नेता उस समय बहकता है जब करने को कुछ ना होता है किस्मत ईवीएम में बंद होती है और गिनती आसन्न होती है मीडिया आभासी गुबार बनाता है तब दावतों का अंबार शुरू होता है इनका मिलन देख के लज्जा से शरमा जाये नदियों का संगम इनके मन की भावना देख लज्जा जाये लंकापति रावण ये ना कभी सच स्वीकार करते हैं ना झूठ से आजीज आते हैं ना कभी समर्पण करते हैं बस नए स्वांग रचते हैं दो-चार झूठे फंसाद करते हैं उसी से नए-नए लगने लगते हैं इनके फन की फिर से जय जयकार होने लगती है फिर नोट हो या वोट हो उसकी फसल कटती है आम आदमी देख ये नाटक दुबका दुबका रहता है सब कुछ देख सह कर भी हमेशा अनजान बना ही रहता है।