बड़े होते बस यही सुना था, ‘कुछ सोच बड़ा, कुछ कर बड़ा।’ काँटों भरी इस राह पर मैं नंगे पाँव ही निकल पड़ा। बहुत निचोड़ा इन भावों को मैंने, इस खोज में मैंने बहुत सहा। पर जो दिल से चाहिए, साला आखिर वो मिलता कहाँ!
एक शैतान है मुझमें, जो रोज़ कहता है, ‘छोड़ दे पैशन, कमा ले पैसे।’ ‘कला के इस महासागर में डूब मरे हैं तेरे जैसे।’ मानता कहाँ दिल फिर भी मेरा? ये तो है उसके लिए साँस की तरह! अब चाहे डूब कर मरे या हो जाए जल कर राख, इससे दुनिया का क्या लेना-देना? अपनी लड़ाई भी तो यारो, आखिर खुद से ही थी ना?
कलम की नोक पर ज़िंदगी का भार उठाते कलाईयाँ रगड़ गईं। ग़रीबी में आटा गीला था, आँसुओं से बात और बिगड़ ही गई। चलो कोई नहीं, मैं भी मान गया! गिले-शिकवों को पेपरवेट के नीचे दबा गया। स्याही की कड़वी स्वाद को होठों से लगा गया। मूंगफली पड़ी थी, उसे रोटी के बीच डाल कर चबा गया।
खोज रहा हूँ आज भी मैं विचारों की वो वर्णमाला, सहारे जिसके कह सकूँ जो इतने दिन मैंने टाला।
तितर-बितर करते, इधर-उधर भागते, थोड़ा भटक सा गया हूँ… बंद घड़ी की सुई की तरह मानो जैसे अटक सा गया हूँ। वक्त के आगे अपनी क़िस्मत लिखने को जूझ रहा हूँ। अल्फ़ाज़ों से सजे इस दर्पण को मैं आपकी ओर रख कर पूछ रहा हूँ…
‘क्या आपको पता है गौरव का फूल किस चोटी पर खिलता है?’ ‘ज़िंदगी में जो चाहिए, साला आखिर वो कहाँ मिलता है?’