Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
May 2019
एक देहातिन
अपनी दस साल की बच्ची संग
बाजार में आती है
पैरों में जीर्ण शीर्ण हवाई चप्पल
तन पर देहाती घाघरा लुगड़ी
दोपहर की सुलगती धूप
तापमान पतालिस डिग्री पार
इस सबकी परवाह किए बगैर
दोनों सड़क पर पैदल चल रही हैं
रास्ते में एक हलवाई की दुकान देख
बाल मन ललचाता है
मां उस के मन की बात समझ जाती है
अपनी गरीबी की चिंता किए बगैर
उसे दस रूपये की कचोरी दिलाती है
बच्ची कचोरी हाथ में ले गर्व से चल पड़ती है
चलते चलते खाने लगती है
बाल मन ऐसा ही होता है
जगह नहीं देखता है
बस कहीं भी मन की मुराद पूरी कर लेता है
यही वह बात है जो रिश्तो की ऊंचाई को बताती है
माता-पिता को बच्चों का भगवान बनाती है
इसलिए शायद भगवान की भी कृपा रहती है
क्योंकि जिस गर्मी में हम
तेल की बनी वस्तुओं से किनारा करते हैं
वही मां के सद्भावना से खिलाने पर
शायद स्वास्थ्य को नुकसान नहीं पहुंचा पाती है
रुपए पैसे गहने वस्त्र शायद कुछ नहीं हैं
सिर्फ मां है तो सब कुछ हैं
सर्दी गर्मी वर्षा मां के आंचल को
कभी भेद नहीं पाई हैं
क्योंकि मां के प्यार में कोई मिलावट नहीं है
उसमें कोई गरीबी नहीं है
सिर्फ ममता की अमीरी है
जो हर मौसम और बाधा‌ पर
हमेशा ही भारी है।
Mohan Sardarshahari
Written by
Mohan Sardarshahari  56/M/India
(56/M/India)   
Please log in to view and add comments on poems