उलझन है कि शिकायत करु भी तो किससे
ना दोष जख्म का है , ना दवा का है
बाग सजा मूढ़े ही थे , मंजिल को
तबाह हो गए हवा के रुख से
बेबस हु , गुजारिश करु भी तो किससे
ना दोष पतझड़ का है , ना हवा का है
काँटो के रास्ते तो फिजूल बदनाम थे
वो किनारे देख मांझी से बेर कर बैठे
इंसान हु , शराफत करु भी तो किससे
ना दोष किस्मत का है , ना कर्ता का है
मोहोब्बत भी की रब के सबब से
बदगुमानी सही बेहद अदब से
खामोश हु , इबादत करु भी तो किससे
ना दोष बंदे का है , ना खुदा का है
उलझन है कि शिकायत करु भी तो किससे
ना दोष जख्म का है , ना दवा का है ।