तुम कहते हो करूँ पश्चताप, कि जीवन के प्रति रहा आकर्षित , अनगिनत वासनाओं से आसक्ति की ,
मन के पीछे भागा , कभी तन के पीछे भागा , कभी कम की चिंता तो कभी धन की भक्ति की।
करूँ पश्चाताप कि शक्ति के पीछे रहा आसक्त , कभी अनिरा से दूरी , कभी मदिरा की मज़बूरी , कभी लोभ कभी भोग तो कभी मोह का वियोग , पर योग के प्रति विषय-रोध के प्रति रहा निरासक्त?
और मैं सोचता हूँ पश्चाताप तो करूँ पर किसका ? उन ईक्छाओं की जो कभी तृप्त ना हो सकी? वो चाहतें जो मन में तो थी पर तन में खिल ना सकी?
हाँ हाँ इसका भी अफ़सोस है मुझे , कि मिल ना सका मुझे वो अतुलित धन , वो आपार संपदा जिन्हें रचना था मुझे , करना था सृजन।
और और भी वो बहुत सारी शक्तियां, वो असीम ताकत , जिन्हें हासिल करनी थी , जिनका करना था अर्जन।
मगर अफ़सोस ये कहाँ आकर फंस गया? कि सुनना था अपने तन की। मोक्ष की की बात तो तू अपने पास हीं रख , करने दे मुझे मेरे मन की।
अजय अमिताभ सुमन
अक्सर मंदिर के पुजारी व्यक्ति को जीवन के आसक्ति के प्रति पश्चताप का भाव रख कर ईश्वर से क्षमा प्रार्थी होने की सलाह देते हैं। इनके अनुसार यदि वासना के प्रति निरासक्त होकर ईश्वर से क्षमा याचना की जाए तो मरणोपरांत ऊर्ध्व गति प्राप्त होती है। व्यक्ति डरकर दबी जुबान से क्षमा मांग तो लेता है परन्तु उसे अपनी अनगिनत वासनाओं के अतृप्त रहने का अफसोस होता है। वो पश्चाताप जो केवल जुबाँ से किया गया हो क्या एक आत्मा के अध्यात्मिक उन्नति में सहायक हो सकता हैं?