ये कमबख्त सन्नाटा कितना शोर करता है,
ऊपर से कितनी गूंजती हैं इसकी आवाज़ें।
जब से ऊपर वाला कमरा दिया है रेंट पे,
बस सारा दिन — छे… छे…
एडवांस नहीं लिया होता,
तो कब का निकाल देता।
अब तो घर की दीवारों के भी रंग
एक से होने लगे हैं…
सन्नाटा कभी-कभी सबसे ऊँची आवाज़ करता है।
ये कविता उसी शोर की कहानी है — जहां अकेलापन, रोज़मर्रा की थकन, और भीतर की चुप्पी, एक साथ बज उठते हैं।