुर्योधन को आगे बताता है कि कृतवर्मा और कृपाचार्य का साथ मिल जाने के कारण उसका मनोबल बढ़ गया और वो पूरे जोश के साथ लक्ष्यसिद्धि हेतु अग्रसर हो चला।
कुछ क्षण पहले शंकित था मन
ना दृष्टित थी कोई आशा ,    
द्रोणपुत्र के पुरुषार्थ से
हुआ तिरोहित खौफ निराशा।
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या मर जाये या मारे  
चित्त में कर के ये दृढ निश्चय,
शत्रु शिविर को हुए अग्रसर  
हार फले कि या हो जय।
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याद किये फिर अरिसिंधु में  
मर के जो अशेष रहा,  
वो नर हीं विशेष रहा हाँ  
वो नर हीं विशेष रहा ।
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कि शत्रुसलिला में जिस नर के  
हाथों में तलवार रहे ,
या क्षय की हो दृढ प्रतीति
परिलक्षित  संहार बहे।
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वो मानव जो झुके नहीं
कतिपय निश्चित एक हार में,
डग योद्धा का डिगे नहीं
अरि के भीषण प्रहार में।
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ज्ञात मनुज के चित्त में किंचित
सर्वगर्भा काओज बहे ,
अभिज्ञान रहे निज कृत्यों का
कर्तव्यों की हीं खोज रहे।
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अकम्पत्व का हीं तन पे मन पे
धारण पोशाक हो ,
रण डाकिनी के रक्त मज्जा  
खेल  का मश्शाक  हो।
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क्षण का हीं तो मन है ये
क्षण को हीं टिका हुआ,
और तन का क्या मिट्टी  का  
मिटटी में मिटा हुआ।
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पर हार का वरण भी करके  
जो रहा अवशेष है,
जिस वीर के वीरत्व का
जन में  स्मृति शेष है।
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सुवाड़वाग्नि  सिंधु  में  नर  
मर के भी अशेष है,
जीवन वही विशेष है  
मानव वही विशेष है।
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
इस क्षणभंगुर संसार में जो नर निज पराक्रम की गाथा रच जन मानस के पटल पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है उसी का जीवन सफल होता है। अश्वत्थामा का अद्भुत  पराक्रम देखकर कृतवर्मा और कृपाचार्य भी मरने मारने का निश्चय लेकर आगे बढ़ चले।
क्या  यत्न  करता उस क्षण
जब युक्ति समझ नहीं  आती थी,
त्रिकाग्निकाल से निज प्रज्ञा
मुक्ति का  मार्ग  दिखाती  थी।   
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अकिलेश्वर को हरना  दुश्कर
कार्य जटिल ना साध्य कहीं,
जटिल राह थी कठिन लक्ष्य था 
मार्ग अति  दू:साध्य कहीं।
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अतिशय साहस संबल  संचय 
करके भीषण लक्ष्य किया,
प्रण धरकर ये निश्चय लेकर
निजमस्तक हव भक्ष्य किया।
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अति  वेदना  थी तन  में 
निज  मस्तक  अग्नि  धरने  में ,
पर निज प्रण अपूर्णित करके 
भी  क्या  रखा लड़ने  में?
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जो उद्भट निज प्रण का किंचित
ना जीवन में मान रखे,
उस योद्धा का जीवन रण में 
कोई  क्या  सम्मान रखे?
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या अहन्त्य  को हरना था या
शिव के  हाथों मरना था,
या शिशार्पण यज्ञअग्नि को
मृत्यु आलिंगन करना था?
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हठ मेरा  वो सही गलत क्या
इसका मुझको ज्ञान नहीं,
कपर्दिन  को  जिद  मेरी थी 
कैसी पर था  भान कहीं।
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हवन कुंड में जलने की पीड़ा
सह कर वर प्राप्त किया,
मंजिल से  बाधा हट जाने
का सुअवसर प्राप्त किया।
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त्रिपुरान्तक के हट जाने से
लक्ष्य  प्रबल आसान हुआ,
भीषण बाधा परिलक्षित थी
निश्चय हीं अवसान हुआ।
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गणादिप का संबल पा  था
यही समय कुछ करने का,
या पांडवजन को मृत्यु देने 
या उनसे  लड़ मरने  का।
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
जिद चाहे सही हो या गलत  यदि उसमें अश्वत्थामा जैसा समर्पण हो तो उसे पूर्ण होने से कोई रोक नहीं सकता, यहाँ तक कि महादेव भी नहीं। जब पांडव पक्ष के बचे हुए योद्धाओं की रक्षा कर रहे जटाधर को अश्वत्थामा ने यज्ञाग्नि में अपना सिर काटकर हवनकुंड में अर्पित कर दिया  तब उनको भी अश्वत्थामा के हठ की आगे झुकना पड़ा और पांडव पक्ष के बाकी बचे हुए योद्धाओं को अश्वत्थामा के हाथों मृत्यु प्राप्त करने के लिए छोड़ दिया ।
जब  कान्हा के होठों पे  मुरली  गैया  मुस्काती थीं,
गोपी सारी लाज वाज तज कर दौड़े आ जाती थीं।
किया  प्रेम  इतना  राधा  से कहलाये थे राधेश्याम,
पर भव  सागर तारण हेतू त्याग  चले थे राधे धाम।

पूतना , शकटासुर ,तृणावर्त असुर अति अभिचारी ,
कंस आदि  के  मर्दन कर्ता  कृष्ण अति बलशाली।
वो कान्हा थे योगि राज पर भोगी बनकर नृत्य करें,
जरासंध जब रण को तत्पर भागे रण से कृत्य रचे।

सारंग  धारी   कृष्ण  हरि  ने वत्सासुर संहार किया ,
बकासुर और अघासुर के प्राणों का व्यापार किया।
मात्र  तर्जनी  से हीं तो  गिरि धर ने गिरि उठाया था,
कभी देवाधि पति इंद्र   को घुटनों तले झुकाया था।

जब पापी  कुचक्र  रचे  तब  हीं  वो चक्र चलाते हैं,
कुटिल  दर्प सर्वत्र  फले  तब  दृष्टि  वक्र  उठाते हैं।
उरग जिनसे थर्र थर्र काँपे पर्वत जिनके हाथों नाचे,
इन्द्रदेव भी कंपित होते हैं नतमस्तक जिनके आगे।

एक  हाथ में चक्र हैं  जिनके मुरली मधुर बजाते हैं,
गोवर्धन  धारी डर  कर  भगने  का खेल दिखातें है।
जैसे  गज  शिशु से  कोई  डरने का  खेल रचाता है,
कारक बन कर कर्ता  का कारण से मेल कराता है।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
भगवान श्रीकृष्ण की लीलाएँ अद्भुत हैं। उनसे न केवल स्त्रियाँ , पुरुष अपितु गायें भी अगाध प्रेम करती थीं। लेकिन उनका प्रेम व्यक्ति परक न होकर परहित की भावना से ओत प्रोत था। जिस राधा को वो इतना प्रेम करते थे कि आज भी उन्हें राधेकृष्ण के नाम से पुकारा जाता है। जिस राधा के साथ उनका प्रेम इतना गहरा है कि आज भी मंदिरों में राधा और कॄष्ण की मूर्तियाँ मिल जाती है। वोही श्रीकृष्ण जग के निमित्त अपनी वृहद भूमिका को निभाने हेतू श्रीराधा का त्याग करने में जरा भी नहीं हिचकिचाते हैं। और आश्चर्य की बात तो ये हूं एक बार उन्होंने श्रीराधा का त्याग कर दिया तो जीवन में पीछे मुड़कर फिर कभी नहीं देखा। श्रीराधा की गरिमा भी कम नहीं है। श्रीकृष्ण के द्वारिकाधीश बन जाने के बाद उन्होंने श्रीकृष्ण से किसी भी तरह की कोई अपेक्षा नहीं की, जिस तरह की अपेक्षा सुदामा ने रखी। श्रीकृष्ण का प्रेम अद्भुत था तो श्रीराधा की गरिमा भी कुछ कम नहीं। कविता के इस भाग में भगवान श्रीकृष्ण के बाल्य काल के कुछ लीलाओं का वर्णन किया गया है। प्रस्तुत है दीर्घ कविता दुर्योधन कब मिट पाया का पांचवा भाग।
कार्य दूत का जो होता है अंगद ने अंजाम दिया ,
अपने स्वामी रामचंद्र के शक्ति का प्रमाण दिया।
कार्य दूत का वही कृष्ण ले दुर्योधन के पास गए,
जैसे कोई अर्णव उदधि खुद प्यासे अन्यास गए।

जब रावण ने अंगद को वानर जैसा उपहास किया,
तब कैसे वानर ने बल से रावण का परिहास किया।
ज्ञानी रावण के विवेक पर दुर्बुद्धि अति भारी थी,
दुर्योधन भी ज्ञान शून्य था सुबुद्धि मति मारी थी।

ऐसा न था श्री कृष्ण की शक्ति अजय का ज्ञान नहीं ,
अभिमानी था मुर्ख नहीं कि हरि से था अंजान नहीं।
कंस कहानी ज्ञात उसे भी मामा ने क्या काम किया,
शिशुओं का हन्ता पापी उसने कैसा दुष्काम किया।

जब पापों का संचय होता धर्म खड़ा होकर रोता था,
मामा कंस का जय होता सत्य पुण्य क्षय खोता था।
कृष्ण पक्ष के कृष्ण रात्रि में कृष्ण अति अँधियारे थे ,
तब विधर्मी कंस संहारक गिरिधर वहीं पधारे थे।

जग के तारण हार श्याम को माता कैसे बचाती थी ,
आँखों में काजल का टीका धर आशीष दिलाती थी।
और कान्हा भी लुकके छिपके माखन दही छुपाते थे ,
मिटटी को मुख में रखकर संपूर्ण ब्रह्मांड दिखाते थे।

कभी गोपी के वस्त्र चुराकर मर्यादा के पाठ पढ़ाए,
पांचाली के वस्त्र बढ़ाकर चीर हरण से उसे बचाए।
इस जग को रचने वाले कभी कहलाये थे माखनचोर,
कभी गोवर्धन पर्वत धारी कभी युद्ध तजते रणछोड़।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
जिस प्रकार अंगद ने रावण के पास जाकर अपने स्वामी मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम चन्द्र के संधि का प्रस्ताव प्रस्तुत किया था , ठीक वैसे हीं भगवान श्रीकृष्ण भी महाभारत युद्ध शुरू होने से पहले कौरव कुमार दुर्योधन के पास पांडवों की तरफ से  शांति प्रस्ताव लेकर गए थे। एक दूत के रूप में अंगद और श्रीकृष्ण की भूमिका एक सी हीं प्रतीत होती है । परन्तु वस्तुत:  श्रीकृष्ण और अंगद के व्यक्तित्व में जमीन और आसमान का फर्क है । श्रीराम और अंगद के बीच तो अधिपति और प्रतिनिधि का सम्बन्ध था ।  अंगद तो मर्यादा पुरुषोत्तम  श्रीराम के संदेशवाहक मात्र थे  । परन्तु महाभारत के परिप्रेक्ष्य में श्रीकृष्ण पांडवों के सखा , गुरु , स्वामी ,  पथ प्रदर्शक आदि सबकुछ  थे । किस तरह का व्यक्तित्व दुर्योधन को समझाने हेतु प्रस्तुत हुआ था , इसके लिए कृष्ण के चरित्र और  लीलाओं का वर्णन समीचीन होगा ।  कविता के इस भाग में कृष्ण का अवतरण और बाल सुलभ लीलाओं का वर्णन किया गया है ।  प्रस्तुत है दीर्घ कविता  "दुर्योधन कब मिट पाया" का चतुर्थ  भाग।
उसके दु:साहस के समक्ष गन्धर्व यक्ष भी मांगे पानी,
मर्यादा सब धूल धूसरित ऐसा था दम्भी अभिमानी ?
संधि वार्ता के प्रति उत्तर  में कैसा वो सन्देश दिया ?
दे डाल कृष्ण को कारागृह में उसने ये आदेश किया।

प्रभु राम की पत्नी  का  जिसने मनमानी  हरण किया,
उस अज्ञानी साथ राम ने प्रथम शांति का वरण किया।
ज्ञात  उन्हें  था  अभिमानी को  मर्यादा का ज्ञान नहीं,
वध करना था न्याय युक्त बेहतर कोई इससे त्राण नहीं।

फिर भी मर्यादा प्रभु राम ने एक अवसर प्रदान किया,
रण  तो होने को ही था पर अंतिम  एक निदान दिया।
रावण भी दुर्योधन तुल्य हीं निरा मूर्ख था अभिमानी,
पर मर्यादा पुरुष राम थे निज के प्रज्ञा की हीं मानी।

था विदित राम को कि रण में भाग्य मनुज का सोता है,
नर  जो  भी लड़ते कटते है अम्बर शोणित भर रोता है।
इसी हेतु तो प्रभु राम ने अंतिम एक प्रयास किया,
सन्धि में था संशय किंतु किंचित एक कयास किया।

दूत बना के भेजा किस को रावण सम जो बलशाली,
वानर श्रेष्ठ वो अंगद जिसका पिता रहा वानर बालि।
महावानर बालि जिसकी क़दमों में रावण रहता था,
अंगद के पलने में जाने नित क्रीड़ा कर फलता था।

उसी बालि के पुत्र दूत बली अंगद को ये काम दिया,
पैर डिगा ना पाया रावण  क्या अद्भुत पैगाम दिया।
दूत  बली अंगद हो  जिसका सोचो राजा क्या होगा,
पैर दूत का हिलता ना रावण रण में फिर क्या होगा?

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
रामायण में जिक्र आता है कि रावण के साथ युद्ध शुरू होने से पहले प्रभु श्रीराम ने उसके पास अपना दूत भेजा ताकि शांति स्थापित हो सके। प्रभु श्री राम ने ऐसा इसलिए किया क्योंकि उन्हें ज्ञात था कि युद्ध विध्वंश हीं लाता है । वो जान रहे थे कि युद्ध में अनगिनत मानवों , वानरों , राक्षसों की जान जाने वाली थी । इसीलिए रावण के क्रूर और अहंकारी प्रवृत्ति के बारे में जानते हुए भी उन्होंने सर्वप्रथम शांति का प्रयास किया क्योंकि युद्ध हमेशा हीं अंतिम पर्याय होता है। शत्रु पक्ष पे मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए अक्सर एक मजबूत व्यक्तित्व को हीं दूत के रूप में भेजा जाता रहा है। प्रभु श्रीराम ने भी ऐसा हीं किया, दूत के रूप में भेजा भी तो किसको बालि के पुत्र अंगद को। ये वो ही बालि था जिसकी काँख में रावण 6 महीने तक रहा।  कहने का तात्पर्य ये है कि शांति का प्रस्ताव लेकर कौन जाता है, ये बड़ा महत्वपूर्ण हो जाता है। प्रस्तुत है दीर्घ कविता  "दुर्योधन कब मिट पाया" का तृतीय  भाग।
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