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Bhakti Apr 2018
Inspired from Punit Raja...
खामोश था वो कमरा , एक टेबल ,कुर्सी ओर खिड़की थी जहाँ से सूरज की हल्की हल्की रोशनी सामने रखे काँच को छू कर कुछ समा रोशन कर रही थी , सन्नाटे में पंखे की आवाज का हल्का खलल नादान गुस्ताखी की तरह नजर आ रहा था ।
मैं वहां कुछ वक्त अपनी तन्हाइयो के साथ बिताने बैठ गई , आँखे मूंदे हुए मैं खुद से कुछ सवाल जवाब की मन्शा में थी ।
जिंदगी का एक बड़ा सफर बिताने के बाद ये वक्त था जहाँ में अपने हर दर्द की एहमियत जान सकू ।
सामान्य इंसानो की तरह मेरी जिंदगी भी कई जख्मो , अश्कों से हो कर गुजरी थी ।

स्वतः आज मन ने हर जख्म के आलंकन की ठानी सूची बनाते हुए मेने एक एक कर अपने हर दर्द से रूबरू हो उनकी पीड़ा सुनी ।

गरीबी का दर्द , अपनो के खो जाने का दर्द , इश्क का दर्द , आत्मसम्मान का दर्द ........
बेशक ये हर दर्द अपने आप मे भीषण जख्म का सैलाब है , पर उनसे मुलाकात के बाद मेने आत्मसम्मान , स्वाभिमान खो जाने के दर्द को सर्वोपरि जाना........ पर क्यों ???

की वक्त नही रुकता किसी के लिए ओर कोई नही रुकता वक्त के लिए अतः किसी को खोना इश्क में या जीवन मे भुलाया तो नही पर धुँधला सकता है
जख्म मिट तो नही सकता पर भर सकता है

धन संपदा तो हर महापुरुष के लिए निर्मूल्य है।
परंतु जो स्वाभिमान मार दिया जाए तो शरीर जीता है , हर रोज अपनी आत्मा को छलनी कर के ,
हर दिन रक्त की एक ओझल बून्द शरीर का त्याग करती है ।
जैसे रूह स्वयं का गला दबा मृत्यु की के समक्ष गिड़गिड़ाती हो , ओर मोत मुस्कुरा कर सामने से गुजर जाती हो ......
की याद करो उन वीरो को जो स्वतंत्रता , आत्मसम्मान की रक्षा के लिए कफन शीश पर ओढ़े निकल जाया करते थे , क्या उन्हें नही चाहत थी धन की , मोहोब्बत की , अपनो की ?
पर शायद उन्होंने अपना स्वाभिमान छलनी होते देखा होगा और उनकी रूह ने दुत्कारा होगा कई मर्तबा...
परंतु अगर ये शाश्वत है कि स्वाभिमान सर्वोपरि है , तो कैसे हमारा जीवन शोभनीय है ?
जहाँ हमारे देश मे परदेश के जिंदाबाद के नारे लगाए जाते है और हम सुन कर चेन से सो जाते है ।
हमारी स्त्रियां बेआबरू हो जाती है और हम पन्ना पलट कहते है ये किस्से रोज आते है ।

की हम की आपने देश को आग में धकेल कर धरने ओर मानवता का नाम देते है
शिरोमणि है देश उसके बाद धर्म फिर धर्म के नाम पर अपनी धरती का आँचल खून से सना देते है
क्या हमारी आत्मा चीखती नही या मार दिया है हमने ही उसे निर्दयता से

इस भीषण द्वंद से कपकपा कर मेरी आँखें खुली
शरीर पसीने से युक्त , काँपते हुए हाथ .....
ये मेरी रूह थी जो मुझसे मेरे स्वाभिमान , मेरे देश का सम्मान मांग रही थी ....

और आपकी रूह क्या माँगती है आपसे ????
Bhakti Apr 2018
आँखों मे आ गया पर छलका नहीं ।
ठहर गया दो पल पलकों पर ,
हूँ बस पानी पर हल्का नहीं ।

रुका में की नजर ना आये दर्द उसका भीड़ को ।
पर भीतर आये सेलाब ने सब्र को झंजोड दिया ।
कई मर्तबा जुंझा में उसकी इस कशमकश में...
कई दफा उसने मुझे मुस्कुरा कर पी लिया ।

अबके जो पलकों पे आया तो रुका भी ,
सोच कर दुनिया का ये अश्क थोड़ा सूखा भी ।
ना कुसूर ना आदत उसकी तकदीर में था सहना ।
करता भी क्या मामूली अश्क हूँ ,
मेरी नियति है फकत बहना ......
Bhakti Apr 2018
स्याही बेताब है कलम पाने को पर
अश्क इतने है कि शब्द नजर नहीं आ रहे ।
जस्बात माकूल है बेशक जताने को पर
दर्द इतने है कि लफ्ज़ सम्हाले नहीं जा रहे ।
Bhakti Mar 2018
तन्हाई में कुछ पल...
खुद को हँसाना चाहती हूँ ।
बंद कमरे में सन्नाटे में क्यों भीड़ का शोर हैं ।
मेरे दर्द की हर चीख़ को कुछ पल दबाना चाहती हूँ ।
जो बीत गया के जख्मों से रूह लहूलुहान हैं ।
वक्त के उस दौर को कुछ पल भुलाना चाहती हूँ ।

मैं अपनी रूह के साथ कुछ वक्त बिताना चाहती हूँ ।
Bhakti Mar 2018
कई मर्तबा सोचा , लफ़्ज़ों से मुलाकात की
बेइंतेहा गुरूर के पक्के है , जुबा तक नहीं आते
फकत इन्तेजार में लम्हे गुजरना , शायद जायस
पर दोबारा जस्बात , इश्क के इम्तेहान को नहीं जाते
मुस्कुराती जिंदगी से कुछ मसला हैं मेरा
शायद खूबसूरत लगती है , चुभती तन्हा राते
Bhakti Mar 2018
बेहद खामोश है आज लब मेरे
लफ़्ज़ों का बवंडर जहन में उठा है
चल पड़े है कदम रोज की तरह
मेरा जिस्म कई पीछे खड़ा है
किसी जस्बात का दीदार नही मेरी आँखों मे
जिम्मेदारियों का ढेर सामने पड़ा है
Bhakti Mar 2018
थम जा ए जिंदगी
अभी कुछ पल जीना बाकी है
ठहर जा एक पल को जरा
कड़वे कुछ गम के प्याले पीना बाकी है

वो जब एक ख्वाब सा टूटा था
वो साथ जो छुटा था
पी लिए थे सारे अश्क जमाने की सोच कर
जी भर के वो रुआँसी पलके भिगोना बाकी है
रुक जा ए जिंदगी..........

वो हम जो रूठे थे , उनके लाख मनाने पर
आसमा पाने , छोड़ गए थे कापते हाथ गुमनाम किनारे पर
किये पर इस रूह को हर दिन तड़पाना बाकी है
रुक जा ए जिंदगी...........

अब जो धुंधला गई है आँखे
बेवफा सी नजर आती है सासे
कितना भी समेटु बिते पलो को
हाथो में रेत की तरह हर याद गुम जाती है

कुछ पल बस कुछ पल थम जा जिंदगी
वो अधूरी ख्वाहिश जीना बाकी है
थोड़ा और जीना बाकी है.....
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