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Apr 2019
बचपन प्रकृति के नजदीक बिताया
छल ,कपट ,छद्म वेश भूषा मन में न आया
ग्राम्य जीवन की सीमाएं समझी
सिर्फ घर - खेत और गांव
इसके आगे कुछ ना जाने
विचार आया यह क्या जीवन है
जो अपना वजूद ना जाने
छोड़ा गांव हुआ उजियारा
पर शहर का जीवन भी बड़ा दुखियारा
ना आदमी की जबान की कीमत
ना कोई दया, ना कोई रहमत
ना वफा , ना भाईचारा
सिर्फ पढ़ा- लिखी एक सहारा
पढ़ना लिखना यूं कुछ सीखा
जा पहुंचे हरियल प्रदेश
पढी तकनीकी, आई सन्मति
सच में पाई मनुष्य की गति
भगवत कृपा से मित्र सुनहरी जीवन में आई
जीवन और सदाचार की उसने समझ दिलाई
लगता है हम कर्मशील ,पर भाग्यविहीन हैं
इसलिए मझधार में ही साथी विहिन हुए हैं
और वापस प्रकृति के अधीन हैं
संघर्ष कल भी था , संघर्ष आज भी है
बस अब संघर्ष का स्वरूप बदलना है
अब हजारों कविताएं और
सैंकड़ों कहानियां रचनी हैं
साथी कोई मिले ना मिले
शब्दों से ही संगिनी गढनी है।
Mohan Sardarshahari
Written by
Mohan Sardarshahari  56/M/India
(56/M/India)   
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   Jayantee Khare and Cmi
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