Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
Apr 2020
कभी हम लिखते थे खत
शुरू करते थे श्री गणेशाय से
आज मोबाइल मैसेज शुरू होते हैं हाय से।
     अब हम सुनते हैं फ्यूजन संगीत
     संस्कृति छोड़कर पकड़ ली नई रीत
     गुरु चरणों से दूर होकर
     कोचिंग केंद्रों पर सिमट गया ज्ञान का दीप
कभी विचार करते थे परोपकार का
अब करते हैं उसको गुड बाय दूर से
     छोड़कर खेतों की हरियाली
     हमने सड़कों की भीड़ अपना ली
     दबाकर सारी ख्वाहिशें
     हमने अंदर चुप्पी भर ली
कभी रिश्तों का मजबूत कवच था
अब सब कुछ है फिर भी लगते हैं लावारिस से
     गांव की याद आती है सपनों में
     अपनों का अक्स महसूस होता है सांसो में
     रिश्तो की केंचुली उतर रही है
     लगता है जैसे घिस गए हैं बरसों में
कभी हंसते थे खिलखिला कर
अब रहते हैं अनमने से
     कंप्यूटर बन कर जी रहे हैं
     कंप्यूटर पर ही लिख रहे हैं
     कंप्यूटर ने ही समेट लिया हमारा घर
     बच्चे हों या बूढ़े हों सबके कुतर दिए इसने पर
घर- परिवार ,सामाजिक परिवेश को छोड़कर
फिरने लगे हैं रोबोट से।
Mohan Jaipuri
Written by
Mohan Jaipuri  60/M/India
(60/M/India)   
33
   RSB
Please log in to view and add comments on poems