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Sep 2019
भीड़ में ऐसी खोई हूं
खुद कि पहचान खोती जा रही हूं
रातों को जागना राहत देता है
अकेलापन कुछ ज्यादा ही करीब आ रहा है
शायद"अकेले रहना है मुझे"
मेरी इस ज़िद ने अकेला रखा है मुझे
फिर भी बहुत कुछ अधूरा सा लगता है
अभी बहुत से सपने है इस दिल मै
उन्हें पूरा करने के हीमत हर बार जुटाती हूं
फिर न जाने जवाने की या अपनी ही
ठोकर से उस हिम्मत के पहाड़ को गिरा देती हूं
दिखाती  हूं सबको की बहुत हिम्मत है मुझमें
न जाने किस्से ये झूठ कहती हूं
सब से,दूसरो से या फिर सब मै शामिल खुद से
न जाने क्या चाहती हूं
खुद से ही खुद को खोती जा रही हूं
अपने आप को खुद ही नई समझ रही हूं
ऑरो से फिर कैसी उम्मीद रखू
जब खुद मेरा मन ही नई जनता क्या चाहता है वो
थक चुकी हूं दुनिया से
पर अब शायद खुद से हार रही हूं मै
फिर भी हर रोज़ उठती हूं
सबसे पहले खुद से मुक़ाबला करने की हिम्मत लाती हूं
फिर बस अपने बिस्तर को छोरकर
दुनिया का रोज़ सामना करती हूं
पर जिस दिन खुद से हारू न
उस दिन हार जाती हूं सब से
तो हर रोज़ अपने आप को हराने मै वक्त बिताती हूं
इसलिए भी शायद खुद को कहीं खोती जा रही हूं।
Written by
Rashmi
93
   Raj Bhandari
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