छत से देखा करते थे ,
पीछे की पहाड़ी को ,
जला रखा था किसी पीर बाबा ने ,
मंदिर में एक दिया जो ,
रोशनी नज़र आती थी ,
उस मंदिर की दूर से ,
घुप अँधेरे में दिशा बताती ,
पहाड़ी थो कहलाती गोगापीर थी ,
सुकून काफी देती थी वोह रोशनी आँखों को /
जब मन उथल पुथल करता था,
छत पे जा वहीँ निहार्थी थी मैं ,
जब तेज़ हवा चलती थी ,
दौड़ के जा कर रोशनी देख आती थी मैं ,
न तूफ़ान में, न बारिश में ,
न गर्मियों में न सर्दियों में ,
कोई एक दिन न गुज़रता था उस शमा के बगैर /
वीरान से इलाके में कौन पीर रहते थे?
न जाने कैसे उतना ऊपर चढ़ के रौशनी वोह कर जाते थे ?
हर समय यह एक सवाल मन में रहता था ,
कौन सी शक्ति उनमें है जो ,
मंदिर को रोशन कर जाते थे ?
एक बार सोचा मैं ने ,
जा के देखूं वहां ,
बीहड़ इलाका पार कर के ,
गोगापीर के नीचे पहुंची मैं ,
उतनी ही शांति थी वहां जो छत से महसूस की थी ,
रूहानी शांति हवा में छाही थी ,
धीरे धीरे पहाड़ी चढ़ी ,
मंदिर के दरवाजे पे पहुंची,
दिया अब भी जल रहा था,
दिन था इसीलिए नज़र नहीं आया दूर से /
कुछ देर बैठने पे एहसास हुआ
की यहाँ कोई पीर अब है ही नहीं
दिया यूँही जलता है कोई जलाता नहीं !
पीर बाबा का मज़ार नीचे था
कोई पंडित कोई इंसान का वजूद तक न था
मंदिर का दिया टीम- टीमाता हुआ
मंदिर और मज़ार को रोशनी दे रहा था
किसने कहा रूह नहीं होती ,
मंदिर की रोशनी रूहानी थी ,
हर देखने वाले के मन को शांत करने वाली ,
वोह पीर बाबा की लगायी बरसों पुरानी थी /
कई बरस बीत गए
घर बदल गया .......
पुराने घर जब जाती हूँ ,
छत पर अब भी जाती हूँ ,
दिया अब भी टीम टिमाता है ,
अब भी वही शांति महसूस होती है ,
लेकिन अब नतमस्तक हो जाती हूँ ,
उस रूह के लिए जिसने इतनी शांति दी ...
उस रूह के लिए जिसने मुझे वोह रोशनी दी ....!!!
The poem is written in my mother tongue... From the country I come from... India.
It's about a small hill that was behind my house... Some miles away.. But in the evening from the roof of the house one could see the hill, and a small lamp use the burn thr each night.... Just like a light house!!