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कौरव सेना को एक विशाल बरगद सदृश्य रक्षण प्रदान करने वाले गुरु द्रोणाचार्य का जब छल से वध कर दिया गया तब कौरवों की सेना में निराशा का भाव छा गया। कौरव पक्ष के महारथियों के पाँव रण क्षेत्र से उखड़ चले। उस क्षण किसी भी महारथी में युद्ध के मैदान में टिके रहने की क्षमता नहीं रह गई थी । शल्य, कृतवर्मा, कृपाचार्य, शकुनि और स्वयं दुर्योधन आदि भी भयग्रस्त हो युद्ध भूमि छोड़कर भाग खड़े हुए। सबसे आश्चर्य की बात तो ये थी कि महारथी कर्ण भी युद्ध का मैदान छोड़ कर भाग खड़ा हुआ।
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धरा   पे   होकर   धारा शायी
गिर पड़ता जब  पीपल  गाँव,
जीव  जंतु  हो  जाते ओझल
तज  के इसके  शीतल छाँव।
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जिस तारिणी के बल पे केवट
जलधि   से   भी   लड़ता   है,
अगर  अधर में छिद  पड़े  हों
कब  नौ चालक   अड़ता  है?
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जिस योद्धक के शौर्य  सहारे
कौरव   दल  बल   पाता  था,
साहस का वो स्रोत तिरोहित
जिससे   सम्बल  आता  था।
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कौरव  सारे  हुए थे  विस्मित
ना  कुछ क्षण को सोच सके,
कर्म  असंभव  फलित  हुआ
मन कंपन  निःसंकोच  फले।
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रथियों के सं  युद्ध त्याग  कर
भाग    चला    गंधार     पति,
शकुनि का तन कंपित भय से
आतुर   होता    चला   अति।
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वीर  शल्य  के  उर  में   छाई
सघन भय और गहन निराशा,
सूर्य पुत्र  भी  भाग  चला  था
त्याग पराक्रम धीरज  आशा।
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द्रोण के सहचर  कृपाचार्य के
समर  क्षेत्र  ना   टिकते  पाँव,
हो  रहा   पलायन   सेना  का
ना दिख पाता था  कोई ठाँव।
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अश्व   समर    संतप्त    हुए  
अभितप्त हो चले रण  हाथी,
कौरव के प्रतिकूल बह चली
रण  डाकिनी ह्रदय  प्रमाथी।
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अजय अमिताभ सुमन
सर्वाधिकार सुरक्षित
कौरव सेना को एक विशाल बरगद सदृश्य रक्षण प्रदान करने वाले गुरु द्रोणाचार्य का जब छल से वध कर दिया गया तब कौरवों की सेना में निराशा का भाव छा गया। कौरव पक्ष के महारथियों के पाँव रण क्षेत्र से उखड़ चले। उस क्षण किसी भी महारथी में युद्ध के मैदान में टिके रहने की क्षमता नहीं रह गई थी । शल्य, कृतवर्मा, कृपाचार्य, शकुनि और स्वयं दुर्योधन आदि भी भयग्रस्त हो युद्ध भूमि छोड़कर भाग खड़े हुए। सबसे आश्चर्य की बात तो ये थी कि महारथी कर्ण भी युद्ध का मैदान छोड़ कर भाग खड़ा हुआ।
वक्त नहीं था चिरकाल तक टिककर एक प्रयास करूँ ,
शिलाधिस्त हो तृणालंबितलक्ष्य सिद्ध उपवास करूँ।
एक पाद का दृढ़ालंबन  ना कल्पों हो सकता था ,
नहीं सहस्त्रों साल शैल वासी होना हो सकता था।

ना सुयोग था ऐसा अर्जुन जैसा मैं पुरुषार्थ रचाता,
भक्ति को हीं साध्य बनाके मैं कोई निजस्वार्थ फलाता।
अतिअल्प था काल शेष किसी ज्ञानी को कैसे लाता?
मंत्रोच्चारित यज्ञ रचाकर मन चाहा वर को पाता?

इधर क्षितिज पे दिनकर दृष्टित उधर शत्रु की बाहों में,
अस्त्र शस्त्र प्रचंड अति होते प्रकटित निगाहों में।
निज बाहू गांडीव पार्थ धर सज्जित होकर आ जाता,
निश्चिय हीं पौरुष परिलक्षित लज्जित करके हीं जाता।

भीमनकुल उद्भट योद्धा का भी कुछ कम था नाम नहीं,
धर्म राज और सहदेव से था कतिपय अनजान नहीं।
एक रात्रि हीं पहर बची थी उसी पहर का रोना था ,
शिवजी से वरदान प्राप्त कर निष्कंटक पथ होना था।

अगर रात्रि से पहले मैने महाकाल ना तुष्ट किया,
वचन नहीं पूरा होने को समझो बस अवयुष्ट किया।
महादेव को उस हीं पल में मन का मर्म बताना था,
जो कुछ भी करना था मुझको क्षणमें कर्म रचाना था।

अजय अमिताभ सुमन: सर्वाधिकार सुरक्षित
अश्वत्थामा दुर्योधन को आगे बताता है कि शिव जी के जल्दी प्रसन्न होने की प्रवृति का भान होने पर वो उनको प्रसन्न करने को अग्रसर हुआ । परंतु प्रयास करने के लिए मात्र रात्रि भर का हीं समय बचा हुआ था। अब प्रश्न ये था कि इतने अल्प समय में शिवजी को प्रसन्न किया जाए भी तो कैसे?
कभी बद्ध  प्रारब्द्ध काम  ने जो  शिव पे  आघात किया,
भस्म हुआ क्षण में जलकर क्रोध  क्षोभ हीं प्राप्त किया।
अन्य गुण भी ज्ञात  हुए  शिव  हैं भोले  अभिज्ञान हुआ,
आशुतोष भी क्यों कहलाते हैं  इसका  प्रतिज्ञान हुआ।

भान  हुआ  था  शिव  शंकर हैं आदि  ज्ञान  के  विज्ञाता,
वेदादि गुढ़ गहन ध्यान और अगम शास्त्र के व्याख्याता।
एक  मुख से  बहती  जिनके   वेदों की अविकल  धारा,
नाथों के  है  नाथ  तंत्र  और मंत्र  आदि अधिपति सारा।

सुर  दानव में भेद  नहीं  है या कोई  पशु  या नर  नारी,
भस्मासुर की कथा ज्ञात वर उनकी कैसी बनी लाचारी।
उनसे  हीं आशीष  प्राप्त कर कैसा वो व्यवहार किया?
पशुपतिनाथ को उनके हीं  वर  से  कैसे प्रहार  किया?

कथ्य सत्य ये कटु तथ्य था अतिशीघ्र  तुष्ट हो जाते है
जन्मों का जो फल होता शिव से क्षण में मिल जाते है।
पर  उस रात्रि  एक पहर  क्या पल भी हमपे भारी था,
कालिरात्रि थी तिमिर घनेरा  काल नहीं हितकारी था।

विदित हुआ जब महाकाल से अड़कर ना कुछ पाएंगे,
अशुतोष  हैं   महादेव   उनपे  अब   शीश    नवाएँगे।
बिना वर को प्राप्त किये अपना अभियान ना पूरा था,
यही सोच कर कर्म रचाना था अभिध्यान अधुरा  था।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
महाकाल क्रुद्ध होने पर कामदेव को भस्म करने में एक क्षण भी नहीं लगाते तो वहीं पर तुष्ट होने पर भस्मासुर को ऐसा वर प्रदान कर देते हैं जिस कारण उनको अपनी जान बचाने के लिए भागना भी पड़ा। ऐसे महादेव के समक्ष अश्वत्थामा सोच विचार में तल्लीन था।
तीव्र  वेग  से  वह्नि  आती  क्या  तुम तनकर रहते  हो?
तो  भूतेश  से  अश्वत्थामा  क्यों  ठनकर यूँ   रहते  हो?
क्यों  युक्ति ऐसे  रचते जिससे अति दुष्कर  होता ध्येय,
तुम तो ऐसे नहीं हो योद्धा रुद्र दीप्ति ना जिसको ज्ञेय?

जो विपक्ष को आन खड़े  है तुम  भैरव  निज पक्ष करो।
और कर्म ना धृष्ट फला कर शिव जी को निष्पक्ष  करो।
निष्प्रयोजन लड़कर इनसे  लक्ष्य रुष्ट  क्यों करते  हो?
विरुपाक्ष  भोले शंकर   भी  तुष्ट  नहीं क्यों  करते   हो?

और  विदित  हो तुझको योद्धा तुम भी तो हो कैलाशी,
रूद्रपति  का  अंश  है तुझमे  तुम अनश्वर अविनाशी।
ध्यान करो जो अशुतोष  हैं हर्षित   होते  अति  सत्वर,
वो  तेरे चित्त को उत्कंठित  दान नहीं  क्यों  करते  वर?

जय मार्ग पर विचलित होना मंजिल का अवसान नहीं,
वक्त पड़े तो झुक जाने  में ना  खोता स्वाभिमान कहीं।
अभिप्राय अभी पृथक दृष्ट जो तुम ना इससे घबड़ाओ,
महादेव  परितुष्ट  करो  और  मनचाहा  तुम वर  पाओ।

तब निज अंतर मन की बातों को सच में मैंने पहचाना ,
स्वविवेक में दीप्ति कैसी उस दिन हीं तत्क्षण ये जाना।
निज बुद्धि प्रतिरुद्ध अड़ा था स्व  बाहु  अभिमान  रहा,
पर अब जाकर शिवशम्भू की शक्ति का परिज्ञान हुआ।

अजय अमिताभ सुमन: सर्वाधिकार सुरक्षित
जब अश्वत्थामा ने अपने अंतर्मन की सलाह मान बाहुबल के स्थान पर स्वविवेक के उपयोग करने का निश्चय किया, उसको  महादेव के सुलभ तुष्ट होने की प्रवृत्ति का भान तत्क्षण हीं हो गया। तो क्या अश्वत्थामा अहंकार भाव वशीभूत होकर हीं इस तथ्य के प्रति अबतक उदासीन रहा था?
एक प्रत्यक्षण महाकाल का और भयाकुल ये व्यवहार?
मेघ गहन तम घोर घनेरे चित्त में क्योंकर है स्वीकार ?
जीत हार आते जाते पर जीवन कब रुकता रहता है?
एक जीत भी क्षण को हीं हार कहाँ भी टिक रहता है?

जीवन पथ की राहों पर घनघोर तूफ़ां जब भी आते हैं,
गहन हताशा के अंधियारे मानस पट पर छा जाते हैं।
इतिवृत के मुख्य पृष्ठ पर वो अध्याय बना पाते हैं ,
कंटक राहों से होकर जो निज व्यवसाय चला पाते हैं।

अभी धरा पर घायल हो पर लक्ष्य प्रबल अनजान नहीं,
विजयअग्नि की शिखाशांत है पर तुम हो नाकाम नहीं।
दृष्टि के मात्र आवर्तन से सूक्ष्म विघ्न भी बढ़ जाती है,
स्वविवेक अभिज्ञान करो कैसी भी बाधा हो जाती है।

जिस नदिया की नौका जाके नदिया के ना धार बहे ,
उस नौका का बचना मुश्किल कोई भी पतवार रहे?
जिन्हें चाह है इस जीवन में ईक्छित एक उजाले की,
उन राहों पे स्वागत करते शूल जनित पग छाले भी।

पैरों की पीड़ा छालों का संज्ञान अति आवश्यक है,
साहस श्रेयकर बिना ज्ञान के पर अभ्यास निरर्थक है।
व्यवधान आते रहते हैं पर परित्राण जरूरी है,
द्वंद्व कष्ट से मुक्ति कैसे मन का त्राण जरूरी है?

लड़कर वांछित प्राप्त नहीं तो अभिप्राय इतना हीं है ,
अन्य मार्ग संधान आवश्यक तुच्छप्राय कितना हीं है।
सोचो देखो क्या मिलता है नाहक शिव से लड़ने में ,
किंचित अब उपाय बचा है मैं तजकर शिव हरने में।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
शिवजी के समक्ष हताश अश्वत्थामा को उसके चित्त ने जब बल के स्थान पर स्वविवेक के प्रति जागरूक होने के लिए प्रोत्साहित किया, तब अश्वत्थामा में नई ऊर्जा का संचार हुआ और उसने शिव जी समक्ष बल के स्थान पर अपनी बुद्धि के इस्तेमाल का निश्चय किया । प्रस्तुत है दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया " का सताईसवाँ भाग।
शिव शम्भू का दर्शन जब हम तीनों को साक्षात हुआ?
आगे  कहने   लगे  द्रोण  के  पुत्र  हमें तब  ज्ञात हुआ,
महा  देव  ना   ऐसे  थे  जो रुक  जाएं  हम  तीनों  से,
वो सूरज क्या छुप सकते थे हम तीन मात्र नगीनों से?

ज्ञात हमें जो कुछ भी था हो सकता था उपाय भला,
चला लिए थे सब शिव पर पर मसला निरुपाय फला।
ज्ञात हुआ जो कर्म किये थे उसमें बस अभिमान रहा,
नर  की  शक्ति  के बाहर  हैं महा देव तब  भान रहा।

अग्नि रूप देदिव्यमान दृष्टित पशुपति से थी ज्वाला,
मैं कृतवर्मा कृपाचार्य के सन्मुख था यम का प्याला।
हिमपति से लड़ना क्या था कीट दृश जल मरना था ,
नहीं राह  कोई  दृष्टि गोचित क्या लड़ना अड़ना था?

मुझे कदापि क्षोभ  नहीं था शिव के हाथों  मरने  का,
पर एक चिंता सता रही  थी प्रण पूर्ण  ना करने का।
जो भी वचन दिया था मैंने उसको पूर्ण कराऊँ कैसे?
महादेव प्रति पक्ष अड़े थे उनसे  प्राण बचाऊँ  कैसे?

विचलित मन कम्पित बाहर से ध्यान हटा न पाता था,
हताशा का बादल छलिया प्रकट कभी छुप जाता था।
निज का भान रहा ना मुझको कि सोचूं कुछ अंदर भी ,
उत्तर भीतर  छुपा  हुआ  है  झांकूँ   चित्त  समंदर भी।

कृपाचार्य  ने  पर   रुक  कर  जो  थोड़ा  ज्ञान कराया ,
निजचित्त का अवबोध हुआ दुविधा का भान कराया।  
युद्ध छिड़े थे जो मन  में निज  चित्त  ने  मुक्ति  दिलाई ,
विकट  विघ्न  था  पर  निस्तारण  हेतु  युक्ति  सुझाई।

अजय अमिताभ सुमन:सर्वाधिकार सुरक्षित
विपरीत परिस्थितियों में एक पुरुष का किंकर्तव्यविमूढ़ होना एक समान्य बात है । मानव यदि चित्तोन्मुख होकर समाधान की ओर अग्रसर हो तो राह दिखाई पड़ हीं जाती है। जब अश्वत्थामा को इस बात की प्रतीति हुई कि शिव जी अपराजेय है, तब हताश तो वो भी हुए थे। परंतु इन भीषण परिस्थितियों में उन्होंने हार नहीं मानी और अंतर मन में झाँका तो निज चित्त द्वारा सुझाए गए मार्ग पर समाधान दृष्टि गोचित होने लगा । प्रस्तुत है दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया " का छब्बीसवां भाग।

— The End —