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I saw everything
In front of eyes looked deeply involved
The two friends looked at fester
Love saw two fighting
The break saw two flowers .

If neither ,

Make someone saw
Do not believe anyone saw
Love did not laugh
Friends call seen
Saw two flowers blooming .


Sandeep Kumar Singh
Jindagi ke kasma kash me
kuch aise fansa ki
jindagi jine ki tammana hi khatam ** ***
kaise batau tumhe ki
kis kadar pareshan hoon mai
halat hi kuch aise hai ki
in hoto se bayan hi nahi hogi
.>>>>>> SANDEEP KUMAR SINGH.
For sweet sleep
For true dream
kaisi - kaisi din dikhati hai ye jindagi
kabhi hansati hai kabhi rulati hai ye jindagi
jise chaha apni anko ke palko pe sajake
oh kisi orke sath hai, kya khel hai ye jindagi.???
.
sandeep kr singh
बर्फ सी ठंढ़ी हो, या जलता धूप
इन्हे क्या गम है
रहते है ये अपने काम मे
न लोगो की परवाह
न दूसरों का गम
है तो बस हर पल
अपने को खुशियाँ देने की चाहत
और चाहत भी देखो
जो इनको न चाहे
फिर भी अपनी चाहत
अपनी आकांक्षाओ की पूर्ति के लिए
कर रहे है वे
दिन रात मेहनत
अपनी खुशियों को गम मे मिला कर
अपनी खून को पनि बना कर
दिन-रात सभी से लड़कर
ठंढ़ी-गर्मी को भूल कर
निकल पड़ते करने
अपनी चाहत को पूरा
पर वह चाहत भी उनको
हमेशा अधूरा ही मिला ।

-----संदीप कुमार सिंह।
कोरा कागज लेकर बैठा हूँ
कुछ लिखना चाहता हूँ
मन की बातो को कहना चाहता हूँ
पर शब्द ही नहीं मिलते
मेरे आंखो के सामने एक दृष्य
बार-बार घूमता है
अस्पष्ट रूप में दिखता है
उसे पकड़ना चाहता हूँ
उसकी व्याख्या करना चाहता हूँ
पर शब्द ही नहीं मिलते।
इसका कारण ढूँढने जब
अपने अंदर जाता हूँ, तो
वहाँ मिलता है मुझे
शिर्फ और शिर्फ ‘शून्य’
एक ऐसा शून्य, जो
अपने अंदर अनेकों शब्दों को
बटोर कर रखी हो, पर
मेरे लिए वह सब, व्यर्थ है
या यह कहूं, कि
मैं जो कहना चाहता हूँ
जिसके बारे में, मैं
सभी को बताना चाहता हूँ
उसके लिए ये शब्द भी
कम पर जाती है।
जिसका चित्र मेरे सामने घूमता है
जिसका एक अधूरा रूप मुझे दिखाता है
वह है एक औरत का
जो अपने गोद में
एक छोटी-सी बच्ची लिए हुए है
जो ठीक से चल भी नहीं पाती
वह औरत, नीले रंग की शारी में है
जो मैली और पुरानी है
उसका शरीर थोड़ी समता रंग
और धूल से भरी हुई है
बच्ची भी पुरानी और मैली कपड़ो में है
हाथ में एक छोटी सी लकड़ी लिए हुए है
मानो एक रक्षक की भांति
अपनी माँ की रक्षा करने की
जिद्द लिए बैठी हो
वह औरत हाथ फैलती है
कुछ मिल गाया तो, आगे बढ़ जाती
उस बच्ची को निहारती, फिर आगे बढ़कर
दया की हाथ फैलती है
उसकी इस दशा पे मैं क्या कहूं
क्या सोचू, क्या लिखू
मेरे सोंचने की क्षमता ही खत्म हो जाती है
सायद इसी कारण मुझे
कोई शब्द नहीं मिलता, और
मैं एक सीमित शून्य में
कैद होकर रह जाता हूँ ।

-संदीप कुमार सिंह
आज चला गया वह
इस दुनियाँ को छोड़
इस दुख की जीवन
पापी संसार को छोड़
क्यो चला गया वह ?
इतनी दूर चला गया वह
जो कभी लौट न आये
पर, क्यो चला गया
अपनी माँ को छोड़
अपनी साथी
अपने समाज को छोड़
बिना बताए
सब को रुलाए
दुखों के सागर में
ममता को डुबाए
चला गया वह
दुनिया को छोड़
इस दुख की जीवन
पापी संसार को छोड़
क्यों चला गया वह ?

-----संदीप कुमार सिंह ।
जमाने ने दिखाया है हमें हर वक़्त आईना
मगर गलती ये हमने की जो इसको देख पाए न
हमारी आंखों के आगे से ही सब यूं ही गुजरता गया
ये गलती थी हमारी ही जो इसको रोक पाए न।

बहुत देखे इन आंखों ने उन्हें इस राह को जाते
कभी हँसते, कभी रोते, कभी चलते, कभी गिरते
सोचा इस राह से मैं थाम लूँ उनकी कहानी को
मगर जो राह है अपनी,हम उन तक जा नहीं सकते।

कभी भूखी वह सोती है, कभी रोती ही रहती है
वह इतनी सख्त हो गई है कि आँसू भी न गिरती है
जमाने ने दिखाया है उन्हें यह राह पत्थर का
मगर वह सब समझती है किसी से कुछ न कहती है।

हमारा धर्म क्या है यह तो हम सब भूल बैठे हैं
अपने ही स्वार्थ के चलते हम इनसे दूर रहते हैं
कोई अगर चाहे तो सब कुछ जान सकता है
उन्हें इस राह पर गिरने से पहले थाम सकता है।

अगर चाहे तो हम उनकी जंजीरे खोल सकते हैं
अगर चाहे तो हम उनकी दीवारें तोड़ सकते हैं
अगर चाहे तो हम उनकी हकीकत तौल सकते हैं
अगर चाहे तो हम उनके ये आँसू पोंछ सकते हैं।

मगर यह कौन कहता है कि हम उनको बचाएँगे
यह तो हम भी नहीं कहते कि उनके पास जाएँगे
जमाने ने सिखाया है हमें बस दूर ही रहना
अगर हम पास जाएँगे तो हमें भी छोड़ जाएँगे।

तुम्हारी आंखों से गिरते आँसू को मैंने देखा है
तुम्हारी गोद में सोते एक जीवन मैंने देखा है
तुम्हारे भीतर जलती ममता को भी मैंने देखा है
तुम्हारे आँसू के मोती में एक माँ को मैंने देखा है।

-संदीप कुमार सिंह
तेरे जुल्फों ये काले बादल
प्यार की बारिस, ये मचाए हल-चल
है आंखो मे नूर, तुम हो चंचल
दिल मे मचाए ये, प्यार के हल-चल
तेरे जुल्फों के ये काले बादल ।

घन-घोर हरियाली, ये खिल खिलते चेहरे
मौसम की मार, ये बरिस जब बरसे
मची हल-चल हम, मिले जब तुमसे
ये तेरे मुसकुराते चेहरे
तेरे जुल्फों के ये काले-काले बादल ।

--संदीप कुमार सिंह।
जन्म के साथ ही
सांसरिक कष्टों मे फँसता है प्राणी
हर पल – हर घाड़ी बस
पछताता है प्राणी ।

जीवन की घड़ियाँ बिताती है, पर
कष्टो को झेल न पाया प्राणी
हर पल – हर दिन
दुख झेलता
जीवन का बोझ उठता है प्राणी।

सुख आए छन भर, पर
दुख है सत्य
क्यो आया,
क्या पाया,
काष्ट और दुखो बस एक
क्या खिलौना है प्राणी।

क्यो जन्मा प्राणी
क्यो आया ?
हर कष्टो को झेलता
पछताता है प्राणी ।

-----संदीप कुमार सिंह ।
दोस्त क्या कहलाता है
यह कौन हमे सिखलाता है
साथ हमेशा देना उसका
यह कौन हमे सिखलाता है ।

आऐ यहाँ हम जब अकेले
न कोई हाथ बढ़ाता है
अंजाने रास्तो पर एक पल से
साथ किसी का आ जाता है

चलते-चलते राह बदलते
वह साथ हमारा देता है
जो हर किसी के बसमे न हो
क्या वह दोस्त कहलाता है ।

सही राह दिखलाने वाले
गुरु का हाथ तो होता है
मुशकील मे साथ निभाने वाले
वही तो दोस्त कहलाता है ।


दोस्त क्या कहलाता है
यह कौन हमे सिखलाता है
साथ हमशा देना उसका
यह कौन हमे सिखलाता है

-संदीप कुमार सिंह ।
बैठा हूँ आज मै
अपनी नजारे झुकाये,
बस यूं ही मैंने अपनी
यह जिंदगी बिताये,
काश कर पता मै
अब कोई भी उपाए,
जिंदगी मे कभी न राहूँ
मै असहाये।

जिंदगी है जीना पर
कोई रास न आये,
बैठा हूँ अकेला आज
क्यों कोई पास न आये ?

जिंदगी लगाने लगी है बोझ
कैसे इसे समझाऊँ,
नौकरी जब न मिले तो
बैठे-बैठे अब यूं ही मर जाऊँ।


संदीप कुमार सिंह।
आज ये उदास है
इसके पीछे जाने क्या बात है
बैठे है ऐसे जैसे
मन में कोई बात है

चेहरे पर ऐसी एक भाव है
मानो अंदर ही अंदर
वे जल रहे है
तड़प रहे है
क्या करे न करे
इसी मे उलझ रहे है

हर तरह की परेशानी से
घिरे है वे, परेशान है
क्यो न हो परेशान
घर परिवार को संभालना
उनकी खुशियों को सवारना
जीवन की हर मुसीबत से
सभी को उभारना

दूसरों की गली बात को सहना
हर दिन, हर पल
अपनी ही जिंदगी को
अपनी किशमत को
हथेली पर रखे, दुनिया से लड़के
थक गऐ है वो

मिली न कामयाबी बस
इसी का दुख है
पिता है वो किसी न किसी का
सायद किसी मुशकील मे है
इसी लिए वो चुप-चाप है

इनके हनथो मे भी
न जाने क्या बात है
रोते है मन में
फिर भी हंसी का भाव है
आज ये उदास है
इसके पीछे न जाने क्या बात है ।

-----संदीप कुमार सिंह।
एक पल भी आरम नही हैं,
जब से बोझ उठाया हैं
जीवन के इस रंग भवर में
फंसता ही चला गया हैं ।

बीत गए दिन खुशियों के इनकी
अब मुश्किल घडियां आइ हैं
पिता जी बाडी मुश्किल से यहॉ
अब दो पैसा कमऐं हैं ।

अपने को परेशान करके
परिवर को उंचा उठाया हैं
एक पल भी आरम नही हैं
जब से बोझ उठाया हैं ।

सुबह उठ है काम पे जाना
पिता का धर्म् हैं इन्हें निभना
रो परती हैं नाजुक आंखियॉ
जब ना सके वें इसे निभना ।

थी मन में आशाऐं अनेंक
पुरा न कियें कोइ भी एक
मार दियें चहत को अपने
तड. दियें सभी अपने सपने ।

एक पल भी आरम नहि हैं
जब से बोझ उठया हैं
जिवन के इस रंग भव्र मे
फंसता ही चला गया हैं ।

      संदीप कुमार सिंह।
वाह रे दुनियाँ, वाह!
देख लिया तेरा न्याय
बेबस, मासूम, लाचार रिक्सावाला से
कैसा किया तू न्याय ।

दिन आज वो रिक्सा चलाया
दो पैसा तो दिन मे पाया
अंतिम भाड़ा जब वो उठाया
और दो पैसा का ख्वाब सजाया ।

जब मांगा भाड़ा तो थप्पड़ लगाया
चोर कह कर उसे सब ने सताया
संघर्ष के वक्त कोई कम न आया
अर्ध-मृत हुआ तो सहारा दिखाया।

वाह रे दुनियाँ, वाह !
क्या खूब रंग दिखाया
दोषी को छोड़ तू
निर्दोष को सताया
उसे मार-मार कर
तू लहू बहाया।

वो तो बेचारा अधिकार मांगा
अपने रिक्से का भाड़ा मांगा
बस क्या यही था कसूर
पर वो तो था बेकसूर-बेकसूर ।

किया प्रमाण यह तू जालिम है
गरीबो का हाँ
तू जालिम है
समाज मे शोषण कर्ता का
हाँ, तू दुनियाँ
तू सहयोगी है ।

करते हो तुम शोषण उन पर
उठा न पाये जो
आवाज तुम पर
दबा दिया तू उस आवाज को
जो था अकेला
इस कर्म-भू पर ।

वाह रे दुनियाँ, वाह !
सभी यहाँ पर अत्याचारी
लगाते हो नारा
हम मे है भाईचारा
डूब मारो तुम छोटी नालो मे
तुम सभी हो अत्याचारी

उच्च वर्ग तो उच्च ही है
मध्य वर्ग भी तो कम नहीं है
साथ देते हो तुम उनके
क्या तुम
शोषण कर्ता से कम नहीं हो ।

---संदीप कुमार सिंह।
वह अपने आप को छुपाती है
सारी बाते लबो से दबाती है
कुछ कहना है तो कह दो
दो दिन की जींदगी और बाकी है।

मैं तो चाहता हूँ तुम्हें, सब को पता है
अपना हाले दिन तू अब तो बता दे
कितना अब इंतजार करू मैं
अपने लबो के पर्दे को अब तो हटा दे।

मैं बैठा रह गया तेरे इंतजार में
अब तो खुद को तू मुझसे मिला दे
अपना हाले दिल मुझे तू अब तो सुना दे
मुझे जीने का अब तो कोई रास्ता दिखा दे।

वह अपने आप को छुपाती है
पर नजरे उनकी सब बताती है
मैं जानता हूँ सब तेरी बाते
मुझे भी तो अब अपना बनाले ।

अभी भी इंतजार है उनका
कभी अपना चेहरा तो दिखा दे
खुल के तू जरा सा मुस्कुरा दे
जज़बातो को अपने लबो से उतार दे।

संदीप कुमार सिंह
बेटी हूँ तो मिटा दिया |

क्या थी मेरी गलती माँ,
जो तूने मुझे मिटा दिया,
अपनी ही हांथो से तूने,
आँचल अपना हटा दिया,

देेख न पायी मैं तेरी सूरत ,
कैसी थी माँ तेरी मूरत,
चली गई मैं यहाँ से रोवत,
कैसी थी माँ पापा की सूरत |

बेटी हूँ मैं इसी लिए क्या ,
हाथ अपना हटा लिया ?
क्या थी मेरी गलती माँ,
जो तूने मुझे मिटा दिया ?

यह दुनिया देखने से पहले,
क्यो तूने मुझे सुला दिया,
क्या थी मेरी गलती माँ,
जो इतना बड़ा सजा दिया?

" बेटी है तो क्या हुआ,ये है आँखों का नूर  |
जीने का अद्दिकार छीन कर करो न इनको दूर |"

                                                    संदीप कुमार सिंह |
                                       ( हिंदी विभाग, तेज़पुर विश्वविधयालय )
                                               मो.नॉ. +918471910640
भुला देना मेरे हृदय से
तुम्हारे हर एक यादों को
उन फरियादों को, मुलाकातों को
उन हर एक नजारो को
खुद को, मुझ को, हम सब को।

भुला देना तुम हमारी
उन पहली मुलाकातों, उन पालो को
जो बिताएँ थे साथ-साथ
भुला देना तुम
उस साथ को, मुलाक़ातों को
दो पल को, और हम को।

तुम तो जीलोगी
किसी और की यादों में
यादों में मेरे सताओगी मुझाको
तन्हा रुलाओगी  
हर पल, हर दिन
यादों को लेकर तड़पाओगी मुझको।

कुछ दिन तो लगेंगे मुझे
तुम्हें  भूल जाने को
तुम्हारी उन यादों को, हर मुलाकातों को
मेरे दिल से मिटाने को।

तबतक तड़पूंगा
जी भर के रोलूंगा  s
तुम्हें याद करूंगा
तुम्हारे लौट आने का
खुदा से भी फरियाद करूंगा। पर....

भुला देना तुम अपने दिलो से
मेरी तड़प की आवाज सुनने की चाहत को
मेरी बेचैनी,
तुम्हें पाने की चाहत और
मेरी आंखो में आँसू देखने की
अपनी तमन्ना को।

भुला देना मेरे हृदय से
तुम्हारे हर एक यादों को
उन फरियादों को, मुलाकातों को
उन हर एक नजारो को
खुद को, मुझ को, हम सब को।
भुला देना तुम, भुला देना।

     -संदीप कुमार सिंह
संसार वालो !
मत पड़ो तुम, इस धर्म के जल मे,
ये सब तो है बेकार,
मानव धर्म है सब से महान,
सीख लो तुम ये संस्कार।

कबीर दस ने हमे सिखाया,
मानवता का ज्ञान,
मूर्ति पुजा करने से
मिले न हमे भगवान ।

संसार वालो!
मानव मे है ईश्वर
करो मानव का सम्मान,
ईश्वर मे है श्रद्धा तो
गरीबो को करो कुछ दान।

जो खर्च किये है तुमने
ईश्वर के नाम,
वह खर्च कभी न आएगा
तुम्हारे किसी भी काम।
अगर मानव के प्रति नहीं है श्रद्धा
नहीं है ध्यान, तो
ईश्वर भी नहीं मेहरबान।

संदीप कुमार सिंह ।
आंखो के सामने उलझते देखा
दो दोस्त को बिगड़ते देखा
दो प्यार को लड़ते देखा
दो फूल को टूटते देखा ।

न देखा तो,

किसी को बनाते न देखा
किसी को मानते न देखा
प्यार को हँसाते न देखा
दोस्त को बुलाते न देखा
दो फूल को खिलते न देखा।

-संदीप कुमार सिंह
भोजपुर से आयी हूँ मैं
भोजपुरिया मेरा नाम
भाषा को मधुर बनाती हूँ मैं
मधु-रस भरना मेरा काम ।

होटो से तू छूले मुझको
मत कर मेरा अपमान
भोजपुर से आयी हूँ मैं
भोजपुरिया मेरा नाम ।

हे भाषा को जन्ने वाली
सबको एक सूत्र में रखने वाली
कण-कण में ज्योत जलाने वाली
हे भाषा को जन्ने वाली ।

लुप्त हो रही मेरी दुनियाँ
लुप्त हो रही है भोजपुरीया
साथ छोड़ रही है दुनियाँ
मुझे ही तोड़ रही है भोजपूरियाँ ।

जन्म से साथ निभायी हूँ
भूखे को रह दिखलायी हूँ
सदियों से बहती आयी हूँ
सुख-दुख भी साथ मैं लायी हूँ

मैं भोजपुर से आयी हूँ
भोजपुरिया मेरा नाम ।
भाषा को मधुर बनाती हूँ मैं
मधु-रस भरना मेरा काम ।

        -----संदीप कुमार सिंह ।
तेरे इंकार करने से पहले
मैं रास्ता बदल जाऊंगा
जिस रास्तो से तुम गुजरोगी
वाह पथ मैं छोड़ जाऊंगा
जब याद कभी करोगी मुझको
तेरी यादों से निकल जाऊंगा
तेरे इंकार करने से पहले
मैं रास्ता बदल जाऊंगा।

जो हो मुझसे तुम नाराज
तेरी यादे छोड़ जाऊंगा
तेरे संग बिताए सभी
उन लम्हो को भूल जाऊंगा
तेरे इंकार करने से पहले
मैं रास्ता बदल जाऊंगा।

चाहोगे तुम अगर तो, मैं
अपनी खुशियाँ भूल जाऊंगा
गुजारोगी तुम जिस भी गली से
वो गलियाँ मैं छोड़ जाऊंगा
तेरे इंकार करने से पहले
मैं रास्ता बदल जाऊंगा।

जिस कविता से तुम हो नाराज
वो कविता छोड़ जाऊंगा
तेरे यादों का महल मैं
एक पल में तोड़ जाऊंगा
तेरे इंकार करने से पहले
मैं रास्ता बदल जाऊंगा।

जो मुझसे तुम हो नाराज
मैं खुद को भूल जाऊंगा
तेरी यादों और वो पल
मैं सब को छोड़ जाऊंगा
तेरे इंकर करने से पहले
मैं रास्ता बदल जाऊंगा।

मेरे जिस बातो से तुम हो नाराज
वो बाते न भूल पाऊँगा
वो लम्हे, उन बातो को याद कर
मैं जीवन भर पछताऊंगा
तेरे इंकार करने से पहले
मैं रास्ता बदल जाऊंगा।

-संदीप कुमार सिंह।
वर्षा भी कुछ कहती है
इसके हर एक बूंद
बूंद के हर शब्द मे
अनेकों राज छुपाये रहती है
वर्षा भी कुछ कहती है

पनी से निकलते
हल्के-हल्के मधुर संगीत
जीवन की सच्चाई गुनगुनाती है
वर्षा भी कुछ कहती है

पनी भरे बादल के
सब्र का बांध जब टूट जाता है
तब छत पर पड़े
धूल-मिट्टी गंदगी आदि
सभी को
एक ही पल में, छन में
धरती पर ले आती है
वर्षा भी कुछ कहती है  

धूल, मिट्टी, कणों आदि को
जब अहंकार आ जाता है
अतीत भूल वह हर-पल
सभी छतो पर छा जाता है
तब आने वाली कुछ ही पल में
वर्षा आ जाती है

सभी कणों के अहंकार को
एक छन मे ,पल मे
मिट्टी मे बहा लाती है
उस अहंकार को तोड़ वह
फिर से चली जाती है
वर्षा भी कुछ कहती है।

---संदीप कुमार सिंह।
वर्षा रानी जल्दी आना,
आकर सब की प्यास बुझाना,
थोड़ी- थोड़ी ही तुम आना,
आपने दर्शन देती जाना ।


पता तुम्हें क्या बीत रही है,
इन धधकती ज्वालों में,
गर्मी से जलती धरती, और
हवाओं के हर झोकों में ।

तन – मन मेरा काँप रहा है,
सब खून – पसीना सूख रहा है,
सूरज से निकली तापो में,
दुनियाँ ये सारा झुलस रहा है,

वर्षा रानी जल्दी आना ,
आकर हम सब की प्राण बचाना।

एक सिकायत करता हूँ मैं,
बादल फट के तू न आना,
गर्जन के संग तू न आना ,
आँधी लेकर तू न आना,
आना तो बस ऐसे आना,
सब को जीवन देती आना ।

वर्षा रानी जल्दी आना,
आकर सब की प्यास बुझाना,
थोड़ी – थोड़ी ही तुम आना,
अपना दर्शन देती जाना ।
वर्षा रानी जल्दी आना ।

------- संदीप कुमार सिंह ।
हमें डर लगता है
इसी लिए तो चुप रहते है
वरना कलाम तो हमारी भी
खूब चलती है।

हमे डर लगता है
सामाजिक मुद्दो पर लिखने मे
अपने विचार रखने में
अपने आप से लड़ने में।

देख लेते है हम
अपनी आंखे बंद करके
लोगो को रोते, चिल्लाते
साँसे थाम लेते है, कलम बंद कर लेते है ।

हमें डर लगता है
इसी लिए तो आंखे मूँद लेते है
वरना इन आंखो से भी
चिंगारियाँ खूब निकलती है।

कलम रोती है मेरी, कहती है
कभी तो मुझे छोड़ दो
आजादी से लिखने दो, पर
इसे कैसे समझाऊँ
हाथ स्व्यम रुक जाती है ।

हमें डर लगता है
इसी लिए तो चुप रहते है
वरना कलाम तो हमारी भी
खूब चलती है।

>>> संदीप कुमार सिंह <<<

— The End —