मैं जानता हूँ तू मुझमें है यहीं,
फिर भी क्यों ढूंढ़ता मैं तुझको खुद में नहीं,
ढूंढ़ता हूँ तुझे क्यों मैं हर दर-बदर,
तू मुझमें है… मुझसे बोलता क्यों नहीं?
ये कैसी लीला है तेरी कि होकर पास भी मैं दूर हूँ,
है सब कुछ पास मेरे, पर फिर भी कितना मजबूर हूँ,
ना पा रहा हूँ तुझको, ना तू दिखाई ही देता है,
रौशनी है चारों तरफ फैली, पर मुझे अंधेरा दिखाई देता है।
ना कोई बात होती है, ना मुलाक़ात होती है,
होती हर रोज़ सहर, पर मेरी फिर हर रात होती है।
**कर दे इतनी मेहर कि बस मैं इतना बन जाऊँ,
कोई मिले ना मिले इस जहाँ में —
तू मुझमें मिले... और मैं तुझमें मिल जाऊँ।
यह शब्दों से ज़्यादा एक अनुभूति है — जो हर उस व्यक्ति के दिल को छूती है जो खुद को खोजने या परम सत्ता से जुड़ने की कोशिश कर रहा है।
यहाँ कविता की गहराई के साथ व्याख्या (भावार्थ) दी गई है:
1.
"मैं जानता हूँ तू मुझमें है यहीं,
फिर भी क्यों ढूंढता मैं तुझे ख़ुद में नहीं,"
➡ मैं जानता हूँ कि तू (परमात्मा/प्रेम/आत्मा) मेरे भीतर ही है। लेकिन फिर भी मेरी आदत बन गई है बाहर तलाश करने की। अपने अंदर झाँकने का साहस नहीं कर पाता।
2.
"ढूंढता हूँ तुझे क्यों मैं हर दर-बदर,
तू मुझमें मुझसे बोलता क्यों नहीं।"
➡ मैं तुझे हर जगह, हर कोने में तलाश करता हूँ – मंदिर, मस्जिद, पहाड़, आकाश… लेकिन तू जो मेरे भीतर है, मुझसे संवाद क्यों नहीं करता?
3.
"ये कैसी लीला है तेरी कि होकर पास भी मैं दूर हूँ,
है सब कुछ पास मेरे, फिर भी कितना मजबूर हूँ।"
➡ तेरी ये कैसी माया है, कि तू मेरे बेहद करीब होते हुए भी मैं तुझसे बहुत दूर महसूस करता हूँ। मेरे पास सब कुछ है, लेकिन तेरे बिना सब अधूरा लगता है। मैं संसाधनों से भरा हूँ, फिर भी आत्मिक रूप से निर्धन हूँ।
4.
"ना पा रहा हूँ तुझको, ना तू दिखाई ही देता है,
रौशनी है चारों तरफ फैली, पर मुझे अंधेरा दिखाई देता है।"
➡ तू मिल नहीं रहा, और तेरी कोई झलक भी नहीं दिख रही। दुनिया तो प्रकाशमय है, लेकिन मेरी आत्मा में अंधकार छाया है। शायद तू ही मेरा उजाला है, जो खो गया है।
5.
"ना कोई बात होती है, ना मुलाकात होती है,
होती हर रोज़ सहर पर मेरी फिर हर रात होती है।"
➡ ना तो तुझसे संवाद हो पाता है, ना कोई साक्षात्कार। हर दिन नया उजाला लाता है, लेकिन फिर वही खालीपन की रात आ जाती है। हर दिन एक आशा की किरण बनता है, पर हर रात मायूसी की चादर ओढ़ लेती है।
6.
"कर दे इतनी मेहर कि बस मैं इतना बन जाऊँ,
कोई मिले न मिले इस जहां में, तू मुझमें मिले और मैं तुझमें मिल जाऊँ।"
➡ हे ईश्वर/प्रेम/आत्मा, तू इतनी कृपा कर कि मैं ऐसा बन जाऊँ कि मुझे किसी और की तलाश न रहे। इस संसार में अगर कोई न भी मिले, तो तू मुझमें समा जाए और मैं तुझमें। यही मिलन मेरे जीवन का परम उद्देश्य हो।
निष्कर्ष:
यह कविता आत्म-अन्वेषण, ईश्वर से एकत्व, और आंतरिक शांति की गहरी पुकार है। यह दर्शाती है कि मनुष्य चाहे बाहर कितना भी खोज ले, परम सत्य का अनुभव तभी होता है जब वह खुद के भीतर उतरता है।