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Bhakti
Poems
Dec 2017
Woman
इंतेहा हो गई पर सहती रही
उम्मीदो की दरिया जैसी बहती रही
कभी अपनों के लिए
कभी अपनों के सपनो के लिए
चाहे आखो में हो अश्क का सागर
होठो में ओरो की मुस्कराहट लिए
पथरीली रहो पर चलती रही
शाम की तरह ढलती रही
उम्मीदो के दरिया जैसी बहती रही
अस्काम के तराशे हम खुद्गरजो के लिए
मतलबी दुनिया के मकबरों के लिए
हर दर्द सहे उसने हँसते हँसते
जो मुड़ कर न आये उन पलों के लिए
औरत है वो देवी जो बुझती रही
मुरझा गई पर जीती रही
जाने कैसे वो इम्तेहा सहती रही
जाने कैसे दरिया बन बहती रही
#woman
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#poetry
Written by
Bhakti
26/F/India,Indore
(26/F/India,Indore)
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