एक देहातिन अपनी दस साल की बच्ची संग बाजार में आती है पैरों में जीर्ण शीर्ण हवाई चप्पल तन पर देहाती घाघरा लुगड़ी दोपहर की सुलगती धूप तापमान पतालिस डिग्री पार इस सबकी परवाह किए बगैर दोनों सड़क पर पैदल चल रही हैं रास्ते में एक हलवाई की दुकान देख बाल मन ललचाता है मां उस के मन की बात समझ जाती है अपनी गरीबी की चिंता किए बगैर उसे दस रूपये की कचोरी दिलाती है बच्ची कचोरी हाथ में ले गर्व से चल पड़ती है चलते चलते खाने लगती है बाल मन ऐसा ही होता है जगह नहीं देखता है बस कहीं भी मन की मुराद पूरी कर लेता है यही वह बात है जो रिश्तो की ऊंचाई को बताती है माता-पिता को बच्चों का भगवान बनाती है इसलिए शायद भगवान की भी कृपा रहती है क्योंकि जिस गर्मी में हम तेल की बनी वस्तुओं से किनारा करते हैं वही मां के सद्भावना से खिलाने पर शायद स्वास्थ्य को नुकसान नहीं पहुंचा पाती है रुपए पैसे गहने वस्त्र शायद कुछ नहीं हैं सिर्फ मां है तो सब कुछ हैं सर्दी गर्मी वर्षा मां के आंचल को कभी भेद नहीं पाई हैं क्योंकि मां के प्यार में कोई मिलावट नहीं है उसमें कोई गरीबी नहीं है सिर्फ ममता की अमीरी है जो हर मौसम और बाधा पर हमेशा ही भारी है।