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कोरा कागज लेकर बैठा हूँ
कुछ लिखना चाहता हूँ
मन की बातो को कहना चाहता हूँ
पर शब्द ही नहीं मिलते
मेरे आंखो के सामने एक दृष्य
बार-बार घूमता है
अस्पष्ट रूप में दिखता है
उसे पकड़ना चाहता हूँ
उसकी व्याख्या करना चाहता हूँ
पर शब्द ही नहीं मिलते।
इसका कारण ढूँढने जब
अपने अंदर जाता हूँ, तो
वहाँ मिलता है मुझे
शिर्फ और शिर्फ ‘शून्य’
एक ऐसा शून्य, जो
अपने अंदर अनेकों शब्दों को
बटोर कर रखी हो, पर
मेरे लिए वह सब, व्यर्थ है
या यह कहूं, कि
मैं जो कहना चाहता हूँ
जिसके बारे में, मैं
सभी को बताना चाहता हूँ
उसके लिए ये शब्द भी
कम पर जाती है।
जिसका चित्र मेरे सामने घूमता है
जिसका एक अधूरा रूप मुझे दिखाता है
वह है एक औरत का
जो अपने गोद में
एक छोटी-सी बच्ची लिए हुए है
जो ठीक से चल भी नहीं पाती
वह औरत, नीले रंग की शारी में है
जो मैली और पुरानी है
उसका शरीर थोड़ी समता रंग
और धूल से भरी हुई है
बच्ची भी पुरानी और मैली कपड़ो में है
हाथ में एक छोटी सी लकड़ी लिए हुए है
मानो एक रक्षक की भांति
अपनी माँ की रक्षा करने की
जिद्द लिए बैठी हो
वह औरत हाथ फैलती है
कुछ मिल गाया तो, आगे बढ़ जाती
उस बच्ची को निहारती, फिर आगे बढ़कर
दया की हाथ फैलती है
उसकी इस दशा पे मैं क्या कहूं
क्या सोचू, क्या लिखू
मेरे सोंचने की क्षमता ही खत्म हो जाती है
सायद इसी कारण मुझे
कोई शब्द नहीं मिलता, और
मैं एक सीमित शून्य में
कैद होकर रह जाता हूँ ।

-संदीप कुमार सिंह
जमाने ने दिखाया है हमें हर वक़्त आईना
मगर गलती ये हमने की जो इसको देख पाए न
हमारी आंखों के आगे से ही सब यूं ही गुजरता गया
ये गलती थी हमारी ही जो इसको रोक पाए न।

बहुत देखे इन आंखों ने उन्हें इस राह को जाते
कभी हँसते, कभी रोते, कभी चलते, कभी गिरते
सोचा इस राह से मैं थाम लूँ उनकी कहानी को
मगर जो राह है अपनी,हम उन तक जा नहीं सकते।

कभी भूखी वह सोती है, कभी रोती ही रहती है
वह इतनी सख्त हो गई है कि आँसू भी न गिरती है
जमाने ने दिखाया है उन्हें यह राह पत्थर का
मगर वह सब समझती है किसी से कुछ न कहती है।

हमारा धर्म क्या है यह तो हम सब भूल बैठे हैं
अपने ही स्वार्थ के चलते हम इनसे दूर रहते हैं
कोई अगर चाहे तो सब कुछ जान सकता है
उन्हें इस राह पर गिरने से पहले थाम सकता है।

अगर चाहे तो हम उनकी जंजीरे खोल सकते हैं
अगर चाहे तो हम उनकी दीवारें तोड़ सकते हैं
अगर चाहे तो हम उनकी हकीकत तौल सकते हैं
अगर चाहे तो हम उनके ये आँसू पोंछ सकते हैं।

मगर यह कौन कहता है कि हम उनको बचाएँगे
यह तो हम भी नहीं कहते कि उनके पास जाएँगे
जमाने ने सिखाया है हमें बस दूर ही रहना
अगर हम पास जाएँगे तो हमें भी छोड़ जाएँगे।

तुम्हारी आंखों से गिरते आँसू को मैंने देखा है
तुम्हारी गोद में सोते एक जीवन मैंने देखा है
तुम्हारे भीतर जलती ममता को भी मैंने देखा है
तुम्हारे आँसू के मोती में एक माँ को मैंने देखा है।

-संदीप कुमार सिंह
तेरे इंकार करने से पहले
मैं रास्ता बदल जाऊंगा
जिस रास्तो से तुम गुजरोगी
वाह पथ मैं छोड़ जाऊंगा
जब याद कभी करोगी मुझको
तेरी यादों से निकल जाऊंगा
तेरे इंकार करने से पहले
मैं रास्ता बदल जाऊंगा।

जो हो मुझसे तुम नाराज
तेरी यादे छोड़ जाऊंगा
तेरे संग बिताए सभी
उन लम्हो को भूल जाऊंगा
तेरे इंकार करने से पहले
मैं रास्ता बदल जाऊंगा।

चाहोगे तुम अगर तो, मैं
अपनी खुशियाँ भूल जाऊंगा
गुजारोगी तुम जिस भी गली से
वो गलियाँ मैं छोड़ जाऊंगा
तेरे इंकार करने से पहले
मैं रास्ता बदल जाऊंगा।

जिस कविता से तुम हो नाराज
वो कविता छोड़ जाऊंगा
तेरे यादों का महल मैं
एक पल में तोड़ जाऊंगा
तेरे इंकार करने से पहले
मैं रास्ता बदल जाऊंगा।

जो मुझसे तुम हो नाराज
मैं खुद को भूल जाऊंगा
तेरी यादों और वो पल
मैं सब को छोड़ जाऊंगा
तेरे इंकर करने से पहले
मैं रास्ता बदल जाऊंगा।

मेरे जिस बातो से तुम हो नाराज
वो बाते न भूल पाऊँगा
वो लम्हे, उन बातो को याद कर
मैं जीवन भर पछताऊंगा
तेरे इंकार करने से पहले
मैं रास्ता बदल जाऊंगा।

-संदीप कुमार सिंह।
Jindagi ke kasma kash me
kuch aise fansa ki
jindagi jine ki tammana hi khatam ** ***
kaise batau tumhe ki
kis kadar pareshan hoon mai
halat hi kuch aise hai ki
in hoto se bayan hi nahi hogi
.>>>>>> SANDEEP KUMAR SINGH.
एक पल भी आरम नही हैं,
जब से बोझ उठाया हैं
जीवन के इस रंग भवर में
फंसता ही चला गया हैं ।

बीत गए दिन खुशियों के इनकी
अब मुश्किल घडियां आइ हैं
पिता जी बाडी मुश्किल से यहॉ
अब दो पैसा कमऐं हैं ।

अपने को परेशान करके
परिवर को उंचा उठाया हैं
एक पल भी आरम नही हैं
जब से बोझ उठाया हैं ।

सुबह उठ है काम पे जाना
पिता का धर्म् हैं इन्हें निभना
रो परती हैं नाजुक आंखियॉ
जब ना सके वें इसे निभना ।

थी मन में आशाऐं अनेंक
पुरा न कियें कोइ भी एक
मार दियें चहत को अपने
तड. दियें सभी अपने सपने ।

एक पल भी आरम नहि हैं
जब से बोझ उठया हैं
जिवन के इस रंग भव्र मे
फंसता ही चला गया हैं ।

      संदीप कुमार सिंह।
दोस्त क्या कहलाता है
यह कौन हमे सिखलाता है
साथ हमेशा देना उसका
यह कौन हमे सिखलाता है ।

आऐ यहाँ हम जब अकेले
न कोई हाथ बढ़ाता है
अंजाने रास्तो पर एक पल से
साथ किसी का आ जाता है

चलते-चलते राह बदलते
वह साथ हमारा देता है
जो हर किसी के बसमे न हो
क्या वह दोस्त कहलाता है ।

सही राह दिखलाने वाले
गुरु का हाथ तो होता है
मुशकील मे साथ निभाने वाले
वही तो दोस्त कहलाता है ।


दोस्त क्या कहलाता है
यह कौन हमे सिखलाता है
साथ हमशा देना उसका
यह कौन हमे सिखलाता है

-संदीप कुमार सिंह ।
भोजपुर से आयी हूँ मैं
भोजपुरिया मेरा नाम
भाषा को मधुर बनाती हूँ मैं
मधु-रस भरना मेरा काम ।

होटो से तू छूले मुझको
मत कर मेरा अपमान
भोजपुर से आयी हूँ मैं
भोजपुरिया मेरा नाम ।

हे भाषा को जन्ने वाली
सबको एक सूत्र में रखने वाली
कण-कण में ज्योत जलाने वाली
हे भाषा को जन्ने वाली ।

लुप्त हो रही मेरी दुनियाँ
लुप्त हो रही है भोजपुरीया
साथ छोड़ रही है दुनियाँ
मुझे ही तोड़ रही है भोजपूरियाँ ।

जन्म से साथ निभायी हूँ
भूखे को रह दिखलायी हूँ
सदियों से बहती आयी हूँ
सुख-दुख भी साथ मैं लायी हूँ

मैं भोजपुर से आयी हूँ
भोजपुरिया मेरा नाम ।
भाषा को मधुर बनाती हूँ मैं
मधु-रस भरना मेरा काम ।

        -----संदीप कुमार सिंह ।
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