मेरे कमरे से लगी हुई बालकनी, उसी पर खुलती थी मेरी खिड़की, पर मां कभी मुझे खिड़की खोल लेना देती थी, बाहर के लोग देखेंगे तो क्या बोलेंगे, लड़की पूरा समय खिड़की पर ही रहती है?
कभी-कभी मैं रात को 2 3 बजे खिड़की खोल कर बाहर देखा करती थी. ठंडी हवा के झोंकों में खुद को, अपने वजूद को ढूंढने की कोशिश करती थी.
कभी ऐसे दिन आएंगे जब मैं यहां नहीं रहूंगी मेरा अपना घर होगा जहां मुझे यह नहीं सोचना पड़ेगा कि लोग क्या सोच रहे हैं.
समय बीता, दिन बीते मुझे नौकरी लग गई, मैं बाहर आ गई, मेरा घर, मेरा कमरा बदल गया. मुझे यहां भी खिड़की मिली. मगर वह भी ज्यादातर बंद ही रही. कभी खोलने का समय नहीं मिला, कभी बाहर की दूर तो कभी प्रदूषण से बचने के लिए.
आज रात को समय मिला, तुमने खिड़की खोल ही ली. कुछ वक्त बाहर देखती रही ठंडी हवा आज भी उतनी ही खूबसूरत है, उतनी ही शक्तिशाली और आजाद जितनी तब थी.
और मैं आज भी उतनी ही बेबस. घबराइए नहीं यह खुद पर तरस खाने वाली कविता नहीं है. तो जाइए मत.
मैं काफी देर वहां खड़ी रही. फिर मुझे ध्यान आया कि रात का समय है शायद बाहर से किसी को दिख जाओ तो कहेंगे यह लड़की आधी रात को खिड़की पर क्यों खड़ी है.
पर्दे लगा दिए हवा का मोह नहीं छूटता ना कुछ देर बाद शायद वापस खिड़की बंद कर दू .