Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
Arvind Bhardwaj Mar 2016
माँ की कोख से लेकर, उनकी गोद में आने तक,
बंद मुट्ठी के सपनों को अपना बनाने तक,
नन्ही-नन्ही बातों को लेकर रूठ जाने तक,
फिर माँ के प्यार से बहल जाने तक,
यही प्रेम है, यही समर्पण, यही ज़िंदगी।

बचपन की अटखेलियों में शैतानियाँ छुपाने तक,
बनकर नंदलाल, यशोदा माँ को सताने तक,
कभी मटकी तोड़ने तो कभी माखन चुराने तक,
बन भोले माँ से सब कुछ छुपाने तक,
कभी प्रेम में राधा के सबकुछ भुलाने तक,
यही प्रेम है, यही समर्पण, यही ज़िंदगी।

खिलौनों से खेलते-खेलते बड़े हो जाने तक,
पिता की उँगली पकड़, उनके कंधे पे आने तक,
छोटी सी ज़िद को लेकर बैठ जाने तक,
पापा की फटकार को सुनकर सहम जाने तक,
यही प्रेम है, यही समर्पण, यही ज़िंदगी।

यौवन में कदम रखकर पाँव बढ़ाने तक,
किसी के प्यार में अपना सबकुछ लुटाने तक,
छोटी-छोटी बातों पर लड़कर उनके मनाने तक,
बैठ अकेले तन्हा कहीं आंसू बहाने तक,
यही प्रेम है, यही समर्पण, यही ज़िंदगी।

उनके इंतजार में अपनी पलकें बिछाने तक,
मिलकर सबकुछ कहने का सपना सजाने तक,
बिन उनके हर रात के तन्हा हो जाने तक,
उनके ख्वाबों में आँखों के नम हो जाने तक,
**यही प्रेम है, यही समर्पण, यही ज़िंदगी।

— The End —