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Mohan Jaipuri Jul 2020
ऐसा लग रहा है
जैसे दरिया से लौट रही हो
दरिया की सारी नीलिमा
लिपटाकर साथ ला रही हो
पीछे सुनहरी रेत का
सिर्फ जखीरा छोड़़ आई हो
मेहरबानी बजरों पर हुई
जो आप के सवार होने से
नीले बच गये हों
हीरे मोती दरिया के
पर्स में भरके लाई हो
हुस्न और वैभव सारा
लूट समुद्र का किसका
भाग्य लिखने जा रही हो
Mohan Jaipuri Mar 2020
अभी तक बुद्धि फिरते देखी
अब हालात बदलते देख रहे हैं
      कभी बेटा बुढ़ापे की लाठी कहा जाता था
      परिवार उस पर इतराता था
          जब जिम्मेदारियां नहीं निभाता था
          तब बुद्धि फिरा कहा जाता था।
एक वायरस ऐसा आया
सारे रिश्तों को साफ कर गया
      यदि हो जाए कोई प्रभावित
      सब भागें हो आतंकित
       जिम्मेदारी अब बन गई भागना
       सिर्फ डॉक्टर को पड़े संभालना
देखो यह मानवता की विडंबना
  इसे कहते हैं हालात फिरना।
कहीं बच्चे अकेले रहकर
भूख से दम तोड़ गए
      कहीं बुजुर्गों को मिले नहीं वेंटिलेटर
      और दब गया मौत का एक्सीलेटर
जो सिखाया था जग ने उसका रहा नहीं कोई मोल
अब जो सिर्फ हालात सिखाएं वही है अनमोल
      चीज बहुत हैं दुनिया में
      लेकिन उपयोग कर नहीं सकते
          बन गया आदमी घर का कैदी
          जैसे हो कोई इसने लंका भेदी
हालात बन गया है ड्रैकुला
सारे रिश्तों का बना दिया कर्बला।
Mohan Jaipuri Mar 2020
जब मास्क नहीं लगाते हो
            फिर क्यों आते हो?
ना हाथ मिलाना, ना गलबहियां करना
बस आंखें मिला लेना जल्दी-जल्दी
अभी फिजां है कुछ बदली-बदली
सांसें अभी सांसत में हैं
क्यों सांसो पर जुर्म करते हो?
जब मास्क नहीं लगाते हो
            फिर क्यों आते हो?

साबुन छोड़कर कहीं ना चलूं मैं
सैनिटाइजर के अलावा कुछ ना लूं मैं
भीड़ में है कोरोना का खतरा
क्यों तुम नादान बनते हो?
जब मास्क नहीं लगाते हो
               फिर क्यों आते हो?
A poem for corona prevention

— The End —