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Mohan Jaipuri Dec 2020
बोर्डर कहता मुझ पर
कभी‌ ठहरना मत
वरना होगा विप्लव
घर के बॉर्डर नजरें जो ठहरे
तब पड़ोसियों में उपद्रव।

देश के बोर्डर सेना टिके
तब मानवता घुटने टेके
राजधानी बॉर्डर किसान डटे
तब अर्थशास्त्र कोने में सिमटे
साड़ी बॉर्डर नजरें टिके तो
समझो पांचो पांडव बिके
सदा करो बॉर्डर का सम्मान
इसमें है सबका कल्याण।।
Mohan Jaipuri Dec 2020
सरकारें आती हैं
सब्सिडी, लोन,
बिजली से भरमाती हैं
कर्ज के परिणामों से अनभिज्ञ!
     किसान हंसता है
     कुछ नकली हंसी
     कुछ राहत की मदहोशी
यह देख सरकार
पैंतरा बदलती है
अनाज को
खुले बाजार की सुपुर्दगी
का निश्चय करती है
     किसान रोता है
     अपना आपा खोने पर
     मजबूर होता है!
Mohan Jaipuri Dec 2020
मेरा बचपन सीधा था
           बीता गोरे धोरों में।
सूरज उगते खेत पहुंचते
घर आते थे तारों में
खेतों में मोर-पपीहे बोलते
पशु चरते थे कतारों में
              घरवालों से खूब डरता
            बात समझता था उनकी इशारों में।
शाम को खाने में हमेशा खिचड़ी
दही रोटी का कलेवा था
दोपहर में सांगरी की कढ्ढी
संग बाजरी की रोटी का चलेवा‌ था
                 सर्दी जुकाम में चाय पीता
                 यही आदत थी चलन में।
स्कूल चलती थी छप्पर में
ना झंझट था गणवेश का
पानी लाना, रोटी बनाना
शामिल था गुरु सेवा में
बारहखड़ी और पहाड़े बोलना
मिलता था बस मेवा में
                गुरुजी के डंडे का खौफ
               अक्सर सताता था नींदों में।
प्राथमिक बाद दूसरे गांव गया
पैदल पढ़ने मीलों दूर
घरवालों से पढ़ने के लिए
करता रहता मैं जी हुजूर
         इक्कीस रूपये सालाना फीस की खातिर
          कई दिन व्यर्थ होते थे हल चलाने में।
मैं बैठता था पढ़ने घरवाले
ताना देते थे काम चोरी का
कभी-कभी तो छीना- झपटी में
वो रख देते थे कनपटी में
             मां के साथ और आशीर्वाद से
             सदा अव्वल रहा पढ़ाई में।
मां सरस्वती की कृपा थी
काम चलता रहा वजीफे में
दोस्तों और शुभचिंतकों की‌
दुआएं भरता रहा मैं झोली में
                ऐसा करते - करते ही
                पहुंच गया जवानी में।।











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Mohan Jaipuri Dec 2020
लोमड़ी ! ए लोमड़ी!
चतुर चालाक तू पशु बड़ी
तू खेतों का रूप है
तेरी 'डो' 'डो' आवाज
मुझको लगती प्यारी बड़ी
फसलों को चूहों से बचाती
तेरी चप्पल चालाक
नजरें उन पर गड़ी-गड़ी
तेरी खोदी हुई मांदों में
हम छुपते थे घड़ी-घड़ी
देखते थे तेरी पूंछ
फूल झाड़ू जैसी बड़ी-बड़ी
लोमड़ी! ए लोमड़ी!..

मतीरों के खेतों में
तेरा फेरा लगता ऐसे
जैसे हो मंदिर की फेरी
चौकस नजरें और स्फूर्ति
तेरे शिकार पर पड़ती भारी
तेरी चपलता और चेष्टा
की है महिमा बहुत न्यारी
इसलिए ही जग में तू
मशहूर है चालाकी धारी
लोमड़ी! ए लोमड़ी!
चतुर चालाक तू पशु बड़ी।।
Mohan Jaipuri Dec 2020
उतार आए हैं सिर से
सारे ही बोझ
बैठे हैं सीमा पर चाहे
पुलिस आये या फौज।
       कभी मौसम ने लूटा
       कभी महामारी
       हम सहते रहे
        सारी दुश्वारी
दु:खों की कतार
हमने देखी है रोज।
       अस्तित्व कुछ होता है
       यह हमें ना मालूम
‌        सभी हमें छलते हैं
      हमें पहचान की ना तालीम
धरती से ही जुड़े हैं
बस यही एक मौज।
       हमें किसी से अपेक्षा नहीं
       फिर भी यह कैसी जबरदस्ती
       कृषि सुधार का टोकरा
    लेकर आ गया राज रूपी हस्ति
      सांसे हो गई महंगी गर्दन है सस्ती
अब तो भूल चुके हैं
करना अपनी ही खोज।
Farmers agitation in India.
Mohan Jaipuri Dec 2020
दिसंबर की धूप
लगती दुल्हन का रूप

       रहती कोहरे के
     घुंघट में सिमटी सी
    निकलती लंच के समय
       शरमाती सी
सरकती ऐसे जैसे
मेहंदी वाले पांव सरूप

       देती है बस एक
      अबोली झलक
      जाना हो जैसे
     उसे पीहर तलक
कर जाती है हवाले ठण्ड के
जो रहती सीने में कसक स्वरूप।।
Mohan Jaipuri Dec 2020
सफलता के लिए
ईश्वर का स्मरण व
स्वयं का पुरुषार्थ
खुशी के लिए
माता-पिता का
सदैव सिर हाथ
सम्मान के लिए
परिवार का साथ
अन्यथा भटकना
है यहां‌ अकारथ।।
HBD Vivek my son and the above message for you with blessing.❤️❤️❤️❤️❤️
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