गलियां हैं सुनसान मन में है मायूसी दिन लगते हैं महीने रातें लगती साल गलियों की चौकीदारी है वक्त की मिसाल पूजा घर हैं सुने अस्पतालें हैं बेजार झुलस रही है मानवता एक वायरस के खौफ में सब कुछ है समर्पित इस मानवता की जिहाद में रातों का मोल ही क्या जब दिन ही हैं दुश्वार