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'''''''''''''''''  ये कैसी आजादी  ?? '''''''''''''''
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आजाद कहाँ हम ?
ये कैसी आजादी ?
गुलामों से बढ कर
हमारी बरबादी ॥

दिया एक भी जला नहीं किसी घर में,
गरीब हम , क्या खाएँ, चूल्हा ठंढा घर में,
मिटे कैसे भूख जो पलती उदर मे।
बाहर भी जाएं तो खौफ जिगर मे,
आतंकी अनहोनियाँ नगर मे, ड्गर मे ॥

आजाद कहाँ हम ?
जब सुरसा महँगाई
निवाले पे खतरा
सरकारी बेहयाई ॥

समझों किस हालत में देश अपना आज है ।
लोग यहाँ चूहे तो नेतागण बाज है ॥
देश की स्टीयरिंग थामे घोटालेबाज है ॥
जो करे विरोध उस पर गिरती गाज है ॥
बस कहने को देश में जनता का राज है ॥


- सुरज कुमर सिहँ
दिनांक :- 07 / 11 / 2010
~~~~~~~~~~~~~ - ग्राम की शाम -  ~~~~~~~~~~~~~

था सूर्य डूबा या डूब रहा
बस उसी की संध्या बेला में ।
जुगनू थे सभी जगमगा रहे
मेरी ग्राम की संध्या बेला में ॥


प्रतित हुआ सबको ऐसा
तारे उतरे इस मेला में ।
रजनी भी बैठे थी देख रही
मेरे ग्राम की संध्या बेले को ॥


उस शाम की थी
कुछ सान अलग ।
अंधेरो की,
पहचान अलग ।
जगमगा रहे नभ मे जुगनू,
धरा पर थी तारो की चमक ॥
नजरे सबकी वहाँ देख रही,
पर हर बैथे थे अकेला में ॥


थी द्र्ष्य अलग अद्भूत जैसी
मेरे ग्राम की सन्ध्या बेले में ।

चह्के पंक्षी, बहके थे पवन
थे फूल सुखे उस संध्या को
लेकिन फिर भी महके गुलशन ।
मेरे ग्राम की संध्या बेले में ॥


-सुरज कुमर सिहँ
दिनांक :- 17 / 04 / 2009

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-: कहानी बने ?? :-

हम भी मजबूर है,
तुम भी  मजबूर हो !!
हम बहुत दूर है
तुम बहुत दुर हो !!

फ़िर मोह्ब्बत कि कैसे
कहानी बने ??

मैं तड़पता रहु,
तुम तड़पती रहे
हम दिवानों कि ऐसी
कहानी बने !!

मेरी यादों मे तुम
युं न आया करो
मै कहीँ ?? पर रहूँ
मन कहीँ पर रहे ॥


तेरे बिन मेरी हालत है
कुछ ईस कदर
मीन जो रेत पर
जल बिना हि रहे  !!

मेरी ख्वाबों मे दस्तक
दिया आपने
कि लगा लखों परीयाँ,
मुझे मिल गई ॥

निंद से जब जगा
बस अंधेरा ही था
तब लगा निंद मुझको
था कितना हंसी ॥

निंद से जब जगा
बस अंधेरा ही था
फ़िर मोह्ब्बत कि कैसे
कहनी बने ??


फिर से मैं सो गया,
ख्वाब देखुं तेरी
ख्वाब मे हीँ मुझे
गुद गुदी हो गई !!

तेरी यादो में मैं
कुछ यूँ खोया रहूं !!
मेरा मन है कहीं
तन कहिं पर रहें ??

मै तड़पता रहूँ
तुम तड़पती रहो
हम दिवानों कि ऐसी
कहानी बनें ॥

मै तड़पता रहूँ
तुम तड़पती रहो
हम दिवानों कि ऐसी
कहानी बनें ॥


हम भी मजबूर है,
तुम भी  मजबूर हो !!
हम बहुत दूर है
तुम बहुत दुर हो !!

फ़िर मोह्ब्बत कि कैसे
कहानी बने ??

- सूरज कुमार सिँह
दिनांक :- 16 / 10 / 2014
मैं लिखता नहीं  !!

मैं लिखता नही
स्याही हिं बस बहाता हूँ ,

कविता कल्पना
है चिज बड़ी ए शाहब
मैं मन से बनें
दो शब्द गुनगुनाता हूँ ॥

मैं बस शब्द का
सृगार यार करता हूँ
अपने अनूभवों का
रंग उसमें भरता हूँ ॥

झूठी हर कहानी
हीं सरल सी होती है
बस यह सोच कर ही
दो शब्द गुनगुनाता हूँ ॥
मै किखता नहीं
स्याही हिं बस बहाता हूँ ॥

कितने हिं कलम का
मात्र मै अपराधि हूँ
उनके रक्त का
अपमान किया है, मैनें,

अंधी जनता ,
सच्ची कहानी
लिख-लिख कर  
कितने स्याही  को बद्नाम
किया है | मैंने
कितनो कि कलम,
साम्मान ले रही सबकी
ह्त्या को भी,
वलिदान कहा है जिसनें
वाश्ना को कहे जो
रंग नया जिवन कि
अपराधों को विरता का तथ्य देते है ॥

पर मेरी कलम
यह सब कला में असफल है ।
ऐसा लिखने से पहले,
टुट जाती है ।
मैं लिखता नहीं
स्याही हिं बस बहाता हूँ ।



कबिता कल्पना
है चिज बड़ी ए शाहब,
मैं मन से बने
दो शब्द गुनगुनाता हूँ ॥

- सुरज कुमर सिहँ
दिनांक  :- 06 / 09 / 2012
लडकी जो थी !!

तुझे तो पता था ,
कि ये दुनिया दरिन्दो की है ।
फिर क्योँ  लाई मुझे ??

क्योँ ??
जन्म दिया मुझे !!
मुझे पता भी न था
की ईज्जत क्या होती है ।
तब तक लुटली मेरी आबरु,
दरिन्दो ने !!

मै तो गिन भी न पायी थी !!
अपने उम्र की साल 3 थे या 4
गिन कर भी क्या करती

लडकी जो थी !!
ना किसी ने बेटी माना
न बहन !!
बस हवस के परवान चड़ गयी !!

माँ मै दर्द कैसे कहूँ अपनी
कैसे मिलाऊ नजरे तुमसे
अब तो मै मौत के हवाले हूँ ।

खुश हूँ,
मौत को पाकर
यहाँ सूरक्षा है ,
यहाँ दरिन्देँ नहीँ ,
न हीं लोग ताना करते है ,
पर माँ तेरी याद आती है !!

पर क्या करूँ
तु भी तो रो रही होगी ,
माँ मै-भी रो रही हूँ !
शायद और कुछ ना कह पाऊँ …… !!


चल बता पापा कैसे है ,
क्या मेरे हक का ताना,
लोग उन्हे कसते है !!
कुछ ना छिपा सब बता
कितने दिनों से वो बाहर नहि गये ??
मुझे पता है ,
वो भी रो रहे होगें
उनसे कहना मेरी कोई खता न थी ,
मै तो जगने से पहले हीं सो चुकि थी !!
वो आये थे मेरे पास
सो जाने के बाद,
महसूस हुआ मुझे
वो चुप से थे
रो रहे थे,
मेरे पापा मै कहना भूल गई !!
आप बहुत प्यारे हो,
पर रोते हुये अछे नही लगते !!

भैया को कहना,
वो ना रोये, सब तो है ॥
क्या हुआ मै ना रही
भैया ,
तोर देना वो राखी का कंगन
जो आप ने उपहार मे दिया था ,
क्या करोगे उसका
मै जो ना रही !
वो आप को मेरी याद दिलायेगी !!

माँ मै यहाँ सुरक्षित हूँ
पर भैया कि याद आती है !!
मुन्नी की याद आती है !!
संभालना उसको दरिन्दो से,
या भेज दे मेरे पास !!
माँ बहुत दर्द होता है !!

माँ एक बात कहूँ ??
सबकी याद आती है ,
क्या ?? सब मुझे भूल गये !!
और वो चाचा,
वो सब जो कैन्डल मार्च किये थे
अब भी आते है ??
क्या आज मै बस समाचार बन गई ?
पर मेरा दर्द ,
विचार योग्य था !!
समाचार ??
माँ दुनियाँ ऐसी क्यों ?? है
मै तो बस . . . . . !!
अब बस . . . . . !!
सोछ कर भी . . . . . माँ
मेरी . . . . .  माँ
तेरी याद आती है !!

कवि :- सूरज कुमार सिँह
दिनाँक :- 24 / 12 / 2014
मै गरीब क्य खाना खाऊँ !!

मै गरीब क्या खाना खाऊँ
सोच रहा यह दो दिन से !
घर कि चुल्हा टूटी है !
किस्मत भी अपनी फूटी है !!


जो गिरा मिला रोटी मुझको
वो भी कुत्ते की जुठी है !!


मै क्रोधित हूँ ।
मै भूखा हूँ ।
किस्मत से अपनी रुठा हूँ !!
पर हँसता हूँ । मै मानव हूँ
मैं मनव हूँ ??
हाँ हूँ शायद
यह सोच-सोच हीं रोता हूँ ॥


मेरी मईया भी भूखी है ,
पापा भी भूखे दो दिन से !
भैया कि नौकरी छुटी है ,
ये आरक्षण की तोफा है!!


वो पढे लिखे है काविल है !!
आरक्षण उनके मित्रो को
हम जातिवाद मे शामिल है !!
वो रोते है पर छिप-छिप कर
लोगो का ताना सहते है ।


पर गले लगा कर वो मुझको
बस एक बात ही कहते है,
हम ऊची जति के वारीश है ??
ईसीलिये तो भूखे सोते है !!


क्या ?? जतिवाद ही करण है
हूँ सोच रहा मै दो दिन से
मैं गरीब क्या खाना खाऊँ
सोच रहा हूँ दो दिन से ॥


खाने की खुशबु आती है
तब भूख और बढ़ जाती है !
पर चुप है, अपने घर मे हम
गम का पकवान बनाते है !!
पर भूख अभी भी बाकी है


क्या गरीब खाना खाते है
सोच रहा मैं दो दिन से ॥



- सूरज कुमार सिँह
दिनांक :- 16 / 06 /14
लत दौलत की

लत दौलत की हम को
है कहाँ पर ले आई
आईने भी जहाँ पर
झूठी बात करते है ॥


जो भर कर खतो में
प्यार भेजा करते थे ।
उनकी चिठ्ठीयों का
मोल हम लगा बैठे ॥


पहले माँ बाप ही
सोहरत सभी थे , ऐ साहब
क्यों ?? दौलत को ही
माँ बाप हम बना बैठे ॥

लत दौलत की हम को
है कहाँ पर ले आई
अपनो की हीं शौदा
हम लगाने आये हैं ॥


जिन बुजुर्गो कि दुआ
हर खुशी में शामिल थी
उनकी हीं हँसी को
हम हीं बेच आये है ॥


जो माई की लोरीयाँ,
हमें सुलाती थी ।
वो पापा की थपकीयाँ,
जो दम धराती थी ।
वो दादी की छोटी सी कहानी
परीयों की,
भाइ की हँसी जो
हम को सबसे प्यारी थी ।
आज इन सब को हम दौलत मे तौल आये है ॥


आरजु थी कभी जो
मैं भी सेवा माँ की करुं
पर दौलत को हीं
माँ बाप सब बना बैठे ॥
लत दौलत की हम को
है कहाँ पर ले आई ॥


- सुरज कुमर सिहँ
दिनांक :- 18 / 05 /14
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