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Sep 2018
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लोग शैदाई-ओ-बिस्मिल को सज़ा देते हैं।
इश्क के सिलसिले बस यूँ ही रवां रहते हैं।।

मुश्कअफ्शां थे वो गुलशन जो यूँ पामाल हुए।
कर्ब-ओ-दर्दे जिग़र कब इस तराह कम होते हैं।।

मुसलसल बहता ही रहता है ये दरिया-ए-इश्क़।
श़म्मे रोशन पे       खुद परवाने  फ़ना होते हैं।।

नज़र-अंदाज हम कर देते है उनको लाज़िम।
जो बेख़याली में भी नज़रों को फेर लेते हैं।।

इबादते-ए-इश्क कहो या कि आबशार-ए-जुनूं।
प्यार और इश़्क के मुख़तलिफ़ उसूल होते हैं।।

सलावतें मिलती है माहताब की शुआओं से।
अख़्तर-ए-इश़्क पे फरिस्ते भी रश्क़ करते है।।

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©deovrat 09.09.2018

मुश्कअफ्शां=spreading fragrance
शैदाई=lover
कर्ब=agonies
आबशार=cascade series of small fall
सलावतें=blessings
अख़्तर=fortune
Deovrat Sharma
Written by
Deovrat Sharma  58/M/Noida, INDIA
(58/M/Noida, INDIA)   
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