लग रहा है खो सी गई हूं
कुछ समझ ही नहीं आ रहा
बस लग रहा है सबकुछ खत्म है
क्यों हूं फिर मै यहां समझ नहीं आ रहा है
तनहा हूं सच मै
या भीड़ मै खो गई हूं
डर लग रहा है यहां
ये बात किस्से कहूं
जो बचपन मै डर निकलते थे
आज उन्हें पता है नहीं है
किस हाल में हूं मै
सच मै कहीं खो गई हूं
समझ नई आता क्यों हूं यहां....
पर कोई तो वजह होगी न
बेवजह तो नहीं हूं यहां
अब बहुत जगहों पर पढ़ा है
बेवजह तो कुछ नहीं होता
तो क्या करू
छोर दू सबकुछ वक्त के हाथो
ताकि वक़्त खेल जाए मेरे साथ
या फिर खोजी खुद को....
पर कहीं ये भी पढ़ा था
की जिंदगी अपने आप को बनाने का नाम है
ना के खोजने का नाम....
अब तो बस ये सोच रही हूं
करती हूं यार इन सब
लिखी हुई पढ़ी हुई बातो को
थोड़ा खुद सोचकर देखती हूं
शायद जिंदगी थोड़ी और आसान हो जाए
कोशिश करती हूं फिर
शायद खुदा ने कुछ सोचा है
इसीलिए सांस की डोर अभी तक काटी नहीं है
चल रही है ये सांसे
तो खुदा के इस मेहरबानी में दी गई
इन सांसों को इस्तेमाल करते है
क्या पता कब ये सांसे छूट जाए
और हम हमेशा के लिए खो जाए
तो संसो के खोने से पहले खुद को पाने की
एक कोशिश तो बनती है न
चलो एक ही करते है
पर कुछ तो करे बिना कुछ किए जाने से बेहतर है।
बेहतर सलाह है
लिखी पढ़ी बातो पे ना सोचे
खुद के मस्तिष्क का प्रयोग करे।