उलझी काली रातों में, तेरी खट्टी मीठी बातों में, हस्ती, खिल - खिलाती, रोतली सी शक्लो में, अक्सर में तुझको खुद में कैद कर, अपनी हंसी को बेबसी में तबदील कर लेती हूं ।
आँखो के काले घेरे, अनगिनत घाव मेरे, चीख के पुकारते है तुझे, बहते आंसुओ से फिर उन घावों को बेबसी का नमक देती हूँ ।
तेरे ख्वाब सिरहाने रखते हुए, तकिये से बाते करते हुए, दीवारों को ताकते हुए, रात रात भर अपनी बेबसी का हिसाब लगाती हूँ ।
पायल उतार फेकी है, झुमके अब रास नही आ रहे है, जब से तुम दूर गए हो, खुशिया में भी बेबसी का हिजाब रहता है ।
बेबसी को बढ़ाने के लिए ही सही, बेबस को और बेबस करने ही सही, एक बार आए वो इस बात की बेबसी बढ़ती जा रही है ।