आधुनिकता ने हमको कहां से कहां पहुंचाया अब उषा दस्तक देती नहीं अलार्म से उठते हैं संध्या में ईश्वर स्तुति के बजाय कई सवाल लेकर सोते हैं जो नींद की मधुरता में विष घोलते हैं इस बेबस जीवन में कोई रस नहीं पाया कभी मौसम देखा नहीं मात्र समाचारों में सुना ख्वाबों को जिया नहीं बस नित एक नया बुना आराम के नाम पर कभी बस बीमारी को भुनाया इतना होने पर भी इस जीवन क्रम का कभी मंथन नहीं कर पाया कितनी ही बार अपनों की यादों में लिपटा हर बार किसी मजबूरी ने मारा मुझ पर झपटा होटों तक आते-आते दर्द फिर से हार गया।।