हम इंसान ही इंसान का अस्तित्व मिटा रहे हैं
जानवरों को ख़तम करने में भी हम इंसान का साया है,
रेशम, सूती, खादी को हम ही मिटा रहे हैं,
शहद का स्वाद अब बच्चों को भाता नहीं है,
फलों को खाना नहीं बल्कि पीना उन्हें आता है,
घर में गरम खाना बनना अब दुर्लभ हो गया है,
रास्ते से आते-आते पार्सल लाना अब आम हो गया है,
टीवी,मोबाइल, कंप्यूटर, एफम रेडियो
अब १६ घंटे ले लेते हैं,
बच्चों के लिए अब किताबों की जगह डिजिटल नोटबुक ले रहे हैं,
इंसान के पास सोचने का समय ही नहीं है,
इंसान के लिए बनायीं चीज़ों का इंसान आज खुद गुलाम है |
खाली ज़मीन पर पेढ़ लगाना किसी को नहीं सुहाता,
ज़ू में जा कर जानवरों को दाना खिलाना १६ घंटों की गुलामी में मुमकिन हो नहीं पाता,
नाते रिश्तेदारों को घर बुलाना अब सालाना त्यौहार है,
दोस्तों से मिलना मिलाना अब फेसबुक और इे मेल पर निर्भर है ,
पैदल चलना, चुढ़ीयों की चहचाहट सुनना अब सपना लगता है,
फिर भी इंसान खुद को पहले से ज्यादा व्यस्त समझता है |
बच्चे घर के बहार नहीं अन्दर बढे हो रहे हैं,
उनकी लम्बाई भी रुक कर चौड़ाई में तब्दील हो रही है,
०-१० साल तक बच्चों का दिमाग बढता रहता है,
वोह जो खाते हैं, करते हैं जीवन भर याद रहता है,
चलना, हँसना, सोचना, खेलना, खाना वोह इसी उम्र में सीखते हैं,
विडम्बना यह है के इसी समय पर माँ का करियर और पापा का प्रोमोशन निर्भर है,
चाहे अनचाहे जाने अनजाने ही हम बच्चों के दिमाग में अंकुश लगा रहे हैं,
विडियो गेम के हवाले हम आने वाले भविष्य की अर्थी चड़ा रहे हैं,
हम इंसान ही इंसान का अस्तित्व मिटा रहे हैं,
हम इंसान ही इंसान का अस्तित्व मिटा रहे हैं |
The original Hindi one written in 2010... I feels it fits today more than then