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May 2020
खुद को जब खंगाला मैंने,
क्या बोलूँ क्या पाया मैंने?
अति कठिन है मित्र तथ्य वो,
बा मुश्किल ही मैं कहता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

हृदय रुष्ट है कोलाहल में,
जीवन के इस हलाहल में,
अनजाने चेहरे रच रचकर,
खुद हीं से खुद को ठगता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

नेत्र ईश ने सरल दिया था,
प्रीति युक्त मन तरल दिया था,
पर जब जग ने गरल दिया था,
विष प्याले मैं भी रचता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

ज्ञात नहीं मुझे क्या पथ्य है?
इस जीवन का क्या तथ्य है?
कभी सबेरा हो चमकूँ तो ,
कभी साँझ हो मैं ढलता हूँ ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

सुनता हूँ माया है जग तो,
जो साया है छाया डग तो,
पर हो जीत कभी ईक पग तो,
विजय हर्ष को मैं चढ़ता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ ।

छद्म जीत पर तृष्णा जगती,
चिंगारी बन फलती रहती,
मरु स्वपन में हाथ नीर ले,
प्यासा हो हर क्षण गलता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

मन में जो मेरे चलता है ,
आईने में क्या दिखता है?
पर जब तम अंतस खिलता है ,
शब्दों से निज को ढंकता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

जिस पथ का राही था मैं तो,
प्यास रही थी जिसकी मूझको,
निज सत्य का उदघाटन करना,
मुश्किल होता मैं डरता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ ।

जाने राह कौन सी उत्तम,
करता रहता नित मन मंथन,
योग कठिन अति भोग छद्म है,
अक्सर संशय में रहता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ ।

कुछ कहते अंदर को जाओ,
तब जाकर तुम निज को पाओ,
पर मुझमे जग अंदर दिखता ,
इसीलिए बाहर पढ़ता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।

अंदर बाहर के उलझन में ,
सुख के दुख के आव्रजन में,
किंचित आस जगे गरजन में,
रात घनेरी पर बढ़ता हूँ,
हौले कविता मैं गढ़ता हूँ।
ajay amitabh suman
Written by
ajay amitabh suman  40/M/Delhi, India
(40/M/Delhi, India)   
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