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575 · Jun 2018
Ritmo/Rhythm
Avanish maurya Jun 2018
Mad has decided to catch a vulture,
the biggest bird she can find.

She is so determined, and so inventive,
that by stringing together a rickety trap
of ropes and sticks, she creates
a puzzling structure that just might
be clever enough to trick a buzzard,
once the trap’s baited with leftover pork
from supper.

Mad and I used to do everything together,
but now I need a project all my own,
so I roam the green fields,
finding bones.

The skull of a wild boar.
The jawbone of a mule.

Older cousins show me
how to shake the mule’s quijada,
to make the blunt teeth
rattle.
Avanish maurya Aug 2018
कहाँ पर बोलना है
और कहाँ पर बोल जाते हैं।
जहाँ खामोश रहना है
वहाँ मुँह खोल जाते हैं।।
Poem
308 · Aug 2018
वीरांगना
Avanish maurya Aug 2018
मैंने उसको
जब-जब देखा,
लोहा देखा।
लोहे जैसा
तपते देखा, गलते देखा, ढलते देखा
मैंने उसको
गोली जैसा चलते देखा।
298 · Jun 2018
एक सुबह
Avanish maurya Jun 2018
आसमान में छितराये वो बादल
पेड़ो के झुरमुट से आती वो आवाजें
चीं-चीं ,काँ-काँ ,टयूँ-टयूँ, पिहू-पिहू
इन सब को शांति से सुनती वो लतायें
हवा के झोखे से हिलती वो पत्तियाँ
सोते इंसानों को जगाती वो बोलियाँ
इस मधुर-संगीत को कैद करते वो संगीतकार
नाकामयाब से ढूंढ रहे अपने साज
पर पकड़ न पाये वो ताल।

आँगन से उठता वो धुआँ
खुशबू बिखेरता वो आशियाँ
जहाँ हर चेहरा खिलता देख वो रोटियाँ
जो मिटाती तन-मन की भूख।

ये ही है वो गुलिस्तां
जिसे ढूंढ रहा पागल-सा वो इंसान
जिसे खरीद नहीं सकता कुबेर का खजाना
भौर की वो किरण
ओस की वो बूंदें
सकूँ भरी वो सांस
ये ही है वो एक सुबह।
Avanish maurya Aug 2018
​ढलते सूरज को फिर से उगते देखा है, लहरों को टकरा कर फिर से बनते देखा है..

बुझे हुए चिराग को पुनः जलते देखा है, मैंने हारे हुए आज को विजयी कल बनते देखा है..

निराश, टूटे हुए मन को  संवरते  देखा है, सोई हुई उमंग में रँग भरते देखा है..

मुरझाई  कली  को  फूल  में  बदलते देखा है, मैंने तेरी आँखों में जीत को चमकते देखा है…



नन्ही चींटी को सौ बार फिसलते देखा है, बार-बार कोशिश करते उसे फिर उठते देखा है..

हारे हुए हौसलों को उड़ान भरते देखा है , मैंने राही को राह में कांटों से निपटते देखा है..

रण छोड़ कर विवश बैठे अर्जुन को देखा है, उसी अर्जुन को महाभारत में विजयी बनते देखा है..

उठ साथी, मन को संभाल और प्रयास कर, क्योंकि मैंने हारे हुए आज में तेरे जीते हुए कल को देखा है..



तेरी माँ को मैंने तुझे याद करते देखा है, छुप-छुप कर तेरे पिता से.. आँख भरते देखा है..

तेरे पिता ने तुझे बचपन में गिरते संभलते देखा है, मैंने उनकी आँखों में स्नेह झलकते देखा है..

जिंदगी को इम्तेहान लेते देखा है, हारे हुए पर लोगों को हँसते देखा है..

लोगों की छोड़ और खुद पर कर यकीन, क्योंकि मैंने तेरे कल में तुझको चमकते देखा है..
Poem
Avanish maurya Mar 2019
अपनी तबियत सबसे यूँ मिलती ना थी...
कमरे में खिड़की तो थी, खुलती ना थी...

हम अपनी मर्जी के मालिक होते थे...
अच्छे-अच्छों की हम पर गलती ना थी...

पहले तो बस दिन होता था या की रात..
शाम कभी इस दर पे तो गलती ना थी...

यारों से मिलना-जुलना जो जाता था..
क़िल्लत भी होती थी तो गलती ना थी...

अब तुम इस को अहम कहो या खुद्दारी...
माफ़ी कैसे माँगता जब ग़लती ना थी..
Avanish maurya Sep 2018
बे-नूर पड़ा है शहर मेरा...
बरसों से दीवाली आई कहाँ?
.
.
.
चले हो जबसे यूँ होकर बेगाने,
फ़िर मुझमे रूहानी आयी कहाँ?..
Avanish maurya Aug 2018
कोई दुआ असर नहीं करती,
जब तक वो हमपर नजर नहीं करती,
हम उसकी खबर रखे न रखे,
वो कभी हमें बेखबर नहीं करती।
Shayari
277 · Jun 2018
शायरी
Avanish maurya Jun 2018
कौन कहता है कि दर्पण झूठ नहीं बोलते , मैंने लाख गम छिपाये थे
फिर भी चेहरे पर हंसी दिखाया आईना।।

इंसानियत यहाँ हमने मरते देखा है , बाप घर के बाहर
और घर में कुत्ते देखा हैं।।

दुनिया जान गयी है कि उसको चोट लगा है,
क्योंकि उसे चिल्लाना आता था,
मेरे आघात को किसी ने न समझा
क्योंकि मुझे खामोशी भाँति थी।।

मेरी हर बात उसको खलती है,
फिर भी वो मेरी ही राहो मे चलती हैं।

किताब-ए-इश्क पढ़कर भूलाा दिया हमने
न किसी से शिकवा, न गीला किया हमने
पूछा जो किसी ने मेरी दास्तान-ए-मौहब्बत
एक चिराग जलाकर, बुझा दिया हमने।।

माँ का आँचल काफी था, बचपन में धूप से बचने के लिए,
अब तो ये टोपी भी कोई काम नहीं देती।।

मैं जानता हूँ नमक मिलेंगे जख्म पर मेरे
क्योंकि मुझे सच बोलने की आदत जो है।।

उंगली उठ जाती है सभी की, एक गलती पर
उसके हजारों अच्छाईयाँ नजर नहीं आती
ये कलयुग है मेरे दोस्त …
यहाँ सच्चाईयाँ नजर नहीं आती।।

कुछ चीज तुम्हें भी अच्छा लगता होगा मेरा
इसलिए अक्सर मेरे खिलाफ खड़े होते हो।।

दोस्ती हमसे सोच-समझकर करना दोस्तों,
दुश्मनी भी हम बहुत सलीके से निभाते हैं।।
Avanish maurya Feb 2019
हाँथो   में   यहाँ   नश्तर   है  कई,
इक   आईना  है  पत्थर   है  कई।

ऐ  ख़ुदा  ये  ग़ज़ब का घर है तिरा,
इक माह है फ़क़त अख़्तर है कई।

अब  जीना यहाँ मुमकिन ही नहीं,
इक  मैं  हूँ सफ-ए-लश्कर है कई।

ये  जो  सीढ़ियों   सी   है  जिंदगी,
उतरिये  संभल  के ठोकर है कई।

मेरी  ख़बर  ही  न  रही  यारों को,
कहने  को  मिरे  दिलबर  है  कई।

रंजन उलझन ये किसपर हो यकीं,
इक  राही   यहाँ   रहबर   है  कई।

नश्तर--नुकीला खंजर, माह-- चाँद,
अख़्तर-- सितारे, रहबर-- मार्गदर्शक
सफ-लश्कर-- दुश्मन के फौज़ की लाइने
Ghazal
Avanish maurya Aug 2018
देखिए ना तेज़ कितनी उम्र की रफ़्तार है

ज़िंदगी में चैन कम और फ़र्ज़ की भर-मार है

बे-वजह की रार से कितना लड़े आख़िर कोई

एक मुश्किल से बचे तो दूसरी तय्यार है

हो पराया गर कोई तो दुश्मनी मंज़ूर है

आज अपनों से लड़े तो जीत में भी हार है

अब जहाँ में ख़ून के रिश्ते कहाँ बाक़ी रहे

ख़ून के रिश्तों में बहती ख़ून की अब धार है

बोल मीठे भी कहाँ अब बोलता कोई यहाँ

हर ज़बाँ पे आज केवल साँप की फुन्कार है

दिल दुखाया था जिन्होंने वो पराए तो न थे

आज कैसे मान लें कि उन को हम से प्यार है

कोई भी ऐसा नहीं जो मौत से बच जाएगा

आख़िरी मंज़िल सभी की मौत के उस पार है..
Ghazal
Avanish maurya Sep 2018
अभी सूरज नहीं डूबा ज़रा सी
शाम होने
दो ''

मैं खुद लौट जाऊँगा मुझे
नाकाम होने दो ''

मुझे बदनाम करने का बहाना
क्यों ढूँढते हो ''

मैं खुद बदनाम हो जाऊंगा
पहले नाम
       तो होने दो ''
Poem
Avanish maurya Aug 2018
बर्फीली रातों में मुझे भागना  है
ज़िन्दगी जीने लायक मेरी आज ना है
पर यकीन है तक़दीर बदलेगी मेरी
सोना नहीं है मुझे जागना है


वज़ूद नहीं दुनिया की नज़र में कहीं
पर मिला के आँख सूरज को भी ताकना हैं
बिखर जाए किसी के पत्थर से हम वो काँच नहीं हैं
सोना नहीं हैं मुझे जागना है..
अर्श-
Avanish maurya Jun 2018
मेरे ख़्वाबों की कश्ती
और अहसासों के पंछी

कश्ती पानी में तैर रही
तो पंछी आकाश में
के पंछी भी, कश्ती भी
दोनों, एक सीध में हैं !

कश्ती पर बैठा हुआ मैं
ताकता रहा पंछियों को
और सोचता रहा कि.
मैं अकेला क्यों हूँ . .?

नीला गगन पिघलता गया
जैसे नीली बर्फ़ पिघल रही हो

समंदर भी नीला – नीला
आकाश भी नीला – नीला
मगर मैं और मेरे ख़याल
जैसे पीले-से पड़ गए हैं !!

और मैं सोचता रहा कि.
मैं अकेला क्यों हूँ ?
. . .
. . .
आख़िर,
मैं अकेला क्यों हूँ ?
Avanish maurya Aug 2018
फ़ना दीवार करना चाहता हूँ

मैं सब से प्यार करना चाहता हूँ

हवा में ज़हर घोला जा रहा है

मैं खुशबू-दार करना चाहता हूँ

वफ़ा की अब यहाँ क़ीमत नहीं है

पलट कर वार करना चाहता हूँ

पकड़ से लफ़्ज़ छूटा जा रहा है

जिसे इज़हार करना चाहता हूँ

उधर से फिर पुकारा है किसी ने

समुंदर पार करना चाहता हूँ
227 · Mar 2019
हक़ीक़त
Avanish maurya Mar 2019
हादसों की हक़ीक़त में
ख्वाबों की बात करते हो
खुद को है जलना अब
चिरागों की बात करते हो
फुरसत में हिसाब लगाना
रोटी और पोथी का
करोड़ों की गरीबी में
नवाबों की बात करते हो
Avanish maurya Aug 2018
खुद को इतना भी मत बचाया कर,
बारिशें हो तो भीग जाया कर,
चाँद लाकर कोई नहीं देगा,
अपने चेहरे से जगमगाया कर,
दर्द आँखों से मत बहाया कर,
काम ले कुछ हसीन होंठो से,
बातों-बातों में मुस्कुराया कर,
धूप मायूस लौट जाती है,
छत पे किसी बहाने आया कर,
कौन कहता है दिल मिलाने को,
कम-से-कम हाथ तो मिलाया कर।
Shayari..
Avanish maurya Jun 2018
हृदय-नगरी में बड़ा शोर मचा है
शायद ! कोई अन्दर खो गया है

कुछ झूमती हुई , बदहवासियाँ,
शोर मचाती चिल्लाती खामोशियाँ
मन के, नीले गगन में उड़ती रहीं
कुछ जवान-चंचल चिड़ियों की तरह!

मैंने दिल से पूछा, दिल रो पड़ा है
शायद ! कोई अन्दर खो गया है!

दु:खों में क्या पत्थर भी रोते हैं कोई
अक्स चूमते – धरा भिगोते हैं कोई?
जब सारा जग सोता है हम जागते हैं
या फिर अपना बुत ख़ुदी तराशते हैं !

मेरे हृदय में पूरा संसार बसा है
और ज़िस्म पत्थर का हो गया है
शायद ! कोई अन्दर खो गया है!
Poem
Avanish maurya Jun 2018
सड़क पर पड़ा हुआ है वो गरीब आदमी
सिस्टम सा सड़ा हुआ है वो गरीब आदमी

भूख अब भी जिसको तड़पाया करती है
खुद से ही लड़ा हुआ है वो गरीब आदमी

सत्ता में नेता के झूठे आश्वासनों के खिलाफ
सच के लिये अड़ा हुआ है वो गरीब आदमी

सर्दी गर्मी बारिश जिसको झुका नहीं पायी
मजबूरी में अकड़ा हुआ है वो गरीब आदमी

इस झूठी लोकशाही में अपने ही हालात में
क़दम-क़दम रगड़ा हुआ है वो गरीब आदमी

नफरतों के दौर में आज मुहब्बत ढूंढता हुआ
ख्वाबों से भी झगड़ा हुआ है वो गरीब आदमी

इंसानियत ज़िंदा है अभी तक उसके अंदर
यूँ छोटा नहीं, बड़ा हुआ है वो गरीब आदमी

ये दुनिया उसे कभी कहीं देख ही नहीं पाती
खजाने सा कहीं गढ़ा हुआ है वो गरीब आदमी

जो नहीं कर पाता है मज़हब में फ़र्क़ कोई
संविधान सा खड़ा हुआ है वो गरीब आदमी
205 · Jun 2018
काबिल
Avanish maurya Jun 2018
वो तो काबिल थे सही का शुमार कर लेते।
मेरी गलती थी तो उसमें सुधार कर लेते।।

अगर कोई न हो तेरा यहां सुनने वाला।
तो ये बेहतर था खुदा से गुहार कर लेते।।

मुझे हर हाल में तुम्हारे पास आना था।
हुई थी देर तो कुछ इन्तजार कर लेते।।

बहुत कठिन है रास्ता जो तेरी मंजिल का।
सफर उसी का क्यों न बार बार कर लेते।।

अपने लोगों को गले से लगा के बैठे हैं।
कभी कभी तो वो गैरों से प्यार कर लेते।।

हमारे दिल को दुखाने से चैन मिलता है।
तो और ज्यादा मुझे बेकरार कर लेते।।
Ghazal
199 · Aug 2018
अधिकार
Avanish maurya Aug 2018
वे मुस्काते फूल, नहीं
जिनको आता है मुर्झाना,
वे तारों के दीप, नहीं
जिनको भाता है बुझ जाना।


वे नीलम के मेघ, नहीं
जिनको है घुल जाने की चाह,
वह अनन्त रितुराज, नहीं
जिसने देखी जाने की राह।


वे सूने से नयन, नहीं
जिनमें बनते आँसू मोती,
वह प्राणों की सेज, नहीं
जिसमें बेसुध पीड़ा सोती।


ऐसा तेरा लोक, वेदना नहीं,
नहीं जिसमें अवसाद,
जलना जाना नहीं,
नहीं जिसने जाना मिटने का स्वाद!

क्या अमरों का लोक मिलेगा
तेरी करुणा का उपहार?
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरा मिटने का अधिकार!
Avanish maurya Aug 2018
जब लफ़्ज़ थक गए तो सहारा नहीं दिया

ख़ामोशियों ने साथ हमारा नहीं दिया

यूँ तो फ़लक ने चाँद मिरे नाम कर दिया

जिस की तलाश थी वो सितारा नहीं दिया

इक शख़्स पूछता रहा बस्ती में देर तक

लेकिन पता किसी ने हमारा नहीं दिया

गहरे समुंदरों की फ़ज़ा रास आ गई

अच्छा किया कि दिल को किनारा नहीं दिया
Ghazal
Avanish maurya Jun 2018
मैं अपनी ज़िन्दगी से रूबरू यूँ पेश आता हूँ
ग़मों से गुफ़्तगू करता हूँ लेकिन मुस्कुराता हूँ

ग़ज़ल कहने की कोशिश में कभी ऐसा भी होता है
मैं ख़ुद को तोड लेता हूँ, मैं ख़ुद को फिर बनाता हूँ

कभी शिद्दत से आती है मुझे जब याद उसकी तो
किसी बुझते दिये जैसा ज़रा-सा टिमटिमाता हूँ

सज़ा देना है तेरा काम, कोताही बरतना मत
मैं नाक़र्दा गुनाहों का मुसल्सल ऋण चुकाता हूँ

मेरी मजबूरियां मेरे उसूलों से हैं टकराती
जहाँ पर सर उठाना था वहाँ पर सर झुकाता हूँ

मेरे अल्फ़ाज़ का जादू तेरे सर चढ़ के बोलेगा
दिखाई वो तुझे देगा, तुझे जो मैं दिखाता हूँ
Ghazal
Avanish maurya Jun 2018
मैंने लिखा कुछ भी नहीं
तुम ने पढ़ा कुछ भी नहीं ।

जो भी लिखा दिल से लिखा
इस के सिवा कुछ भी नहीं ।

मुझ से ज़माना है ख़फ़ा
मेरी ख़ता कुछ भी नहीं ।

तुम तो खुदा के बन्दे हो
मेरा खुदा कुछ भी नहीं ।

मैं ने उस पर जान दी
उस को वफ़ा कुछ भी नहीं ।

चाहा तुम्हें यह अब कहूँ
लेकिन कहा कुछ भी नहीं ।

यह तो नज़र की बात है
अच्छा बुरा कुछ भी नहीं ।
Ghazal
Avanish maurya Aug 2018
अपनी ममता को समेटे, तेरे सिर को प्यार से दुलारती थी |

तेरी नादानियाँ – गलतियाँ छिपाती, पापा का गुस्सा ठंडा कर तुझे प्यार से संवारती थी…|

तेरे देरी होने पर बढ़ जाती थी जिसकी धड़कने, अने पर झूठ-मूठ का गुस्सा कर.. प्यार से पुकारती थी. . |

जिसे नहीं थी परवाह अपने दर्द की, तेरी जरा सी बेचैनी में रात बिन सोए गुजारती थी.. |

तेरी हँसी में खुद कि खुशियाँ पाती, तेरे दर्द में जिसकी आंखें अश्रु झलकारती थी.. |

आज….,

छोटे से कमरे में रोती है वो माँ,

                             उसकी क्या खता थी ये तो बता….

तू तो चला गया उसे छोड़ कर,

                           उसका तेरे सिवा कौन है ये तो बता…

खुद खाना खाए पता नहीं कितने दिन बीत गए, पर तेरे लिए आज भी थालियाँ सजती है..

                      उसके प्यार में क्या कमी रह गई ये बता…

उस की आंख से आंसू झरते हैं, पर हलक से पानी नहीं उतरता…

                         उसको कितना दर्द दिया ये तो बता….

” तू क्यों बताएगा, तुझे कौन सी उसकी परवाह है..?

होती तो यों जिंदगी से मुह ना मोड़ता, उसको इतना दर्द क्यों दिया ये तो बता…… ||
Poem
Avanish maurya Aug 2018
तमाम घर को बयाबाँ बना के रखता था
पता नहीं वो दीए क्यूँ बुझा के रखता था

बुरे दिनों के लिए तुमने गुल्लक्कें भर लीं,
मै दोस्तों की दुआएँ बचा के रखता था

वो तितलियों को सिखाता था व्याकरण यारों-
इसी बहाने गुलों को डरा के रखता था

न जाने कौन चला आए वक़्त का मारा,
कि मैं किवाड़ से सांकल हटा के रखता था

हमेशा बात वो करता था घर बनाने की
मगर मचान का नक़्शा छुपा के रखता था

मेरे फिसलने का कारण भी है यही शायद,
कि हर कदम मैं बहुत आज़मा के रखता था
174 · Jun 2018
कभी मिलना
Avanish maurya Jun 2018
कभी मिलना
उन गलियों में
जहाँ छुप्पन-छुपाई में
हमनें रात जगाई थी।
जहाँ गुड्डे-गुड़ियों की शादी में
दोस्तों की बारात बुलाई थी।
जहाँ स्कूल खत्म होते ही
अपनी हँसी-ठिठोली की
अनगिनत महफिलें सजाई थी।
जहाँ पिकनिक मनाने के लिए
अपने ही घर से न जाने
कितनी ही चीज़ें चुराई थी।
जहाँ हर खुशी हर ग़म में
दोस्तों से गले मिलने के लिए
धर्म और जात की दीवारें गिराई थी।
कई दफे यूँ ही उदास हुए तो
दोस्तों ने वक़्त बे-वक़्त
जुगनू पकड़ के जश्न मनाई थी।
जब गया कोई दोस्त
वो गली छोड़ के तो याद में
आँखों को महीनों रुलाई थी।
गली अब भी वही है
पर वो वक़्त नहीं, वो दोस्त नहीं
हरे घास थे जहाँ
वहाँ बस काई उग आई है।
Nill
Avanish maurya Mar 2019
तेरी यादों का अब कोई पेहरेदार नहीं मिलता,
बचपन की शामों सा अब इतवार नहीं मिलता..
Avanish maurya Jun 2018
हम पहले से ही कम थे,
तुमने हमें और अधूरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी,
तुम्हारे शब्दवाण से यह अहसास और गहरा और गहरा हो गया,
हम हकलाते थे, एक आंख, एक पैर, चपटी नाक वाले थे,
हम काले थे, छोटे थे, मोटे थे,
हमारी बुनावट की कई अधूरी रेखाएं तुम्हारे ठहाकों के बीच सिमट गईं,
डबडबाई आंखें बंद कमरे में घंटों निहारती रहीं शीशा,
और तुम दिन-प्रतिदिन उड़ाते रहे हमारा माखौल,
अपने रंग-रूप, कद-काठी और बेडौल से चेहरे पर
लबालब प्यार लिए हम कई बार बढ़े तुम्हारी ओर
और हर बार तुम्हारे शब्दों ने लौटा दिया हमें,
सच कहूं, हमपर ठहाके लगाते हुए तुम्हे अंदाजा नहीं था,
तुम खुद कितना संक्षिप्त हो जाया करते थे,
हमने देखा, माखौल उड़ाते हुए संक्षिप्त और संक्षिप्त होते चले गए तुम
स्तब्ध हो गए जब तुमने देखा अपनी अधूरी रेखाओं से
तुम्हारे ठहाकों के बीच हमने खींच दी एक बड़ी परिधि,
रच दिया अपना आकाश, टांक दिया अपना सूरज,
जिसकी चकाचौंध में समा गए तुम,
तुम्हारी फूहड़ हंसी और तुम्हारे ठहाके।।

— The End —